पौराणिक पक्षी हंस के बारे में मान्यता है कि अगर उसके सामने आप दूध मिला पानी रख दें तो वह पानी को अलग कर ‘दूध’ ग्रहण कर लेता है. शास्त्रों में इसे नीर-क्षीर विवेक कहा गया है. ‘साहित्य’ से भी यही अपेक्षा की जा सकती है वह यदि सर्वजन हिताय काम ना कर सके तो कम से कम बहुजन हिताय तो करे ही. यानी सूरज ना बन् पाए तो बनके दीपक जलता चल. बकौल तुलसी जिससे ‘सुरसरि सम सबके हित होई.’ लेकिन अफ़सोस इस बात का है कि महान साहित्यकार प्रेमचंद की परम्परा पर गुमान करने वाली साहत्यिक पत्रिका ‘हंस’ ना तो समाज का कोई हित कर पा रहा है और न ही अपने नाम के अनुरूप इसके कर्णधारगण नीर-क्षीर विवेक का परिचय दे पाते हैं.
आप हंस का हालिया इतिहास उलटा कर देख लें तो सिवा वैमनस्यता फैलाने, कुंठा व्यक्त करने, भड़ास निकालने के पत्रिका की कोई उपलब्धि नहीं दिखेगी. इस पत्रिका को वैचारिकता का शौचालय ही बना दिया गया है. गोया समाज को गंधाए रखने के अलावा कोई काम ही नहीं हो इनके पास. निश्चित ही समाज में ‘विन्देश्वर पाठकों’ के लिए बहुत जगह है. बहुत तरह की गंदगी है जिसको साफ़ करना किसी भी पूजा-पाठ से ज्यादा ज़रूरी है. लेकिन उनका क्या करें जो साहित्य के नाम पर केवल और केवल मल-मूत्र ही फैलाने का काम करे. अपनी पत्रिका को ही संडास बना पूरे समाज को चौबीसों घंटा कमोड पर ही बैठाए रखने का जुगत भिड़ाते रहे.
क्या हम एक ऐसे समाज का निर्माण करना चाहते हैं जहां किसी चोर-हब्शी द्वारा बलात्कृत होकर भी महिलाएं शौक से बलात्कारी से निवेदन करे कि ‘कल फिर आना.’ जहां प्रतिशोध में धधकती कोई बालिका एड्स की ‘सौगात, बांटती फिरे. या किसी अदृष्य विदेशी लड़की का निर्माण कर लेखकों को मनाली-मसूरी तक दौड़ा दें? अगर इस पत्रिका का वश चले (जो सौभाग्य से कभी नहीं चलना है) तो वो ऐसे ही समाज का निर्माण करे जहां रामशरण जोशी की तरह आदिवासी बालाओं को केवल सेक्स का ही सामान समझा जाय. चार-पांच साल पहले जोशी द्वारा इसी पत्रिका में ऐसे ही बस्तर का खांचा खीचा गया था जहां बकौल वे ‘कोई बेवकूफ ही अधिकारी होगा जो शादी करके या पत्नी को लेकर बस्तर आये.’ छत्तीसगढ़ के बुद्धिजीवियों ने तब भी इन लेखक महोदय की जम-कर लानत-मलानत की थी.
तो बस्तर बालाओं के प्रति ऐसे ही विचार रखने वाले पंडित, लेखिकाओं को ‘छिनाल’ कहने वाले विभूति, और एक घटिया आंदोलन को बेच खाने की मंशा में असफल होने की खीज प्रदेश के पत्रकारों को गरिया कर उतारने वाले स्वामी आदि पिछले दिनों गिरोहबंदी कर एक ऐसे ही संपादक के नेतृत्व में विमर्श करने एकत्र हुए जिनके विचार और कर्म में कोई साम्यता आप ढूंढते रह जायेंगे. ‘वैदिकी हिंसा, हिंसा ना भवति’ विषय पर आयोजित इस ‘गुस्ठी’ का आशय सदा की तरह भारतीय पौराणिकता, मनीषा का अपमान करना, एक चुनी हुई सरकार और एक सबसे कम बुरी प्रणाली ‘लोकतंत्र’ का उपहास करना ही था. इस जमघट में वर्णित विचारों पर प्रतिक्रया फिर कभी. फिलहाल इसके आधार पर पत्रिका में लिखी गयी सम्पादकीय की बात.
छत्तीसगढ़ के मुख्यधारा के साहित्यकार-चिंतकगण,माधवराव सप्रे की परंपरा के पत्रकारगण सभी की यह एक सामूहिक शिकायत रही है कि अपने काले चश्मे के अंदर से हर विषय पर दिव्य-दृष्टि का दावा करते रहने वाले लोगों को यूँ तो बस्तर का ककहरा नहीं पता होता, लेकिन हांकेंगे ऐसे की ‘हाकिंग’ के विज्ञान ज्ञान की तरह ही इन्हें हर समस्या के बारे में महारत हासिल हो.
सितम्बर माह की सम्पादकीय में इस विषय पर लिखते हुए संपादक ने छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन को 'पुलिस अधीक्षक' कहा है. सामान्य तौर पर भले ही यह कोई बड़ी गलती ना लगे, लेकिन ज़ाहिर है जिस पत्रिका में ‘नुक्ताचीनी’ तक के लिए एक अलग से स्तंभ हो, विभिन्न पत्रिकाओं में छपी रचनाओं में अर्द्ध और पूर्णविराम की सामान्य गलतियों को ढूंढ कर उसका मजाक उडाया जाता हो, वहां अगर सम्पादकीय में ही ऐसी तथ्यात्मक भूल हो तो समझा जा सकता है कि प्रदेश के बारे में ऐसे कथित चिंतकों का ज्ञान शून्य है. केवल सस्ती लोकप्रियता हासिल करने या फिर किसी अदृष्य हाथों बिके हुए होने के कारण अपने किसी छुपे हुए एजेंडे को लागू का इसे बेजा प्रयास ही माना जायेगा. यह वैसे ही हुआ कि कोई कहे कि कौआ कान लिए जा रहा हो तो आप अपना कान देखने के बदले कौआ के पीछे पड जाय.
संपादकीय में लोकतंत्र के प्रति हिकारत व्यक्त करने वालों को यह तो मालूम ही होगा कि अगर इतना भड़ास वो निकाल पा रहे हैं तो केवल इसलिए कि देश में लोकतंत्र है. अन्यथा अपना चश्मा उतार कर दुनिया की तरफ नज़र दौड़ायें तो पता चले. एक हिटलर या अन्य किसी का उदाहरण देकर समूचे दुनिया में ख्याति प्राप्त इस सबसे कम बुरी प्रणाली को अनदेखा करने को क्या कहा जाय? जबकि इसके उलट आप एक भी ऐसे गैर-लोकतांत्रिक प्रणाली का नाम नहीं बता सकते जो वर्तमान दुनिया में सफल हो. निश्चित ही अधिकार प्राप्त करने के बाद अभिमान आ जाना मानव स्वभाव है. लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई सरकारें भी कई बार पजामे से बाहर हो जाया करती है. लेकिन यह भी ध्यान देने की बात है कि इन कमजोरियों को खतम करने का उपाय, ऐसी ताकत भी लोकतंत्र में ही निहित है. अगर भारत में लोकतांत्रिक ढंग से चुनकर आयी इंदिरा गाँधी ने आपातकाल लगा इस प्रणाली का गला घोंटने का प्रयास किया तो आखिरकार उनको बाहर का रास्ता भी इसी लोकतंत्र ने दिखाया. या राजेन्द्र यादव टाइप कोई उद्धारक अवतरित होकर ऐसा करने में सफल रहे?
रही बात सरकारी हिंसा की तो हां....ज़रूर...! बिलकुल जोर देकर इस बात को कहा जा सकता है कि राज्य व्यवस्था के लिए साम,दाम औए भेद के साथ ‘दंड’ एक आवश्यक तत्व है. आप भले ही अपनी सुविधा के लिए इसे राज्य प्रायोजित हिंसा का नाम दें, नक्सल हिंसा, जेहादी आतंकवाद या ऐसे अन्य खुरापात को सरकारी दंड प्रणाली के बरक्श रखने की हिमाकत करें लेकिन इतिहास और शास्त्र गवाह है कि दुनिया की कोई भी व्यवस्था बिना दंड प्रणाली के सुचारू रूप से चल नहीं सकती.
जिस तरह से देश के समक्ष 'माओवाद' आज सबसे बड़े आंतरिक खतरे के रूप में सामने आया है इसे कुचलने के अलावा और कोई उपाय नहीं है. सीधी सी बात है कि सरकार की व्यवस्था या उसकी दंड प्रणाली विभिन्न तरह के संस्थाओं यथा विपक्षी दल, न्यायालय, मानवाधिकार समूह, प्रेस, चुनाव आयोग आदि द्वारा समीक्षा के अधीन और अंततः जनता के प्रति जिम्मेदार हुआ करती है. जबकि ‘माओ गिरोहों’ द्वारा दान्तेवाड़ा के एर्राबोर में डेढ़ साल की बच्ची ‘ज्योति कुट्टयम’ को ज़िंदा जला देने की जिम्मेदारी लेने कोई बुद्धिविलासी कभी आगे नहीं आएगा, ना ही आगे बढ़ कर उसकी निंदा ही करेगा.
तो दो टूक कहा जाने वाला वाक्य यह है कि नियति ने हमारे समक्ष माओवादी हिंसा और न्याय आधारित सरकारी दंड व्यवस्था में से एक के चयन का ही विकल्प रखा है. निश्चित रूप से हम खुद के द्वारा चुने सरकार की दंड व्यवस्था के पक्ष में हैं. आप निश्चित ही इसे सरकारी हिंसा की संज्ञा देने को स्वतंत्र हैं. लेकिन याद रखें... ढेर सारी बदजुबानियों के बावजूद भी अगर आपकी जुबान, हलक में ही है तो इसी कारण क्यूंकि देश में लोकतंत्र है....बहरहाल.
छत्तीसगढ़ के इसी दंडकवन में राक्षसों द्वारा मारे गए मुनियों के अस्थियों का पहाड़ देख भगवान राम ने अंचल को निश्चर विहीन करने की शपथ ली थी. अब लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई सरकारों द्वारा संकल्प पूरा करने का अवसर है. सरकार को अपना यह संकल्प माओवादियों, मेधाओं, अरुन्धतियों, मानवाधिकार-वादियों और राजेन्द्र यादवों के बावजूद पूरा करना होगा. 'लोकतंत्र' अपने समक्ष उपस्थित इन चुनौतियों से ज़रूर पार पायेगा चाहे रुदालियां जितना शोर मचाएं.
सादर/ पंकज कुमार झा.
सम्पादक,दीप कमल.
रायपुर,छत्तीसगढ़.
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