लखनऊ। समाजवादी किले की दरकी हुई दीवारों को दुरूस्त करने की ताजा कोशिश में मुलामय सिंह यादव ने अपनी पार्टी के मुसलमान नेता की शक्ल में कुख्यात रामपुरी खां साहब को आंसुओं से भिगोते हुए एक बार फिर गले से लगा लिया। आजम खां ने भी 18 महीने के बनवास के बाद अपने सफेद रूमाल से अपनी गीली आंखे पोंछकर सूबे से बसपा सरकार को उखाड़ फेंकने का एलान कर डाला। इसी गरज से उन्होंने छोटे समाजवादी भइया की पेशकश नेेता विपक्ष पद को भी ठुकरा दिया। तमाम गिले, शिकवों और तंज में डूबे भारी भरकम शेर सुनाकर, भावनाओं के ठाठे मारते दरिया में बरसों पुरानी बहती रिश्तों की कश्ती का वास्ता देकर भाई जान को मुसलमान वोटों से बेफिक्र होने की गारंटी भी दे डाली। गो कि साइकिल के फर्राटा भरने के दिन आ गए। समूचे मीडिया ने भी उनकी दोबारा कायम हुई दोस्ती को इसी नजरिए से देखा, दिखाया और पढ़ाया। हालांकि यह पहली घटना नहीं है।
मुलामय सिंह यादव मतलब परस्त दोस्ती, लाभ व सुविधा की राजनीति के लिए बखूबी जाने-पहचाने जाते हैं। उनके अतीत के पन्ने पलटिये, तो पता चलेगा कि उनकी सफलता के पीछे अपराध को राजनीति से जोड़ने, अपने ही सहयोगियों को मतलब निकल जाने के बाद ठिकाने लगाने की खतरनाक चालाकी भरा उनका मिजाज रहा है। जानने वाले जानते हैं, चैधरी चरण सिंह राम विलास पासवान को अपना राजनैतिक पुत्र कहा करते थे, उन्हें इन्हीं मुलायम सिंह की अगुवाई में अजीत सिंह की मर्जी के खिलाफ पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया गया था। मुलायम की खतरनाक चालांें का शिकार शारदा प्रताप रावत से लेकर एक लम्बी फेहरिस्त रही है। यहां तक सूबे के मुख्यमंत्री रहे राम नरेश यादव भी मुलायम की चालों का शिकार रहे। इसी तरह कई दुश्मनों से उनकी दोस्ती में उनके दुश्मन नंबर एक रहे इटावा के बलराम सिंह यादव से हुई उनकी दोस्ती का जिक्र काफी होगा। यहां 1985 के चुनाव के दौरान उनके चालाकी भरे षड़यंत्रों के शिकारों की लम्बी सूची उजागर किये बगैर केवल एक नाम राजेन्द्र सिंह लोकदल के वरिष्ठ नेता का लेना ही काफी होगा, जिन्हें धकियाकर मुलायम सिंह उप्र विधानसभा में नेता विरोधी दल बने थे। जबकि राजेन्द्र सिंह ही चैधरी साहब के दरबार में मुलायम सिंह के पैरोकार थे। ऐसे सैकड़ों प्रकरण है और उनकी खतरनाक चालों के शिकार बीसियों तेज तर्रार नेताओं के नाम हैं। इनमें एक वाकये का जिक्र मुसलमानों की मसीहाई शक्ल को आईना दिखाने के लिहाज से बेहद जरूरी है। उप्र लोकदल के अध्यक्ष राम नरेश कुशवाहा को हटाने को लेकर हुए लंबे नाटक के दौरान 27 नवंबर 1986 को लोकदल के महामंत्री सत्य प्रकाश मालवीय के घर हुई एक बैठक में प्रदेश अध्यक्ष रशीद मसूद या सखावत हुसैन को बनाने की बात हुई, तब मुलायम सिंह यादव ने ही कहा था, ‘मुसलमान तो वोट ही नहीं देते हैं।’
मुलायम सिंह के दोस्तों की हालिया लिस्ट में बेनी प्रसाद वर्मा, सुब्रत राय सहारा, अमिताभ बच्चन, अमर सिंह, संजय दत्त, मनोज तिवारी, जयाप्रदा जैसे बड़े नाम जहां काट दिये गये, वहीं कल्याण सिंह आज फिर से कट्टर दुश्मनों में शुमार हो रहे हैं, तो कुसुमराय से पर्दे के पीछे गुफ्तगू जारी है। ध्यान रहे कुसुमराय मुलायम के मंत्रिमण्डल में मंत्री भी रह चुकी हैं।
मुलायम सिंह यादव का इतिहास दोहराने की आवश्यकता इसलिए थी कि वे कल्याण सिंह की दोस्ती के जरिए पिछड़े हिंदुओं का वोट हासिल करके जहां लोकसभा में बढ़त बनाना चाहते थे, वहीं पिछड़ों के एक मात्र नेता साबित करने की बरसों पुरानी चाहत भी पूरी करना चाहते थे, नाकामयाब रहे। एक बार फिर सफलता की सीढ़ी चढ़ने को आतुर आजम खां के जरिये मुसलमान वोटों को हासिल कर सूबे में सपा की सरकार बनाने का सपना संजोए हैं। लब्बोलुआब यह कि तिकड़म और मतलबपरस्ती की राजनीति में भावुकता का मुलम्मा चढ़ाकर वे ‘वोटरों’ को क्या संदेश देना चाह रहे हैं?
आजम खां के भावुकता भरे अल्फाजों, नेताजी ने उन्हें दल से निकाला था, दिल से नहीं। मेरी भी स्थिति वैसी ही थीं। पार्टी से बाहर होने के दौरान भी उनके नेता मुलायम सिंह यादव ही थे। एक गलत व्यक्ति समाजवाद का मुस्तकबिल बनने लगा था। ऐसे में अगर विरोध न करता तो क्या इतिहासपुरूष बनने जा रहे एक व्यक्ति को गलत रास्ते की तरफ बढ़ने देता? सच तो यह है कि उस समय अपना बहुत कुछ खोकर बहुतों की आवाज बन गया था। माफी मांगकर मुलायम सिंह का कद पहले से और अधिक बढ़ गया है। मेरा मुलायम सिंह से रिश्ता सिर्फ राजनीति का नहीं है। अनेक मुश्किल दौर में उन्हें परखा भी है। इसका अहसास मुलायम सिंह को भी नहीं है इसीलिए उन्हें गलत रास्ते की तरफ जाने नहीं देना चाहता था। एक बात और कि अगर लोगों का मुलायम सिंह यादव पर से भरोसा हट गया तो लंबे समय तक लोग किसी नेता पर भरोसा नहीं करंेगे, के साथ उनकी आंख नम हो गई। खुदा जाने मुसलमानों के दिलों में कोई हलचल पैदा हुई या नहीं, लेकिन यह साबित हो गया कि कोई किसी से कम नहीं और उनके लिए कहीं ठौर नहीं, तो इनके लिए कोई और नहीं। ऐसा नहीं है कि अकेले आजम खां को ही रूलाने में कामयाबी हासिल की गई है। संजय डालमिया की भी आंखे मुलायम से एक मुलाकात के दौरान नम हो चुकी हैं। तमाम पुराने समाजवादियों को आंसुओं से भीगे रूमाल की नमी दिखाने का अभियान जारी है। इसके पीछे उनकी बहू डिंपल व भतीजे की हार भर का मलाल ही नहीं है, वरन एक बार उप्र के सिंहासन पर बैठकर कई हिसाब-किताब चुकता करने की चाहत भी पाले हैं मुलायम सिंह यादव। बहरहाल इस मुहिंम का नतीजा जो भी हो लेकिन एक बात तय है कि सूबे का मतदाता बेहद समझदार है और मुसलमान अब ‘वोट’ भर नहीं रहा। यहां एक बात और कहना गैर जरूरी नहीं होगा कि समाजवादी पार्टी का मुसलमान चेहरा आजम खां उस तरह से देखा जा रहा है जैसे बारातों में सबसे आगे चालते हाथी की शोभा।
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