Sunday, November 6, 2011

प्रगति का पंछी दुलारे लाल

डाॅ. शंभूनाथ चतुर्वेदी
स्वर्गीय पं0 दुलारे लाल भार्गव सर्व प्रथम ‘देव पुरस्कार’ विजेता थे। यह पुरस्कार उन्हें ओरछा नरेश ने ‘दुलारे दोहावली’ पर प्रदान किया था। वैसे तो पुरस्कार से रचनाकर की महत्ता को आंकना गलत होता हैं। सात्र्र और बोरिस पास्तरनाक ने ‘नोब्ल प्राइज’ ठुकराकर अपने कृतित्व को कालजयी बना दिया। भार्गव जी का महत्व उनके कृतित्व के कारण है, ‘देव पुरस्कार’ प्राप्त करने के कारण नहीं। स्वर्गीय भार्गव जी सुकवि तो थे ही, ‘सुधा’ और ‘माधुरी’ जैसी स्तरीय पत्रिकाओं के सम्पादक थे, हिन्दी के प्रथम प्रकाशक और पुस्तक विक्रेता थे तथा कवि-सम्मेलनों के माध्यम से हिन्दी के प्रचारक थे। अपने जीवन की सांध्य-बेला में उन्होंने कवि-कोविद-क्लब की ओर से तत्कालीन भारत की प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के सम्मान में एक अखिल भारतीय कवि-सम्मेलन और मुशायरे का आयोजन किया था। युवा पीढ़ी के लिए वे एक प्रकाश-स्तम्भ थे। भार्गव जी ने आत्म-परिचय देते हुए लिखा था -
गंगा पुस्तक माल सुधा-माधुरी चाकरी/ करी दुलारे लाल, लाल दुलारे लाल ह्वै।
भार्गव जी ब्रज-भाषा के श्रेष्ठ कवि थे; विशेष रूप से आधुनिक ब्रज-भाषा-काव्य के। उन पर भक्तिकाल और रीति-काल का प्रभाव रहा। इस माने में वे परम्परानुगामी कवि थे। परन्तु केवल परम्परा-पालन से ही हम उन्हें कालजयी रचनाकार की कोटि में नहीं रख सकते। उन्होंने छीजती हुई ब्रज भाषा को पुनः खड़ी बोली के समकक्ष खड़ा कर दिया। उन्होंने अपने दोहों में न केवल प्रेम और श्रृंगार के भावों को भरा, अपितु नूतन-नूतन युग-चेतना के संवहन के लिए भी उन्होंने ‘क्लासिकी’ भाषा का प्रयोग किया। मैं उनकी तुलना केवल बिहारी से नहीं करना चाहता। भार्गव जी प्रगतिकामी रचनाकार थे। उनकी रचनाओं में समसामयिकता के प्रति आग्रह दृष्टिगत होता है। फ्रेंच कवि बोदलेयर के शब्दों में मैं उन्हें वर्तमान यर्थार्थ का शब्द-शिल्पी कह सकता हूं। फाइउल केस्ट्रो के शब्दों में हर रचनाकार का महत्व अपनी समकालीन पीढ़ी के लिए लिखने के कारण होता है। भार्गव जी ने समसामयिक यथार्थ से आंखे मोड़ी। वे युग-चेतना और युग बोध के सशक्त कवि थे। वे सही अर्थों में एक प्रगतिशील और प्रयोगधर्मा रचनाकार थे। ब्रजभाषा के माध्यम से उन्होंने प्रगतिशील विचारों की अभिव्यक्ति की।
    ब्रजबानी घन प्रगति घन देश-गगन बिच छाइ - दियौ दयालु महेन्द्रजू जन-मन मोर नचाइ।
भार्गव जी स्वदेश-प्रेम और राष्ट्रीय चेतना के कवि थे। उन्होंने ‘नवीन’, ‘एक भारतीय आत्मा’ और निराला की भांति देशहिताय अपना जीवन-अर्पित करने का संदेश दिया। जो कार्य अन्य कवियों ने लम्बे-लम्बे गीतों और प्रबन्ध-काव्यों द्वरा किया, वही कार्य दुलारे लाल जी ने एक छोटे से छन्द दोहे को चुनकर किया, और यही उनकी काव्य-प्रतिभा का सबसे बड़ा प्रमाण है। वे भाव-विस्तार के नहीं, अपितु भाव-संहिति के कवि थे। वे स्वतंत्रता और राष्ट्रीयता की भावनाओं के उद्घोषक थे।
झर-सम दीजै देस-हित झर-झर जीवन-दान;
 रुकि-रुकि यों चरसा सरिस देबौ कहा सुजान।
समुचित है, स्वातंत्रय-हित सहि समाज कौ कोप;
 मन मलीन निज अंब के, लावौं आनन-ओप।

देश की आजादी के लिए ही उन्होंने जातिभेद दूर करने का संदेश दिया। सुधारवादी दृष्टिकोण को भी उन्होंने इसीलिए अपनाया था।
जाति-पांति की भीति तो प्रीति-भवन में नाहिं;
एक एकता-छतहिं की छांह मिलत सब काहिं।

उन पर गांधीवादी विचारधारा का प्रभाव था। गांधी जी के नव-जागरण आन्दोलन से वे प्रभावित हुए। गांधी जी के प्रभाव के कारण ही भार्गव जी की कविता में भावात्मक एकता की भावना दृष्टिगत होती है। भार्गव जी निराला को उन दिनों प्रोत्साहन दे रहे थे, प्रेमचन्द उन के सह-सम्पादक थे। इसीलिए न केवल उन्होंने अन्य रचनाकारों को देशहित प्रेरित किया, अपितु स्वयं उनके दोहों में देश-प्रेम की भावना प्रकाशित हुई। गांधी के नव जागरण के आन्दोलन को उन्होंने अपने दोहों का वण्र्य-विषय बनाया। उन्होंने गांधी जी की तुलना शिवाजी से भी की। गांधी के अतिरिक्त अपने दोहों में उन्होंने सरोजिनी नायडू के योगदान की प्रशंसा भी की। दुलारे लाल जी में एलियट द्वारा बताये गये ‘इतिहास-बोध’ का अभाव न था। इसीलिए वर्तमान को जगाने के लिये उन्होंने अतीत का सहारा लिया।
सिव - गांधी दोई भए बांके मां के लाल;
उन काटे हिन्दुन-दुख इन जग-दृग-तम-जाल।
भारत सरहि सरोजनी गांधी-पूरब-ओर;
ताकि सोचति ह्वैहै कबै प्रिय स्वराज्य रवि-भोर।

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने ‘निज भाषा’ के साथ ‘निज अर्थ’ की स्वतंत्रता पर बल दिया था। भार्गव जी का रचनाकार भी एक ओर भाषा-समृद्धि की ओर प्रयत्नशील था, तो दूसरी ओर आर्थिक आत्मनिर्भरता का संदेश भी जन-समाज को दे रहा था।
पर-राष्ट्रन-अरि चोट तैं धन स्वतंत्रता - कोट;
तटकर -परकोटा बिकट राखत अगम, अगोट।
हिन्दी-द्रोही उचित ही तुव अंगरेजी नेह;
 दई निरदई पै दई नाहक हिन्दी देह।

    मैं बताना चाहता हूं कि महाप्राण निराला, भार्गव जी के सम्पर्क में आकर साहित्य के क्षेत्र में अमर हुए। निराला जी प्रगतिवादी कवि थे। ‘भिक्षुक’, ‘वह तोड़ती पत्थर’ और ‘कुकुरमुत्ता’ रचनाओं में उनका प्रगतिवादी स्वर सुनवाई पड़ता है। निराला और भार्गव जी का घनिष्ठ सम्बन्द्द था। भार्गव जी ने भी अपने दोहों में शोषण की कहानी कही। उन्होंने भी आर्थिक वैषम्य पर प्रकाश डाला। भाषा में असमानता होते हुए भी निराला और भार्गव जी दोनों की रचनाओं में दलित वर्ग के प्रति संवेदना प्राप्त होती है।
मिलत न भोजन, नगन तन मन मलीन;
पथ-बासु, निरधनता-साकार लखि, ढारत करुनहु आंसु।

    छायावादी कवि प्रसाद की रचनाओं को प्रकाशित करने का श्रेय भी भार्गव जी को प्राप्त है। उन्होंने ‘कामायनी’ को धारावाहिक रूप से छापा। ‘जनमेजय का नागयज्ञ’ नाटक भी गंगा पुस्तक माला से छपा। प्रसाद जी अपने उपन्यास ‘कंकाल’ में प्रगतिवादी थे और ‘लहर’ की कविताओं में भी। ‘लहर’ के एक गीत में उन्होने श्रम-विश्राम के सम-विभाजन का स्वर बुलन्द किया था।
श्रम-विश्राम क्षितिज वेला से जहां सृजन करते मेला से।

श्रम-विश्राम का यही संतुलन दुलारे लाल के काव्य में प्राप्त होता है। वे इसी आधार पर धरा को स्वर्ग बनाना चाहते थे।
काम, दाम, आराम कौ सुघर समनुबै होइ;
 तौ सुरपुर की कल्पना कबहुं करै न कोइ।

    भार्गव जी के काव्य का यही स्वर अन्ततः मानवतावादी बन जाता हैं। प्रसाद ने मानवतावाद के लिये महाकाव्य ‘कामायनी’ की सृष्टि की। दुलारे लाल जी ने अपनी ‘दोहावली’ में मानवतावादी स्वर अभिव्यक्त की है।
मानव-मनाव एक हैं यामें रंच न भेद;
सत-सिव-सुन्दर वेद यह यहै पुकारत वेद।

    भार्गव जी एक सोद्देश्य रचनाकर थे। उनका कलादर्श आचार्य शुक्ल और मैथ्यू आॅर्नोल्ड की भाँति था- जीवन-सम्पृक्ति का स्वर ‘दुलारे दोहावली’ में सर्वाधिक सशक्त है। सम्भवतः इसीलिए ‘बिहारी सतसई’ से प्रभावित होने के बावजूद भी वे ‘शुद्ध कला’ के पक्षधर नहीं बने। उन्होेंने रीतिकालीन कवियों के समान केवल चमत्कार प्रदर्शन कला का लक्ष्य नहीं माना। कला और जीवन को सम्बद्ध करने का स्वर उनमें विशेष रूप से उपलब्ध होता है। शिल्पी (शब्द-शिल्पी) भी जीवन को समृद्ध करता है, यह कथन बंगला के सुप्रसिद्ध कथाकार शंकर का उनके उपन्यास ‘रूप तापस’ में है। भार्गव जी ने जीवन पर छाप छोड़ने वाली कला का वरण किया था।
कला वहै जो आन पै आपुनि छाँड़ै छाप ज्यों गंधी के गेह में गंध मिलति है आप।
भार्गव जी ने ‘प्रयोगवाद’ से पहले नये प्रयोग किये थे; यद्यपि ये प्रयोग ब्रजभाषा में किये गये थे और उनका लक्ष्य था आध्यात्मिकता का प्रचार करना।
सत-इसटिक जग फील्ड लैं जीवन-हाकी खेलि
वा अनंत के गोल मैं आतम बालहिं मेल।

(लेखक लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं।)

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