अखबारों में छपने वाले विज्ञापनों के बाजार में सरकारी तंत्र में और दलालों में करोड़ों-अरबों के घपले बरसों से लगातार जारी हैं। दो महीने पहले यूपीटीयू में विज्ञापन देने के नाम पर करोड़ों के घपले का खुलासा लखनऊ से छपने वाले एक हिन्दी दैनिक ने अपने अखबार के पन्नों पर किया था। उस घपले में एक विज्ञापन एजेंसी के साथ दो-तीन छोटे अखबारों के शामिल होने का खुलासा किया गया था। यह नाम खासतौर पर बाक्स में छापे गये थे। खबर दो दिन छपी। इसके बाद जांच के नाम पर सब कुछ शान्त हो गया। दरअसल विज्ञापन के क्षेत्र में बड़े-बड़े चोर दरवाजे हैं और शातिरों के अपने करतब/लखनऊ की कई विज्ञापन एजेंसियों के दफ्तर सूरज ढलने के साथ ही ‘बाॅर’ मंे बदल जाते हैं और देर रात तक ‘जाम’ के साथ ‘जाॅन’ तक छलकते रहते हैं। इन महफिलों में सरकार के बड़े ओहदेदार, एजेंसी के मालिकान/ अधिकारी, अखबार के अधिकारी कभी भी देखे जा सकते हैं।
‘प्रियंका’ ने 1986 के कई अंकों में उप्र राज्य लाॅटरी में हो रहे घपलों में विज्ञापनों के खेल को कई अंकों में उजागर किया था। उस समय ‘पीएसी’ के नाम से मशहूर विज्ञापन कंपनी लाॅटरी निदेशालय से लेकर लगभग प्रदेश के हर विभाग में काबिज थी। खुलासा होने के बाद ‘प्रियंका’ को खरीदने में नाकाम रहने पर विज्ञापन एजेंसी के मालिक की धमकियां, हाथापाई फिर तत्कालीन लाॅटरी निदेशक द्वारा मुकदमा दायर करना। इसमें भी मनचाही सफलता न मिलने पर नौकरशाही व न्यायिक कर्मियों के षड़यंत्र से संपादक को एक दिन के लिए जेल भेज देने का कृत्य किया गया। जब अपने फंसने और जेल जाने की बारी आई तो लखनऊ के तत्कालीन जिलाधिकारी के हस्तक्षेप और ‘प्रियंका’ के संरक्षक व शुभचिंतकों के माध्यम से 9 साल चले मुकदमें में निदेशक द्वारा खेद जताकर न्यायालय में क्षमा याचना कर समझौता कर लिया गया। आज भी उसी विज्ञापन एजेंसी के वारिस बेखौफ उसी राह पर बढ़ रहे हैं। हाल ही में हुए लोकसभा चुनावों में भाजपा ने उसे तमाम छोटे-बड़े अखबारों में अपने प्रचार का विज्ञापन छपाने का ठेका दिया था। एजेंसी ने खुले हाथों छपवाया भी लेकिन भुगतान के समय असल भुगतान से 50-60 फीसदी तक कटौती कर के छोटे-मंझोले पत्र-पत्रिकाओं को भुगतान किया।
विज्ञापनों के खेल में सूचना विभाग के कारिन्दों का अपना अलग गिरोह है। इसमें विज्ञापन एजेंसियां, अखबार/पत्रिकाओं के मालिकान/अधिकारी पूरी तरह भागीदारी निभाते हैं। टेण्डरों से लेकर सजावटी विज्ञापनों में विज्ञापन दर, आकार व किस अखबार में कौन सा टेण्डर छपेगा तक का खेल बड़े ही सुनियोजित ढंग से चलता आ रहा है। इसी तरह अखबरों के साथ लेन-देन का धंधा जारी है। छोटे-मंझोले अखबारों को जानबूझकर बदनाम किया जाता है जबकि खेल तो बड़े-बड़ों में हो रहे हैं। सूचीबद्धता जैसे नियमों ने विज्ञापन मान्यता समिति का नाम ही दफना दिया।
विज्ञापन के बजट का खेल आंकडों में इस कदर उलझा दिया जाता है कि उसके लिए काबिल सीए को भी अपना सिर पीट लेने के बाद भी नतीजा निकालना आसान नहीं होगा। इसी तरह कामर्शियल दरों पर दिये जाने वाले विज्ञापनों का अपना अलग जाल-बट्टा है। यह सब बरसों से चल रहा हैं जिसने इसके मुखालिफ आवाज उठाई उसके विरोध में चन्द अखबारवालों का समूह, सूचना विभाग के बेईमान और विज्ञापन एजेंसियां सक्रिय हो जाते हैं। यह एक गंभीर जांच का विषय है, लेकिन कौन करेगा जांच?
‘प्रियंका’ ने 1986 के कई अंकों में उप्र राज्य लाॅटरी में हो रहे घपलों में विज्ञापनों के खेल को कई अंकों में उजागर किया था। उस समय ‘पीएसी’ के नाम से मशहूर विज्ञापन कंपनी लाॅटरी निदेशालय से लेकर लगभग प्रदेश के हर विभाग में काबिज थी। खुलासा होने के बाद ‘प्रियंका’ को खरीदने में नाकाम रहने पर विज्ञापन एजेंसी के मालिक की धमकियां, हाथापाई फिर तत्कालीन लाॅटरी निदेशक द्वारा मुकदमा दायर करना। इसमें भी मनचाही सफलता न मिलने पर नौकरशाही व न्यायिक कर्मियों के षड़यंत्र से संपादक को एक दिन के लिए जेल भेज देने का कृत्य किया गया। जब अपने फंसने और जेल जाने की बारी आई तो लखनऊ के तत्कालीन जिलाधिकारी के हस्तक्षेप और ‘प्रियंका’ के संरक्षक व शुभचिंतकों के माध्यम से 9 साल चले मुकदमें में निदेशक द्वारा खेद जताकर न्यायालय में क्षमा याचना कर समझौता कर लिया गया। आज भी उसी विज्ञापन एजेंसी के वारिस बेखौफ उसी राह पर बढ़ रहे हैं। हाल ही में हुए लोकसभा चुनावों में भाजपा ने उसे तमाम छोटे-बड़े अखबारों में अपने प्रचार का विज्ञापन छपाने का ठेका दिया था। एजेंसी ने खुले हाथों छपवाया भी लेकिन भुगतान के समय असल भुगतान से 50-60 फीसदी तक कटौती कर के छोटे-मंझोले पत्र-पत्रिकाओं को भुगतान किया।
विज्ञापनों के खेल में सूचना विभाग के कारिन्दों का अपना अलग गिरोह है। इसमें विज्ञापन एजेंसियां, अखबार/पत्रिकाओं के मालिकान/अधिकारी पूरी तरह भागीदारी निभाते हैं। टेण्डरों से लेकर सजावटी विज्ञापनों में विज्ञापन दर, आकार व किस अखबार में कौन सा टेण्डर छपेगा तक का खेल बड़े ही सुनियोजित ढंग से चलता आ रहा है। इसी तरह अखबरों के साथ लेन-देन का धंधा जारी है। छोटे-मंझोले अखबारों को जानबूझकर बदनाम किया जाता है जबकि खेल तो बड़े-बड़ों में हो रहे हैं। सूचीबद्धता जैसे नियमों ने विज्ञापन मान्यता समिति का नाम ही दफना दिया।
विज्ञापन के बजट का खेल आंकडों में इस कदर उलझा दिया जाता है कि उसके लिए काबिल सीए को भी अपना सिर पीट लेने के बाद भी नतीजा निकालना आसान नहीं होगा। इसी तरह कामर्शियल दरों पर दिये जाने वाले विज्ञापनों का अपना अलग जाल-बट्टा है। यह सब बरसों से चल रहा हैं जिसने इसके मुखालिफ आवाज उठाई उसके विरोध में चन्द अखबारवालों का समूह, सूचना विभाग के बेईमान और विज्ञापन एजेंसियां सक्रिय हो जाते हैं। यह एक गंभीर जांच का विषय है, लेकिन कौन करेगा जांच?