Sunday, November 6, 2011

श्री दुलारे लाल भार्गव की कतिपय कविताएं:समयानुसार

 (1)
यदि भृगु-कुल को सतत समुन्नत लखना चाहें,
बुद्धि, वीर्य, बल केतु बंधुओं, रखना चाहें,
विद्या, कला प्रचार विभव में भरना चाहें,
कलह द्वेष-तम मिटा मोदमय करना चाहें,
तो नभ-सम अनंत, गिरि-सम अटल प्रेम परस्पर अनुसरें,
तज मन्सर-मद, रख दृढ़ एकला वंशोन्नति साधन करें।
(जनवरी 1919)
(2)

वियोग के आंसू
(Sonnet के ढंग पर एक प्यारे दोस्त की मृत्यु पर लिखित चतुर्दशपदी। हिन्दी में लिखित प्रथम Sonnet)
सिंची सहज स्व-स्नेह सलिल से अधखिली
    कली कलित असमय में ही मुरझा गई।
अमल अमोल, सुडौल रत्न की चमक हो
    गई विलीन कालिमा उस पर आ गई।
क्रीड़ा करते हुए बीच बादलों के
    चारू चंचला क्षणिक छटा दिखला गई।
वारि, बंूद छोटी-सी समय-समुद्र में
    खो अपना आकार सगस्त, समा गई।
कोमल कलरव करने वाले कीर को
    सकल - कठं-स्वर सुधा सुमधुर वृथा गई।
आशा के विस्तीर्ण क्षेत्र पर, था जहां
    जरा उजेला, घोर अंधेरी छा गई।
हां। आते ही याद अतुल सुख की घड़ी
    लग जाती आखों से आंसू की झड़ी।
(एप्रिल 1919)
(3)
सिवा, मधुर मधु, तिय-अधर-माधुरी धन्य।
पै नव-रस साहित्य की यह माधुरी (‘माधुरी’ सोद्देश्य) अनन्य।
बस न हमारो, करहु बस, बस अब राखहु लाज,
बस न देहु, ब्रज मैं हमैं बसन देहु ब्रजराज।
(महाकवि देव के कवित के आधार पर)
(जुलाई 1922)
(4)
सज्जन और दुर्जन
स्वावलंब, समदर्षिता, स्वाभिमान, सम्मान,
सुरूचि, सत्य, सेवा सतत सज्जन की पहचान।
अहम्मन्यता, आंतरिक, अहंकार, अज्ञान,
द्वेष, दंभ, दुर्भति दुर्जन की पहचान।
(जनवरी 1923)
(5)
सिंधु मथै सुर ही लही नैकु जु सतजुग मांहि,
सहज सुलभ सोई सुधा सवै समय सब कांहि।
(सुधा सोद्देश्य)
मुरली, मोहन मुंह लागी, अनुचित-उचित न चेति,
आयु पियत मुख-संसि सुधा, पै औरन जिय लेति।
(अगस्त 1927)
(6)
यौवन-प्याला
(गीत चतुर्दशदी)

था छलक रहा यौवन प्याला, पीना जब मैने शुरू किया,
कुछ होश न था, परवाह न थी, सब भय था मैने भुला दिया।
    गलती करती हूं ध्यान न था;
    बस किसी बात पर कान न था।
सब सखी-सहेली गई हार, शिक्षा उनकी वह व्यर्थ हुई,
उस रात स्वर्ग में नए-नए रचने में खूब समर्थ हुई।
    पर रहें घूट जब दो बाकी,
    जा चुकी कहीं नटखट साकी।
संगी सब चलने वाले थे, था बुझने को तैयार दिया,
सब हाय! हाय!! क्या किया!! सोेंचकर कांप अचानक उठा हिया।
    वह मस्ती मेरी हुई चूर,
    वे स्वर्ग जा पडें़ कहीं दूर।
मैं छुई मुई सी लज्जित थी कहती थी --‘‘ प्यारे प्राण प्रिया’’,
इस रूप ज्योति ने आ चुपके इतने में मुझे उबार लिया।
(फरवरी 1962)
(7)
(भारत माता)
देहु देस- हित झर-सरिस झर-झर जीवन-दान,
चरस-सरिस रूकि-रूकि कहा देत निपट नादान।
(नवम्बर 1933)
(8)
बार-बित्यौ लखि, बार झुकि बाल बिरह के बार-
बार-बार सोचति-‘कितै कीन्हीं बार-लबार।
(जुलाई 1934)

(9)
देव पुरस्कार प्रदान किए जाने के अवसर पर तत्काल लिखित दोहे--
मम कृति दोस भरी खरी, निरी निरस जिय जोई--
है उदारता शबरी, करी पुरस्कृत सोई।
आलोचकों के प्रति
संतत मद हूं ते अधिक पद को मद सरसाइ;
वाहि पाइ बौराइ, पै याहि पाइ बौराइ।

तो भी
जे पद-मद की छाकु छकि बोले अटपट बैन,
सोउ जन कृपा करें, भरें नेह सों नैन।
(फरवरी 1935)
(10)
राष्ट्र भाषा
भाषा-जागृति ते जगत निद्रित राष्ट्र-समाज
सहित-जागृति में बसति भारत-मुकति स्वराज
प्रेम, संगठन,एकता भाषा ही सो होय;
जागृति बिन भाषा-प्रगति करत न जग में कोय।
(1939)
(11)
ज्योति प्रवाह
मोह-रजनि में सजनि, जब तम भय होत उछाह;
मानस में तब कीजिए जगमग जोत-प्रवाह।
(12)
राधा गगनांगन मिलै धरापति सों धाय;
पलटि आपुनो पंथ पुनि धारा ही ह्नै जाय।
(फरवरी 1964)

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