Tuesday, May 10, 2011

जनाब! लखनऊ तो गंदा है!

लखनऊ। राजधानी के चमकते-दमकते शहरी इलाकों की आबादी ताजा आंकड़ों के मुताबिक 28 लाख हो गई हैं। इस बढ़ोत्तरी के साथ नागरिक सुविधाएं काफी पीछे हैं। पानी, बिजली, सड़क, सफाई, सीवर, यातायात, अस्पताल, परिवहन, जैसी सारी जरूरतों के लिए हाहाकार है। हां, शिक्षा क्षेत्र का पूरा जिम्मा निजी संस्थाओं ने ‘किराना स्टोरों’ की तरह उठा रखा है। लखनऊ शहर को चमकाने के लिए इस बरस अकेले नगर निगम ने 260 करोड़ खर्च करने का बजट रखा है। 2011-12 में जेएनएनयूआरएम योजना के 400 करोड़ सहित नगर निगम 887.37 करोड़ रूपए खर्च करेगा। इसमें शहर के विकास सफाई, स्ट्रीट लाइट, कूड़ा उठाने, शौचालय बनाने, पार्कों, कांजी हाउसों, मूर्तियों की स्थापना, रैन बसेरा के साथ अन्य मद होंगे। यहां बताते चलें पांच साल पहले 2006 में मौजूदा मेयर व पाषर्दाें को निगम में दाखिल होते ही खजाने में 9327 लाख व शासन द्वारा तुरंत दिये गये 4 करोड़ मौजूदे थे। निगम के पहले बजट में अकेले सफाई व कूड़ा निस्तारण के लिए 42 करोड़ खर्च किये गए थे। इस साल के बजट में 60 करोड़ खर्च करने के लिए हैं। नगर निगम के महापौर ने कुर्सी पर बैठते ही ‘स्वस्थ लखनऊ स्वच्छ लखनऊ’ का नारा दिया था। शुरूआती दौर में पार्कों के निर्माण से लेकर शौचालय, गलियों के सुधार, मार्गप्रकाश आदि में रूचि लेने के साथ आवारा जानवरों के लिए कान्हा उपवन जैसी योजनाओं पर काम हुआ। उप्र की सरकार बदली और सियासी दांव-पेंच में शहरी विकास उलझकर रह गया। घरों में कूड़ा उठाने के लिए यूजर चार्ज के नाम पचास रूपए की वसूली के प्रस्ताव को नगर निगम सदन ने इसी जनवरी में निरस्त कर दिया था। फिर भी 1 मई से इसे घरों से वसूल किया जाएगा। 15 दिन पहले गोमती नगर जन कल्याण महासमिति ने इसका विरोध किया है। इससे पहले शहर की कई कालोनियों से विरोध बुलंद हो चुका है। महापौर स्वयं यूजर चार्ज के विरोध हैं। वे तो निजी संस्था को कूड़ा उठाने का ठेका देने के भी विरोधी रहे। अफसरशाही और सत्तादल की मनमानी ने कई ऐसे फैसले लिए जो निर्वाचित महापौर और पार्षदों का मखौल उड़ाते दिखते हैं। पांच सालों में नगर निगम एक अरब से अधिक का कर्जदार हो गया। इस कर्ज पर महापौर का दुःख गए साल के बजट-सत्र में सबने देखा था। कुल मिलाकर शहर गंदा है, मच्छर भिनभिना रहे हैं, नालियां बजबजा रही हैं, कुत्ते, बंदर नागरिकों को काट रहे हैं, सांड़-गाय लोगों को दौड़ा रहे हैं। सफाईकर्मी मनमाने तरीके से गुर्राते हुए अपनी हाजिरी दस्तूरी देकर लगा रहे हैं। पार्षदों को भी इसी माहौल में अपना भला करने के साथ अगली पारी की व नागरिकों की कोई चिन्ता नहीं है।
    नगर निगम क्षेत्र के 110 वार्डों में 1957558 मतदाता हो गए हैं, जबकि पिछले चुनावों में 1689324 मतदाता थे, इनमें 763029 मतदाताओं ने ही वोट डाले थे। कुल 45.16 फीसदी मत पड़े थे। वहीं नगर पंचायतों में 78.1 प्रतिशत वोट पड़े थे। लखनऊ के महापौर डॉ0 दिनेश शर्मा (भाजपा) को 221713 वोट मिले थे जबकि दूसरे नंबर पर रहे डॉ0 मंजूर अहमद (कांग्रेस) को 212410 वोट मिले थे। सपा की डॉ0 मधु गुप्ता 158918 वोट पाकर तीसरे स्थान पर रहीं थीं। डॉ0 दिनेश शर्मा की जीत के साथ लखनऊ महापौर सीट पर भाजपा की हैट्रिक हो गई थी। वहीं पांच सीटें खोकर भाजपा के 42 पार्षद जीते थे। सपा 31, कांग्रेस 23, निर्दलीय 14 सीटों पर काबिज रहे थे। इनमें साठ पार्षद पहली बार चुनाव जीते तो रमेश कपूर बाबा, नागेंन्द्र सिंह चौहान चौथी बार चुनाव जीते थे। गोविन्द पाण्डेय, हरसरन लाल गुप्ता (भाजपा), मो0 रिजवान, कामरान बेग, डॉ0 काशीराम यादव (सपा) व राजेन्द्र सिंह गप्पू (कांग्रेस) की हैट्रिक हुई थी। 323 महिला उम्मीदवारों कुल 39 ही जीत हासिल कर सकीं। इनमें भी 37 आरक्षित वार्डों से जीती थी। संभावित चुनाव में कहीं किसी नाम की चर्चा नहीं है, अलबत्ता बसपा ने अपना महापौर का प्रत्याशी अरूण द्विवेदी को तय कर दिया हैं।
    नगर निगम के पार्षदों ने शहर को संवारने के गुर जानने के लिए सिंगापुर में, तो अधिकारियों ने आंध्र और महाराष्ट्र में व महापौर ने विदेश में प्रशिक्षण लिया, फिर भी लाखनऊ गंदा है। आपके अखबार ‘प्रियंका’ ने कई बार लिखा ‘छिः.. कित्ता गंदा शहर है लखनऊ’, ‘ओ... शिट्.. कुत्ता का टट्टी’, ‘बंदर भी छेड़ते हैं लड़कियां,’ ‘गंदा है! गंदा है!! गंदा है!! लखनऊ’ लेकिन कहीं कोई हलचल नहीं। गरमी ने दस्तक दे दी है, मच्छर, गंदगी और पानी की शुद्धता व किल्लत संक्रामक रोगों को दावतनामें बांटने की तैयारी में हैं। मच्छर शहर भर में हमलावर हैं, निगम अभी अमेरिका से फॉगिंग मशीने मंगवाने की कवायद में लगा है। इसी माहौल में नये महापौर और पार्षदों के चुनाव होंगे। और एक सच बात लिखे बगैर यह रपट पूरी नहीं होगी, लखनऊ में साक्षरता 80 फीसदी के लगभग है। यानी पढ़े-लिखे लोगों का शहर है, लखनऊ फिर भी इत्ता गंदा। नागरिकों को भी अपने हिस्से की जिम्मेदारी निभानी ही होगी। चुनाव तो हर पांच साल में होंगे लेकिन राजधानी संवारने के लिए पढ़े लिखे लोगों को वोट के साथ श्रमदान भी देना होगा।

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