Thursday, March 10, 2016

सेहत बिगाड़ता यौन ‘ब्रेकफास्ट’....!

लखनऊ। यौनाचार और यौन पवित्रता पर बात करना भारतीय समाज अश्लीलता मानता आया है। आज जब यौन उदारता का माहौल टेलीविजन/सिनेमा के पर्दे से लेकर सार्वजनिक क्षेत्रों में दिखने लगा है, तब इससे जुड़ा बाजार खड़ा होना स्वाभाविक है। इसके साथ ही यौन सेहत के प्रति चिंतित होना भी लाजिमी है। यहीं मातृत्व के प्रति भयमिश्रित गंभीरता के साथ ‘नारी पवित्रता’ की सोंच का डर भी वाजिब है।
    विश्व स्वास्थ्य संगठन, यूनिसेफ, एआईटीआई, आईकोग-2016 समेत कई संस्थाओं की रिपोर्ट बताती हैं कि यौन समस्याओं को लेकर भारतीय बेहद चिंतित है। इसकी पुष्टि स्मार्टफोन के एप ‘लिबरेट’ के विशेषज्ञों ने एक साल में की गई 5 करोड़ बातचीत के आधार पर की है। इन रिपोर्टाें के अनुसार देश के चार महानगरों व बेंगलुरू में औसतन 32 फीसदी लोग यौन समस्याओं से पीडि़त हैं। इनमें 48 फीसदी पुरूष व 43 फीसदी महिलाएं हैं। 30 फीसदी विवाहित जोड़े अपने यौन संबंधों को लेकर असंतुष्ट हैं। इनमें 15 फीसदी से अधिक यौन संक्रमित हैं। 35 फीसदी पुरूष यौन इच्छा व शुक्राणुओं के उत्पादन में कमी से पीडि़त हैं। 40 फीसदी महिलाओं को प्राकृतिक रूप से गर्भधारण करने में दिक्कतें आ रही हैं। 59 फीसदी महिलाएं खून की कमी का शिकार हैं। 40 फीसदी से अधिक महिलाएं योनि संक्रमण से ग्रस्त हैं। यही वजह है गुप्तरोग विशेषज्ञों, शफाखानों व दवा बाजार के बेतहाशा बढ़ने के और इसका एक कारण खुला यौनाचार भी बताया जाता है।
    टेलीविजन के पर्दे पर गर्भनिरोधक गोलियों, क्रीम व कंडोम के विज्ञापनों ने युवतियों को जहां बरगलाया है, वहीं यौन संबंधों को लेकर खुला विद्रोह करने वाले ‘कैंडल मार्च’ के साथ उच्च मध्यम वर्गीय समाज में ‘गर्ल फ्रेंड, ब्यायफ्रेंड’ व अपने शहर/कस्बे/गांव से दूर बड़े काॅलेजों में पढ़ने जाने के ‘स्टेटस’ ने भी काफी हद तक औरत की ‘पवित्रता’ को नष्ट किया है। इसके मातृत्व को संकट में डाला है। भले ही नारीवादी संगठन इस रोक-टोक को पुरूषवादी सोंच कहकर हल्ला मचायें। हालात यहां तक हैं कि युवतियां  विवाह पूर्व यौनाचार गुनाह नहीं ‘ब्रेकफास्ट इंज्वाय’ मानती हैं। इसके साथ ही विवाह की पवित्रता का भय उन्हें ‘कौमार्य’ बरकरार रखने के लिए बाध्य करता है। इसके लिए वे सर्जरी का सहारा ले रहीं हैं, जो महज 20-25 मिनट में निपट जाती है। आॅपरेशन के बाद कौमार्य पूर्ववत हो जाता है। इसे शादीशुदा महिलाओं में भी देखा जाने लगा है। इतना ही नहीं हाल ही में एचआइवी संक्रमण से बचने के नाम पर एक सुपर कंडोम इजाद किया गया है।
    जानकारी के मुताबिक टेक्सास के ए एण्ड एम यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर महुआ चैधरी और उनकी टीम ने इस नाॅन-लैटेक्स कंडोम का विकास किया है। इस कंडोम को इलास्टिक पोलिमर से बनाया गया है जिसे हाइड्रोजेल कहा जाता है। इसमें पौधों से लिए गए एंडीआॅक्सिडेंट को शामिल किया गया है। इस एंटीआॅक्सिडंेट में एचआईवी से लड़ने का विशेष गुण होता है, जो कंडोम फट जाने पर भी एचआईवी वायरस को मार देता है। यह केवल कंडोम नहीं है बल्कि एचआईवी संक्रमण के रोकथाम की दिशा में एक क्रांति साबित हो सकता है।
    यहां बताते चलें कि पुरूष/महिला कंडोम, गर्भ निरोधक गोलियां, लैटेक्स कैप्स, इंजेक्शन, आइयूएस, आइयूडी जैसे उत्पाद पहले से ही चलन में हैं, जो गर्भधारण करने की रोकथाम में सक्षम हैं। बावजूद इसके 25-29 वर्षीय युवतियों के गर्भधारण करने का औसत 47 फीसदी शहरों में व 43 फीसदी गांवों में है। वहीं 20-24 वर्षीय युवतियों में 53 फीसदी के आस-पास है। यह आंकड़े सामान्य जन्म दर (जीएफआर) पर आधारित हैं। जबकि आये दिन गर्भपात से लेकर कचरों तक में भू्रण से लेकर नवजात बच्चों तक के पाये जाने की खबरें आती रहती हैं।
    सूबे में मातृत्व सप्ताह के दौरान करीब 14 लाख गर्भवती महिलाओं में एक लाख हाई रिस्क गर्भवती महिलाएं मिली हैं, इनका सुरक्षित प्रसव कराना भी बड़ी चुनौती है। इसी तरह हाल ही में 25 साल से 35 साल की शादी शुदा महिलाओं के बीच कई शहरों में किए गए एक सर्वे में यह बात सामने आई है कि 93 प्रतिशत महिलाएं सबसे अच्छी, निजी साफ सफाई के तरीके नहीं अपनाती हैं। सर्वे में शामिल हर दूसरी महिला निजी साफ सफाई और उससे जुड़ी दिक्कतों की जानकारी अपने पति से साझा नहीं करतीं। इनमें ज्यादतर इन परेशानियों से निजात पाने के लिए इंटरनेट का सहारा लेती है।
    सर्वे में दिल्ली, मुंबई और बेंगलुरू से शामिल हुई लगभग 1500 महिलाओं में से 40 प्रतिशत योनि संक्रमण से ग्रस्त थीं पर इनमें से 60 प्रतिशत को लगता है कि इसके लिए मेडिकल चेक-अप की कोई जरूरत नहीं है। सर्वे में भाग लेने वाली मुबंई की 90 प्रतिशत महिलाओं ने बताया कि उनकी रोज की जिंदगी योनि संबंधित दिक्कतें, जैसे- सूखापन और जलन से बुरी तरह प्रभावित है। जवाब देने वाली हर चैथी महिला ने बताया कि इस दिक्कत की वजह से उन्हें बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ाता है।
    10 में से चार का वजेंटिस नाम की बीमारी की से भी पाला पड़ा है। इस बीमारी में योनि में बहुत तेज जलन होती है। ऐसे मामले मुंबई में सबसे ज्यादा 44 प्रतिशत, फिर दिल्ली में 42 प्रतिशत और बेंगलुरु में 36 प्रतिशत हैं। बड़े शहरों में रहने वाली 25 प्रतिशत महिलाएं असामान्य प्रवाह की समस्या से ग्रस्त हैं। ऐसा इनके साथ महीने में एक बार होता है।
दैहिक आनंद या शोषण!
मुंबई। फिल्मी सितारों में लिव-इन-रिलेशन आम चलन है। रोज किसी न किसी सितारे का किस्सा अखबारों की सुर्खियां पाता है। अभी हाल ही में कंगना-हिृतिक को लेकर काफी हंगामा मचा था, तब कंगना ने ‘सिली एक्स पार्टनर’ पर खूब तंज कसे।
    सलमान खान के साथ रोज किसी न किसी अभिनेत्री का चटखारेदार किस्सा सोशल मीडिया पर रहता है। विराट कोहली-अनुष्का शर्मा, रणवीर कपूर-कैटरीना कैफ/दीपिका पादुकोण, विपाशा बसु-जाॅन अब्राहम/डीनो मारियो, जैकलीन फर्नाडीस-साजिद के ताजा ब्रेकअप की खबरों के साथ कछ पुराने पन्ने पलट लेते हैं, जिनमें बाकायद बलात्कार के मुकदमे लिखाये गये।
    ताजा मामला प्रीति जिन्टा और नेस वाडिया का है, जिसमें प्रीति ने पुलिस में यौन हिंसा की शिकायत दर्ज कराई थी। सर्वाधिक हल्ला-गुल्ला तब मचा था जब टीवी एंकर/अभिनेत्री/माॅडल प्रीति जैने ने निर्माता-निर्देशक मधुकर भंडारकर पर बलात्कार की शिकायत पुलिस में दर्ज कराई थी। इसके अलावा छेड़छाड़ और दैहिक सुख की मांग के आरोप तो सोनाली बेन्द्रे, ममता कुलकर्णी, सुष्मिता सेन, मनीषा कोइराला, महिमा चैधरी, युक्तामुखी सहित पाॅप गायिक अलीशा चिनाय तक ने लगाये थे। गायक अंकित तिवारी के खिलाफ भी बलात्कार की शिकायत पुलिस में दर्ज है। और तो और सोनू निगम जैसे गायक ने अपने यौन शोषण  के प्रयास का स्वयं खुलासा किया था। फिल्मी दुनिया में दैहिक आनंद और शोषण के किस्से आम हैं।
एजेन्ट आॅफ इश्क
अभी-अभी गुजरे ‘वेलेंटाइन डे’ के दिन मुंबई के रूइया काॅलेज में ‘एजेन्ट आॅफ इश्क’ वीडियों को युवाओं ने मजे लेकर देखा। यह वीडियो मंुबई के पारोदेवी पिक्चर्स का है, इसमें काम-कला-शिक्षा पर डिजिटल दृश्य हैं। मशहूर ‘कंडोम मुन्ना’ का गाना भी है। चुंबन, अंतरंग संबंधों से लेकर सेक्स की तमाम बारीकियों पर चर्चा की गई है। यह ट्विटर पर भी चर्चित रहा है। हालांकि इसे ‘रोज डे’ का वीडियों कहा गया। इस वीडियों की निर्मात पारोदेवी के मुताबिक, ‘यह एक नार्मल सेक्स के बारे शिक्षित करने का प्रयास भर है।’
हाॅट एण्ड सेक्सी
आज युवतियां सेक्सी या क्यूट कम्पटीशन में भाग लेने के साथ-साथ शादी-विवाह के बाजार में ‘परफैक्ट वेडिंग मैटीरियल’ की तरह पेश की जा रही हैं। उनमें कपड़े, जेवरात, फैशन, मेकअप के साथ हाॅट एण्ड सेक्सी के लेबल के प्रति ललक पैदा की जा रही है। इसमें सबसे गरम भूमिका सोशल मीडिया निभा रहा है।
रोमांस को तरसते शादीशुदा
लखनऊ। देश में एक-चैथाई शादीशुदा दंपति एकांत में वक्त गुजारने को तरस रहे हैं। परिवार में इनके पास अपना अलग कमरा तक नहीं है। दूरदराज की बात तो छोडि़ये। लखनऊ में ही 20 फीसदी दंपति ऐसे हैं जिसके पास अपना अलग कमरा नहीं है। आवासीय स्थिति तथा सुख-सुविधाआंे के बारे में नेशनल सेम्पल सर्वे आर्गनाइजेशन यानी एनएसएसओ की रिपोर्ट के मुताबिक शहरी और ग्रामीण क्षेत्र में 75 फीसदी शादीशुदा दंपतियों के पास ही अपना कमरा है। रिपोर्ट के मुताबिक दंपतियों के लिए अलग कमरे की उपलब्धता परिवार के जीवन स्तर में बढ़ोतरी से जुड़ी हुई है।

गंगा-स्नान के नाम पर रेल में वसूली?

इलाहाबाद। माघ मेला में जाने वाले श्रद्धालुओं की जेब हर कदम पर कटती है। इसके अलावा हर यात्री जो रेल से इलाहाबाद से कहीं भी जाने की यात्रा करते हैं, उन्हें मेलाकर देना होता है। यह मेलाकर साधारण (जनरल) टिकट पर दस रुपये, स्लीपर श्रेणी पर पांच रुपया और वातानुकूलित श्रेणी पर पन्द्रह रूपया वसूल किया जाता है। यह वसूली 14 जनवरी से मेला समाप्ति (एक महिने से अधिक) तक जारी रहती है। गौरतलब है मेला क्षेत्र में हर वस्तु का पैसा श्रद्धालुओं को देना होता है। तम्बूघर में रहने, पीने के पानी, बिजली, शौचालय से लेकर नहाने तक हर जगह पैसा देना होता है। जबकि उप्र सरकार की ओर से माघ मेला का अलग से बजट होता है, जो इस वर्ष 28 करोड़ का है।
    रेलवे द्वारा मेलाकर वसूली को 14 जनवरी से टिकट के साथ जोड़ लिया जाता है। यदि आपने 14 जनवरी से 12 फरवरी (माघ पूर्णिमा) तक के लिए 12-13 जनवरी या इससे पहले किसी श्रेणी में आरक्षण करा रक्खा है, तो टीसी टिकट चेक करते समय आरक्षण चार्ट में आपके नाम के आगे मेलाकर लिखी रकम की वसूली करता है। इसकी बाकायदा रसीद दी जाती है। इसके लिए पिछले बरस तक एसएमएस तक किये जाते रहे हैं, ऐसा त्रिवेणी एक्सप्रेस के एसी कोच के टीसी ने नाम न छापने की शर्त पर प्रियंका संवाददाता को स्वयं बताया। उसने यात्रियों से अधिक अपनी परेशानी बयान की, ‘यात्रियों से पांच/पन्द्रह रूपये मांगने पर पहले तो कई तरह के सवालों का सामना करते हुए झिकझिक करनी पड़ती है। कई लोग तो झगड़ पड़ते हैं। जब पैसे देते हैं तो कोई पांच सौ रू0 का नोट देता है, तो कोई हजार का या सौ रूपये का, ऐसे में बाकी पैसे लौटाना टेढ़ी खीर साबित होता है।’
    सवाल यह है कि मेलाकर के नाम पर रेल यात्रियों से हो रही करोड़ों की वसूली का औचित्य क्या है? या गंगा स्नान करने वालों के नाम पर यह कर वसूला जा रहा है? इसे कहां और विकास के किस मद में खर्च किया जा रहा हैं? क्या यह रकम उप्र सरकार को रेल मंत्रालय अनुदान के रूप में देता है? या इससे इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पर कोई सुविधाएं बढ़ाई जा रही हैं? हालांकि इनमें से एक का भी जवाब तलाशा जाये तो शायद ही कोई सकारात्मक उत्तर मिले। इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पर प्लेटफार्म की कमी के कारण तमाम गाडि़यां घंटों देरी से आती-जाती हैं। रेलों के जनरल/स्लीपर कोचों में बिजली, पानी, शौचालय का अधिकतर अभाव रहता है। गंदे व टूटे शौचालय आम है। पीने के पानी का तो सवाल ही नहीं पैदा होता, हाथ धोना भी मुश्किल होता है। लंबे सफर के यात्रियों को खाने के लिए बड़ी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है।
    गुणवत्ता तो खराब है ही, उसकी शिकायत भी सुनने वाला कोई नहीं। जबकि लगभग 12 लाख यात्री रेलवे स्टेशनों व गाडि़यों में खाना खरीद कर खाते हैं। पंखे खराब तो एसी फेल या ब्लोअर काम नहीं कर रहा। उस पर लेट लतीफी का उबाऊ ठहराव, जो लूट के खास दावतनामे होते हैं। चलती ट्रेनों में बदमाश और पुलिस दोनों ही यात्रियों को लूटते हैं। महिला यात्रियांे के लिए तो सुरक्षा के नाम पर खुली शोहदई देखी जा सकती है। 31 दिसम्बर 2015 तक अकेले लखनऊ मण्डल में छेड़छाड़ के पांच व बलात्कार के दो मामले दर्ज किये गये हैं। सूत्रों की माने तो कई बार महिलाएं शिकायत दर्ज कराने से पीछे हट जाती हैं।
    रेल के एसी किराये में पहले ही बढ़ोत्तरी हो चुकी है। पिछले साल नवंबर से स्वच्छ भारत उपकर के नाम पर 0.5 फीसदी का उपकार भी यात्रियों पर थोप दिया गया है। इसी तरह आरक्षित टिकटों की वापसी पर दोगुना शुल्क लगाया गया है। टेªन के छूटने  के चार घंटे पहले तक ही यह सुविधा है।
    गौरतलब है रेलवे हर साल 900 करोड़ टिकट बेचता है जिनमें 25 फीसदी रदद होते हैं। ऐसे ही तत्काल टिकटों पर 33 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी कर दी है। आरक्षित कागज के टिकट पर 40 रू0 अधिक वसूलने की तैयारी है। इसी दौरान आधे टिकट (बच्चों के लिए) की यात्रा खत्म कर दी गयी। बावजूद इसके रेलवे दावा करता है कि रेलयात्रा 1 किलो दाल या 1 किलो सेब से सस्ती है। उसने इसका बाकायदा एक चार्ट भी पिछले दिनों जारी किया है। इसके अलावा रेलमंत्री चीन बार्डर तक रेल ले जाने, तो प्रधानमंत्री जापान से उधारी के बूते बुलेट ट्रेन मुंबई से अहमदाबाद तक चलाने पर वाजिद है। जबकि बुनियादी सुविधाओं का रेल ढांचा लगातार चरमरा रहा है।
    सरकार के पास योजनाएं। घोषणाएं बहुतेरी हैं और इन्हीं के पीछे रेलवे के तमाम हिस्सों को निजी काॅरपोरेट कंपनियों को सौंपने की तैयारी भी है। हालांकि एक भी योजना या घोषणा परवान चढ़ती नहीं दिखती। होली के हल्ले और गरमी के थपेड़ों को झेलने के लिए हर साल योजनाएं बनती हैं, घोषणांए होती हैं, इस साल भी बैठकें जारी हैं, लेकिन रेलवे सिर्फ और सिर्फ फेल होता आया है। और तो और हर रविवार लखनऊ रेलवे स्टेशन का भीड़ भरा नजारा और नर्वस रेलकर्मियांे का चेहरा देखने लायक होता है। सच यह है कि रेलवे मुफ्तखोरों का मुलायम निवाला बनकर रह गया है।

ये हैं नये ‘गब्बर’...?

लखनऊ। इंसाफ बेहद महंगा और अराजक हो गया है? यह महज सवाल भर नहीं है; बल्कि गम्भीरता से इस पर बहस होनी चाहिए। हर कोई अपने लिए विशेष सुविधा चाहता है। अपनी बात मनवाना चाहता है। अपने को सर्वोपरि या वीआईपी जनवाना चाहता है। उसके लिए हिंसा का सहारा लेना कहां तक जायज है? फिर सवाल दर सवाल? इसलिए, इंसाफ के देवता जब मामूली गुंडों की तरह नंगी सड़क पर हथियार लेकर आम लोगों को मारे-पीटें, उनको देखकर बच्चे, महिलाएं रोने-चीखने लगें, बीमार लोग उनकी दहशत में एम्बुलेंस के भीतर अपनी जान गंवा दें या अस्पताल तक पहुंचते-पहुंचते मौत के मुंह में समा जायें और पुलिस महज तमाशबीन रहे तो भी सवाल करन का हक किसी को नहीं है?
    पिछले महीने नाका में वकील श्रवण कुमार की हत्या को लेकर वकील समुदाय ने जो तांडव किया उसमंे दो जिन्दा इंसानों की मौत हो गई, पचासों लोग घायल हुए, पत्रकारों की पिटाई के साथ उनके उपकरण तोड़ दिये गये। पुलिसवाले घायल हुए। सैकड़ों वाहन तोड़े व फूंके गये। बच्चे, बुजुर्ग व युवतियों के रोने-चीखने पर खदेड़ दिया गया। वकील साहबान सरेआम डंडा, लोहे के सरिया और पिस्तौल लहराते तोड़-फोड़ करते टीवी पर दिखाये गये, अखबारों में छापे गये। सारा माहौल सहम गया। लखनऊ कराह उठा। कानून गूंगा हो गया, इतना तांडव फिर फिर भी सवाल पूछा गया, किसके आदेश से पुलिस न्यायाय परिसर में घुसी, आंसू गैस के गोले छोड़े और लाठी चार्ज कियाा? पुलिस किसलिये हैं? पुलिस की चेतावनी कोई मानेगा नहीं और पढ़े-लिखे वकील साहबान खुली सड़क पर सरकरी गैर सरकारी संपत्ति की फूंकते रहेंगे, बच्चों, महिलाओं, बुजुर्गाें और नागरिकों की हत्या पर अमादा रहेंगे? फिर भी कोई आवाज नहीं उठे, कोई सुरक्षात्मक लाठी नहीं उठे? वकीलों द्वारा की गई हिंसा महज अपराध है? उससे भी बड़ी बात, यह कोई पहली घटना नहीं है। इससे पहले वकीलों ने व्यापारी नेता बनवारी लाल कंछल को पीटते-पीटते सड़क पर उन्हें नंगा कर दिया? पिछले बरस अपने साथी वकील निखलेन्द्र की हत्या को लेकर वकील समुदाय ने हिंसक तांडव में लखनऊ को खासा नुकसान पहुंचाया? इलाहाबाद में दरोगा शैलेन्द्र की वकीलों द्वारा पिटाई के दौरान दरोगा द्वारा बचाव में चलाई गोली से एक वकील नवी अहमद की मौत के बाद भीषण उपद्रव हुआ, ऐसा ही जेएनयू अध्यक्ष कन्हैया की पिटाई के दौरान वकीलों ने दिल्ली में किया। इसके साथ ही कार्य बहिष्कार/हड़ताल का भयादोहन (ब्लैकमेल) अलग से किया गया? इससे पहले की तमाम हिंसात्मक घटनाओं में तहसील बदले जाने के समय वकीलों द्वारा हिंसक वारदातें की गईं। इन मामलों में क्या कदम उठाये गये और जो उठाये गये उनसे क्या वकीलों के आचरण मंे सुधार आया?
    यहां बताते चलें कि छः साल पहले उच्च न्यायालय ने उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत न्यायाधीश की अध्यक्षता में एक जांच कमेटी का गठन किया था। इसके अलावा सीबीआई जांच सहित अन्य जांच एजेंसियों को वकीलों के कारनामों की जांच के लिए छूट दी थी। उसी दौरान 11 मुकदमें सीबीआई को सौंपे गये थे। इन छः सालों में 60 वकीलों के खिलाफ मुकदमें दर्ज हुए, उनमें एक में भी अब तक कोई फैसलाकुन कार्रवाई नहीं हुई? यह देरी हौसला बढ़ाने में सहायक होती रही है। कई बार पुलिस खुद पिट चुकी है और उनको सियासी दबावों के चलते पिटते रहने को मजबूर होना पड़ा। पत्रकारों को दसियों बार वकीलों की पिटाई का सामना करना पड़ा, दिल्ली में जेएनयू मामले में वकीलों द्वारा पिटे पत्रकारों ने अपने साथियों के साथ बाकायदा मोर्चा निकाला। लखनऊ में भी पत्रकारों ने विरोध जताया।
    ‘ऐसा लगता है कि जिला न्यायालय परिसर में कानून-व्यवसथा की स्थिति दिनों-दिन बदतर होती जा रही है। ऐसे में मामले की जांच केन्द्रीय एजेंसी से कराने के अलावा कोई विकल्प शेष नहीं है- हाईकोर्ट।’ यह टिप्पणी तब की गई थी, जब 243 वकीलों (लखनऊ जिला कचेहरी) के खिलाफ 330 मुकदमें दर्ज थे, 5 हत्या व 3 अपहरण के, 53 जमीन हथियाने के और 75 हिंसक घटनाओं के थे। इनमें क्या हुआ? इस बार भी वकीलों द्वारा की गई हिंसा के बाद उच्चन्यायालय के हस्तक्षेप के बाद ही वकीलों ने हड़ताल वापस ली।
    मजे की बात है विधानसभा के भीतर और प्रेस के सामने हलक फाड़कर समूचा विपक्ष कानून-व्यवस्था को लेकर हंगामा करता है, सपा सरकार को नाकरा बताते नहीं थकता। वही विपक्ष वकीलों द्वारा की जाने वाली गुंडई पर खानापूरी भर करता रहता है? और देखिये वकीलों का तर्क कि देश में 19 लाख वकील हैं जिनसे सबसे अधिक राजस्व प्राप्त होता है फिर भी उन्हें कोई सुविधा नहीं? शायद सियासी दल इन वोटों के लालच में ‘हिंसा’ को जायज मानते हैं? अगर ऐसा है तो बाकी का 86 करोड़ वोटर क्या इन मुट्ठी भर वकीलों को ‘नया गब्बर’ मानकर डरा-सहमा रहे?

राजधानी में ‘अवैधों का है बोलबाला!

राजधानी में हर तीसरा आदमी ‘प्रापर्टी डीलर’, हर चैथा आदमी ‘बिल्डर’ और हर पांचवां आदमी ‘टाउनशिप आर्गनाइजर’ है। ठेकेदार, राजनैतिक कार्यकर्ता और पत्रकार उंगलियों पर गिन पाना नामुमकिन है। ऐसे हालात में
राजधानी की कीमती जमीनों पर कब्जे, अवैध निर्माण, फर्जी दस्तावेजों के जरिये जमीनों/मकानों की खरीद-फरोख्त का धंधा जोरों पर है। जो 4-5 साल पहले तक सड़कों पर चप्पल चटाकते थे या बरफ बेचते थे, दर्जी थे, या ऐसे ही छोटे-मोटे धंधे करते थे वे आज पजेरो या फार्चूनर जैसी महंगी गाडि़यों में मय कीमती हथियारों के बेखौफ सफर करते दिखाई देते हैं।
    आठ किलोमटर गोलाकार (रेडियस) का लखनऊ तीस किलोमीटर गोलाकार क्षेत्र में बदल चुका है। काकोरी, निगोहां, बख्शी का तालाब, बनी बंथरा से आगे तक काॅलोनियों, बहुमंजिली इमारतों, रिसार्टाें, होटलों और महंगे स्कूलों की जगमगाहट देखी जा सकती है। यह सब केवल मुख्य सड़कों पर ही नहीं है बलिक भीतरी इलाकों तक में सीमेंट/लोहे के ये ‘कैकटस’ उगे दिख जायेंगे। इनमें अधिकांश अवैध और मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं। यहां एलडीए की ही एक काॅलोनी में पिछले दिनों सीवर लाइन के बगैर गंदगी से उफनाते मेनहोल पकड़े गये थे। पुराने लखनऊ, मध्य, पूर्वी व कैण्ट की घनी आबादी के बीच घुमावदार चार-पांच फीट संकरी गलियों में बहुमंजिली इमारतें अपने में दसियों दड़बेनुमा फ्लैट समेटे हादसों के इंतजार में नियमों को तोड़कर सरकार और उसके बनाये कानूनों को मुंह चिढ़ा रहे हैं।
    इतना ही नहीं, इन्हीं भवनों में तमाम नाजायज कारोबार फल-फूल रहे हैं। जुए के अड्डे, सेक्स रैकेट, नाचघर, अवैध शराब के बार के अलावा कोचिग, छोटे-मोटे कारखाने खुलेआम चलाये जा रहे हैं। यहीं बिजली चोरी से लेकर पानी-सीवर टैक्स, वाणिज्य/आयकर ने देकर सरकारी राजस्व को चूना लगाया जा रहा है। इससे भी बदतर हालात विधायकों/सांसदो/पार्षदों द्वारा किये गये अवैध कब्जे व निर्माण के हैं। कहीं पार्क पर, तो कहीं आवास-विकास, नगर निगम की जमीन पर इन्हीं जनसेवकों के कब्जे हैं। यहां बताते चलें कि अपने को सर्वश्रेष्ठ देशभक्त मनवाने को बजिद राजनैतिक दल के पार्षद दिनेश यादव को न तो पुलिस अब तक गिरफ्तार कर सकी न ही उसके चंगुल से अवैध कब्जे छुड़ाये जा सके। यही हाल अन्य विधायकों या नेताओं के हैं।
    हां, आम आदमी के वैध माकन बनने मंे सौ झंझट और उसकी पंचायत करने भी यही अवैध कब्जा करने वाले पहुंचकर उस पर अपना हक जताने पहुंच जाते हैं। इन अवैध कब्जों की गूंज सरकारी विभागों से लेकर विधानसभा के सदन तक भी सुनी जा चुकी है।

तो अब मरने के लिये भी गारंटर.....?

 राम नाम सत्य है का जयकारा लगाने वालों को मुर्दे की तस्दीक भी करनी होगी कि वह फला शख्स था। यदि ऐसा नहीं
किया तो नगर निगम मानेगा ही नहीं, मरने वाला सच में मर गया। अब नगर निगम घरों में स्वाभाविक रूप से मरने वालों को तभी मरा हुआ स्वीकार करेगी जब पांच गवाह मय आईडी के साक्ष्य के रूप में हस्ताक्षर करेंगे। गांवों में 5 गवाहों के अलावा परधान को भी गवाही देनी होगी।
    यही हाल पैदा होने को लेकर है, जो अस्पताल में पैदा होंगे वे पैदा हुये मान लिये जायेंगे और जो सड़क पर या घर पर पैदा होंगे वे कहां दर्ज होंगे? एक तुर्रा और कि सब आॅनलाइन व्यवस्था है। गौरतलब है कि अब सरकारें तय करेंगी कब कौन कैसे मरेगा या कब पैदा होगा? गो कि जीने मरने पर भी सरकारी अमले की चांदी? अभी तक श्मशानघाट के झगड़े ही थे, अब मरने के लिये भी पहले गारंटर तलाश लें वर्ना औलादें चप्पलें चटकाती वारिस होने को तरस जायेंगी ? क्योंकि जन्म/मृत्यु प्रमाण-पत्र बगैर गारंटर के बनेंगे ही नहीं। मजे की बात है कि नगर निगम में आये दिन सर्वर डाउन रहने की समस्या से आॅनलाइन व्यवस्था पूरी तरह ध्वस्त रहती है।

झूठा है लखनऊ साफ का दावा

लखनऊ। कचरा जो करोड़ों की कीमत रखता है, उसे गंदगी कहना कहां का इंसाफ है? कचरा गलियों की शान व राजधानी का वकार हो गया है। क्योंकि कचरे से बिजली बनेगी? सारा शहर कचरे की बदइंतजामी का शिकार है। मोहल्ला कटरा मकबूलगंज, विधानसभा के दरवाजे से सिर्फ दो-ढाई किलोमीटर दूर बसा है। यहां की लगभग हर चार फुटिया गली में दर्जनों कुत्तों, गायों का परिवार, कूड़ा बीनने वाले और कचरे का फैलाव राहगीरों के लिए चलने का रास्ता नहीं छोड़ते। इस कूड़े में आम कचरे के साथ ‘हगीज’ व ‘माहवारी’ के निल्र्लज पोतड़ों के अलावा टूटा हुआ कांच, लोहे के जंग लगे सामान पूरे चार फुट की चैड़ाई में फैले वहां से गुजरने वालों को मुह चिढ़ाते हैं। वहां सफाईकर्मी दिन में 12 बजे के बाद तशरीफ लाते हैं। इनका सुपरवाइजर कभी भी नहीं आता, शायद ही किसी ने उसे देखा हो? जो सफाईकर्मी आते हैं, वे भी इसकदर बदजुबान कि यदि कोई नागरिक उनसे नाली साफ करने या गली के किसी विशेष हिस्से से कूड़ा उठाने को कह दे तो महिला सफाईकर्मी गाली-गलौज करने लग जाती है। वहीं पुरूषकर्मी मौन साधकर कूड़ा बीनने वाले बच्चों के साथ कूड़ा उठाने से लेकर इधर-उधर छितराने में व्यस्त रहता है। झाड़ू लगाना, नाली से सिल्ट निकालना शायद उसके काम का हिस्सा नहीं है?
    यहाँ बताना आवश्यक होगा कि यह दोनों सफाईकर्मी सभ्भवतः नियमित नहीं ठेके पर कार्यरत हैं या फिर किसी के बदले (एवजी) में  काम करते हैं। वैसे पूरे शहर में एवजी पर काम हो रहा है! यह जांच का विषय है। इन दोनों को ‘हरिजन एक्ट’ व अपनी संवैधानिक, राजनैतिक स्थिति के साथ नगर निगम के अंदरूनी हालात की खासी जानकारी है। दबी जुबान से सुना जाता है कि वे भी अपने अधिकारियों को रिश्वत देते हैं। इन गलियों में घर-घर से कचरा उठाने का कोई प्रावधान नहीं है।
    हां, राजधानी के लिये योजनाएं ढेर सारी हैं, जिनके लिये नगर प्रमुख (मेयर), नगर आयुक्त से लेकर नगर निगम का मलाईदार तबका देश-विदेश के कई हिस्सों से प्रशिक्षण प्राप्त कर ‘लखनऊ साफ’ का प्रमाण-पत्र तक हासिल कर चुका है। उसी झूठ को आगे बढ़ाने के लिए आये दिन अखबारों में बयान छपते हैं, ‘शहर को जल्द मिलेंगे और पांच हजार शौचालय’, ‘ब्राजील की तरह कूड़ा घरों पर लगेंगे पौधे,’ ‘घरों में शौचालय बनायेगा नगर निगम’, ‘कूड़े से बनेगी बिजली’, ‘नगर निगम साफ करेगा गोमती’, ‘लखनऊ ने सफाई में बंगलुरू को पछाड़ा’, ‘शहर में ... नई सीवर लाइन बिछेगी’, ‘घरों के बाहर सड़क पर खड़े होने वाले दो-चार पहिया वाहनों से पार्किंग शुल्क वसूलेगा नगर निगम’, ‘एलडीए 5 लाख में बेचेगा पार्किंग... सिंगापुर की तर्ज पर पार्काें में कम्युनिटी पार्किंग बनने की योजना’। इनमें से किसी एक को भी आज तक अमली जामा नहीं पहनाया जा सका। शौचालय तो दूर की कौड़ी है, मूत्रालय तक नहीं है और अगर हैं भी तो वहां आप खड़े नहीं हो सकते। चारबाग से बर्लिग्टन चोराहे तक आप तालश कर नगर निगम के मूत्रालयों के फोटो खींचकर ‘प्रियंका’ को भेजें हम छापेंगे। हीवेट रोड पर बंगाली क्लब के पास एक टूटा-फूटा और बर्लिग्टन चैराहे पर एफआई टाॅवर के टीचे बदबूमारता एक मूत्रालय है जिसकी ओर शायद ही कोई सफाई कर्मी देखता भी हो, फिर आम आदमी की बिसात?
    गौरतलब है कि सफाई व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने वाली रकम का इस्तेमाल दूसरे मदों में किया जाना आम है। 2011 में कांग्रेस पार्षद दल ने ऐसी ही एक शिकायत 387 लाख रूपये के दुरूपयोग की लोकायुक्त से की थी। लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात। आये दिन सफाईकर्मियों की भर्ती के एलान विज्ञापनों के जरिये किये जाते हैं लेकिन ताजा हालात बताते हैं की लखनऊ की आबादी के हिसाब से सफाईकर्मी अपर्याप्त है। हेल्थ मैनुअल के अनुसार दस हजार की आबादी पर 28 कर्मी होने चाहिए। इस हिसाब से 50 लाख की आबादी पर 14 हजार सफाई कर्मी होने चाहिए। सफाईकर्मियों की भर्ती को लेकर आये दिन धरना प्रदर्शन होते हैं। पिछले महीने एक धरने के दौरान वाल्मीकि व धानुक समाज ने धर्मपरिवर्तन तक की धमकी दी थी। बावजूद इसके ‘स्मार्ट सिटी’ के दावेदार हैं। यहां एक आश्चर्यजनक बात लिखनी जरूरी हो जाती है, ग्रामीण क्षेत्रों में भले ही साठ फीसदी लोग खुले में शौच करते हों लेकिन सूबे की राजधानी लखनऊ में खुले स्थानों पर शौच करने वालों की संख्या आबादी की 25 फीसदी से कम नहीं है। आंकड़े कुछ भी कहते हों, अधिकारी कुछ भी कहते हों, नगर विकासमंत्री कितने ही कड़क ईमानदार तेवर रखते हों, लेकिन राजधानी गू, गोबर, गंदगी और आवारा जानवरों से अटी पड़ी है।

गरमी आई, बिजली गई!

लखनऊ। बिजली चोरी का हल्ला हर चार दिन बाद ऊर्जा मुख्यालय की बैठकों से लेकर अखबार की सुर्खियों तक में छाया रहता है। इसी शोर की आड़ में बिजली वालों की बेईमानी नजरअंदाज की जाती है और उपभोक्ताओं की गर्दन दबाई जाती हैं। कभी लोड बढ़ाने के नाम पर, कभी मीटर चेक करने के नाम पर तो कभी बिजली चोरी के नाम पर बिजलीकर्मी बेघड़क घरों में घुस जाते हैं। महिलाओं, बुजुर्गाें को बाकायदा धमकाते, डराते हैं। जेल भेज देने का भय दिखाकर सीधे-सीधे रिश्वत तक मांगते हैं। भय भी ऐसा कि पिछले दिनों पुराने लखनऊ में एक बुजुर्ग महिला की करंट लगने से मौत हो गई। इसके अलावा मनमाने तरीके से उपभोक्ताओं से जुर्माना वसूला जाता है। इसी तरह मीटर रीडर रीडिंग में गड़बड़कर उपभोक्ताओं की जेबें काट रहे हैं। यही हाल बिजली बकाया वसूली के दौरान खुलेआम किया जा रहा है, जबकि पाॅवर कारपोरेशन प्रबंधन ने साफ-साफ बड़े अधिकारियों को वसूली के लिए उपभोक्ताओं के घरों तक जाने के आदेश दिये हैं। राजधानी में मुख्य अभियंता से लेकर अवर अभियंता तक अपने दफ्तरों से बाहर निकलना मुनासिब नहीं समझते। हर अधिशासी अभियंता ने वसूली का बाकायदा ठेका उठा रखा है। यही ठेकेदार व उनके सहयोगी पूरे शहर में वसूली करने में लगे हैं। मजे की बात है उपभोक्ता से वसूली में बकाया रकम के साथ तीन सौ रूपये अलग से लिये जाते हैं। यह तीन सौ रूपये अधिकतर नकद मांगे जाते हैं। उपभोक्ता चेक से भुगतान करना चाहे तो बकाया भुगतान राशि का चेक म्ेनअपकीं के नाम से और तीन सौ रूपयों एक चेक और म्म्म्न्क्क्ीनेेंपदहंदरध्बीवूा या जहाँ कहीं का भी हो के नाम से लिया जाता है। यह किस मद का होता है और क्यों लिया जाता है? जब उपभोक्ता बकाया भुगतान कर रहा है तो बिजली काटने/जोड़ने का पैसा भी उससे जबरिया नहीं लिया जा सकता। बिजली के बिलों में अनाप-शनाप पैसे लगा देना आम बात है। जरा उदाहरण देखिए, उपभोक्ता कुल 20 यूनिट बिजली जलाता है, उस पर 11501 रू0 बकाया है, उस पर एनर्जी व फिक्स चार्ज के अलावा 1505.38 रू0 अलग से चार्ज किये जाते हैं। वहीं 27 यूनिट वाले उपभोक्ता से एनर्जी व फिक्स चार्ज के अलावा 1545.09 रू0 लिए जाते हैं जब उस पर महज 7634 रू0 बकाया होता है। जरा आप देखें गरीब उपभोक्ता की जेब फाड़कर उसे कैसे लूटा जाता हैं। 20 यूनिट पर एक महीने में बिल होता है 698.38 रू0 27 यूनिट पर डेढ़ महीने में बिल आता है 1133.71 रूपया। खेल देखिये उपभोक्ता से 15 दिनों का फिक्स चार्ज दो बार वसूला जा रहा है? एमटी के नाम से 20 यूनिट दर 116रू0, 27 यूनिट पर 319.18 रू0 वसूला गया? गोया मीटर रीडर अपनी मर्जी से कभी भी आये अपनी मनमानी रकम भर कर उपभोक्ता को पकड़ा दे उसे वह देना ही होगा?
    वहीं लाखों बिजलीकर्मियों/पेंशनधारियों को लगभग मुफ्त बिजली दी जा रही है। वे दूसरों को बाकायदा बिजली बेच रहे हैं। वहीं पेंशनधारक मर गया है उसके घर में कोई पारिवारिक पेंशन भी नहीं पा रहा है फिर भी बगैर मीटर के मुफ्त में बिजली उसके घर में जल रही है? दसियों बार बिजली कर्मियों के यहां मीटर लगाने के आदेश हुए लेकिन अब तक नहीं लग सके? बिजली संकट और बिजली चोरी की खबरें दैनिक अखबारों से मिलीभगत कर छपवायी जातीं हैं। अब गरमी ने दस्तक दे दी है रोज औसतन चार घंटे लखनऊ में बिजली गुल रहती है। 24 घंटे आपूर्ति की नाकामयाबी के साथ राजस्व वसूली का लक्ष्य न पूरा कर पाने के खोखले वायदे से ध्यान भटकाने की गरज से 252 करोड़ सालाना बिजली चोरी की ख़बर छपवा दी गई। साथ में यह बताने से भी नहीं चूके कि पांच सालों में बिजली चोरी रोकने के लिए लगभग एक हजार करोड़ की रकम खर्च की गई। दरअसल बिजली के अधिकारी, कर्मचारी लापरवाह होने के साथ भ्रष्ट, बेईमान और हवाई किले बनाने में उस्ताद हैं। आये दिन सर्वर ठप हो जाता है जिसका खामियाजा उपभोक्ता को भुगतना पड़ता है। इसके अलावा जितनी भी योजनाओं की घोषणाएं की गईं वे सब मुंह चिढ़ा रही है। उस पर तुर्रा यह कि सूबे के मुख्यमंत्री बिजली संकट के लिए बसपा को दोषी ठहराकर इन बेईमानों की पीठ ठोक देते हैं लिहाजा ये और हौसलामन्द होकर उपभोक्ताओं का गला काटने में लग जाते हैं। साफ-साफ सवाल उठाया जाय तो उपभोक्ता से बड़े चोर बिजली वाले नहीं हैं?

गृहिणी के मन की बात मेट्रो से.....?


भइया दाल, भात और आलू-टमाटर पर कौन बहस करेगा? यह सवाल किसी ‘होरी’ या ‘घीसू’ ने नहीं मेरे सामने गरीबी की रेखा की तरह फैला दिया और न ही मनरेगा के स्मारक के इंतजार में खड़े ‘झंझटी’ ने उठाया है। यह तो एक शुद्ध भारतीय गृहिणी की उदास निराश लेकिन अहम् पूंछताछ है। उसे न तो किसी आरक्षण की आस है, न ही किसी सब्सिडी की, उसे तो अपनी रसोई में खाना पकाने के लिए सस्ती दर पर गैस सिलेंडर की जरूरत है। उस पर पकाने लिए दाल-चावल, सब्जी-आटे की दरकार है। इस गृहणी के ‘मन की बात’ ‘मेट्रो’ से चलकर कब तक सरकार के दरवाजे तक पहुंचेगी?
    जो लोग कल संवारने में अपनी पूरी ताकत खपा दे रहे हैं और जिनकी अस्थियां तक भारत माता के जयकारे लगाने की बाकायदा कसमें खाने  को तैयार हैं, क्या उनके कानों में भी यह मासूम सवाल सुनाई दे रहा है? या फिर जिस तरह रेल किराये की तुलना सेब, सिनेमा के टिकट से करते हुए उत्तर प्रदेश के खाते में बड़े-बड़े एलान कर दिये गये और पिछले वाले भुला दिये गये, उसी तरह इस पेट का दोजख भरने वाले सवाल को नजरअंदाज कर दिया गया।? क्या केन्द्रीय खाद्यमंत्री के बयान, ‘भारतीय दाल ज्यादा खाने लगे हैं, इसलिए अरहर दाल महंगी हो गई’ को सही मान लिया जायेगा?
    सवाल और भी हैं और उन्हें उठाना भी बेहद जरूरी है। वकील साहबान से किस ‘देशप्रेम’ की प्रेरणां मिल रही है? मेरे चाचा ने मुझे वकील बनाना तय किया था। उसी हिसाब से सपने भी देखे, लखनऊ विश्वविद्यालय के भीतर तक पहुंचाने की कोशिश की लेकिन मैं वकील न बन पाया। आज लगता है शायद ईश्वर ने सही फैसला किया था, क्योंकि जो हिंसात्मक समाचार वकीलों के लिए सुर्खियां पाते रहते हैं, वह मेरी 35 किलो की काया कतई बर्दाश्त न कर पाती। तकदीर ने पत्रकार, वह भी लोगों की जुबानी चिथड़ा पत्रकार बना दिया। यूं तो पत्रकारों को गरियाने का फैशन या चलन जो भी हो काफी बढ़ गया है। कोई दलाल कहता है, तो कोई रंडी। इससे भी मन नहीं भरता, तो गालियों के शब्दकोश का हर पन्ना उछाल देते हैं। मजा इस बात का है कि यही गरियाने वाले अपने दोहरे चरित्र के साथ जीते हुये अपने समाचार/फोटो छपवाने के लिये सौ-सौ जतन करते हैं। इतना ही नहीं तमाम तरह के प्रलोभनों का सहारा लेते हैं। आज के युवा व देशभक्त श्रेणी की पहली पांत के नेता लिपी-पुती महिलाओं को ‘विजटिंग कार्ड’ की तरह साथ में लेकर अखबार के दफ्तरों के चक्कर लगाते देखे जा सकते हैं। इनमें तमाम अपनी खबर छपवाने के लिये फोन करके, कराके काम करना दूभर कर देते हैं। गो कि रंडी के खिताब से पत्रकारों को नवाजने वाले उसी ‘रंडी’ के आगे लार टपकाते नहीं थकते।
    मुझे अपने पत्रकार होने पर नाज है,भले ही मूर्खों की जमात हिंसा पर, हत्या पर या जिंदा जला देने पर ही क्यों न उतारू हो। हां अंतिम बात या चेतावनी कि पत्रकार केवल गांधी या गणेश का शिष्य नहीं रह गया है, अब उसे भी कलम के साथ तमाम आधुनिक संसाधनो की जानकारी है।
    हां! इन दिनों देशप्रेम, देशद्रोह का सवाल पूरे देश के सामने पसरा हुआ है। इस सवाल को खड़ा और बड़ा करने वाले महानुभाव  रोज देशद्रोह जैसा अपराध करते नहीं थकते, कोई बिजली चोरी में लगा होता है, तो कोई टैक्स। इससे भी बढ़कर जमीनों पर कब्जा, पानी, अनाज, दवाई और जीवनदायी सामानों में सरेआम लूट करते हैं। और तो और आदमी की तस्करी जैसे जघन्य अपराध कर रहे हैं। दाल, आलू, प्याज तक की कालाबाजारी करने के साथ मिलावटी खाद्य वस्तुएं सरेआम बेंचते हैं। यह अपराध या देशद्रोह नहीं है? इन अपराधों में कितनों को पकड़ा जा रहा है या कितनों को सजा हो गई?
    इन सारे सवालों से बड़ा सवाल यह है कि यह मुल्क किसका है? बयानबाजों का या भाजपा का या कांग्रेस का या साधू से नेता में बदले जुबानदराजों का या जातियों का, आखिर किसका है यह देश? क्या देश-प्रदेशों में काबिज सरकारों से पूंछकर देशप्रेम करना होगा? क्या मंत्री, अफसर तय करेंगे कि देशवासी अपनी पत्नियों के पास सोने, सेक्स के लिए कब जायेंगे? बगैर पूछे जाने पर बलात्कार का आरोपी माना जायेगा?
    मैं राम प्रकाश वरमा, पत्रकार से पहले भारत का नागरिक होने की हैसियत से सरकारों और तमाम नेताओं से पूंछता हूं, देशप्रेम की क्या परिभाषा है? कौन आता है देशप्रेम के दायरे में? और क्या देश से प्रेम करने के लिये सियासी दलों से प्रमाण-पत्र लेना पड़ेगा?

गांव में ‘होरी’ तो मजूर ही है..!


दिल्ली सरकार के ताजा बजट में किसानों के भले का बड़ा हल्ला है। गरीब की जिंदगी में सुख भरने का व रसोई में सस्ती गैस पहुंचाने का ढोल बज रहा है। सच इससे परे है। किसान को कर्ज देकर क्या फायदा, जब उसके खेत में फसल ही नहीं होगी। खेती-किसानी का सच देखिये।
1- गांवों में बिजली है नहीं ।
2-सिंचाई के लिये पानी है नहीं।
3-खाद बीज ,डीजल की मारामारी है।
4-फसलों की सुरक्षा बीमा के नाम पर कम्पनी ठगी पर उतारू।
इन सबकी हकीकत पर गौर करिये, आम तौर पर बिजली आपूर्ति का कोई मानक तय नहीं, कागजो, बयानों में जो भी हो यथार्थ में दो घंटे भी नहीं मिलती बिजली। यही हाल पानी का है, नलकूपों (जहां हैं) से 110रु0 व ट्यूबवेल (डीजल) से 150रु0 प्रति घंटा की दर से मिलता है।
    चारो तरफ दाल के महंगे होने का हल्ला है उसकी उपज कम होने का रोना है, मगर सच से कोई भी रूबरू नहीं होना चाहता। किसान अरहर या कोई और दाल कैसे बोये अपने खेतों में जब खड़ी फसल नीलगाय के झुंड किसान की आंखों के सामने बर्बाद कर देते हैं। किसान उन्हें मार नहीं सकता , उनका शिकार नहीं किया जा सकता ऐसे में इनकी संख्या लगातार बढ़ती जा रही है।
    यहां बताना जरूरी होगा कि नीलगाय कृषि क्षेत्र में रहती है जहां हिंसक जानवरों का आना लगभग न के बराबर होता है लिहाजा उनको कोई संकट नहीं होता। शिकारी भी परमिट लेकर नीलगाय का शिकार करने में दिलचस्पी नहीं लेते क्योंकि उन्हें कोई लाभ नहीं मिलता। वन्य संरक्षण अधिनियम के अनुसार शिकार की गई नीलगाय सरकारी संपत्ति होगी जिसे गड्ढा खोदकर दबा देना होता है। उससे भी बड़ी समस्या उसे गाय मानने की है जबकि वैज्ञानिक रूप से यह गोवंश में नहीं आती है। अब रही कर्ज की बात तो किसान का खून परधान से लेकर बैंक तक बेदर्दी से पीते हैं।
    इसके लिये किसी गवाही की जरूरत नहीं, रोज आत्महत्या करते किसान और बैंकों के खातों में दर्ज किसानों के नाम चढ़ी रकम काफी है। ऐसे में गांव,किसान,गरीब का भला कैसे होगा? मजबूरन किसान मजूर हो जा रहा है या पलायन कर शहरों में रहकर छोटे-मोटे काम करने को मजबूर है।

आज प्यार, कल बलात्कार?

जिंदा और भावुक आदमी जिस महिला से प्रेम करता है, क्या उससे बलात्कार कर सकता है? सालों दैहिक सुख का आनंद उठाने के बाद दोनों में मन-मुटाव के कारण अलगाव हो जाता है, तो क्या मर्द बलात्कार का अपराधी होगा? आये दिन हो रहे बलात्कारों में क्या सत्य तथ्यों पर जांच हो रही है? सवाल तो और भी हैं, लेकिन इन तीन प्रश्नों के उत्तर में कई अदालतों में समय-समय पर उचित फैसले आ चुके हैं। बावजूद उसके मोमबत्ती मार्च, निकम्मी सरकार हाय-हाय... और विरोध की सियासत का हलक फाड़ दबाव पीडि़तों को इंसाफ दिला पाता है? अधिकांश मामलों में बेगुनाह जेल जाते हैं? जिस नाबालिग छात्रा के बलात्कार को लेकर अखबार से लेकर दसियों संगठन व विपक्ष के नेता विधानसभा के भीतर तक हंगामा मचाये हैं, उसमें जांच के नाटकीय पहलुओं पर बड़ी बारीकी से जांच हो रही है। असल तथ्यों को बेहद चालाकी से तमाम दबावों के चलते नजरअंदाज किया जा रहा है? पहले दिन पुलिस ने ही बताया, अखबारों में छापा गया, ‘छात्रा अपनी साईकिल चलाकर अकेली जानकीपुरम से हजरतगंज होती हुई घटनास्थल की ओर जाती देखी गई।’ फिर गुमशुदगी की शिकायत का बार-बार जिक्र? पुलिस उस ओर जांच क्यों नहीं कर रही कि वह लड़की अपने घर से स्कूल जाने के लिए निकली, लेकिन स्कूल न जाकर घटनास्थल तक अकेली आई तो किसके बुलावे पर और क्यों? बस यहीं सवाल उठाता है कि क्या महज खानापूरी की जा रही है?
    लंदन की हाकी खिलाड़ी अशपाल कौर ने भारतीय हाकी कप्तान सरदार सिंह पर बलात्कार का मुकदमा पिछले दिनों लुधियाना में दर्ज कराया। उनके अनुसार चार साल पहले उनकी सगाई सरदार से हुई थी और वे इस दौरान शारीरिक संबंधों के साथ रहे जिसके नतीजे में एक गर्भपात भी कराना पड़ा। अब सरदार सिंह पर बलात्कार का मुकदमा? धोखाधड़ी के कारणों की या वायदाखिलाफी की जांच अवश्य होनी चाहिए। ऐसे ही पिछले महीने लखनऊ के पीजीआई थाने में एक युवती का मामला आया है, सालांे साथ रहे, गर्भपात कराया अब यौन शोषण का मुकदमा? जब आपसी सहमति नहीं होगी तो सालों बलात्कार संभव है? वह भी बगैर बंधक बनाये?
    यहां बताते चलें कि उच्च न्यायालय दिल्ली ने 10 अगस्त 2010 में एक मुकदमें में फैसला दिया था, ‘लिव-इन में एक पार्टनर कभी भी बिना किसी कानूनी परिणाम के रिलेशनशिप से बाहर जा सकता है और उनमें से कोई भी धोखा देने के नाम पर एक दूसरे की शिकायत दर्ज नहीं करा सकता। इसी न्यायालय ने आगे कहा है, ‘जब दो वयस्क एक साथ रहना चाहते हैं तो इसमें अपराध क्या है? इसे अपराध करार नहीं दिया जा सकता।’ इसी तरह वेलूस्वामी-पचैया अम्माल केस में महिला का दावा था कि वेलू ने दो साल तक उसे पत्नी की तरह रखा बाद में उसे छोड़ दिया। 12 साल बाद अम्माल ने अदालत में अर्जी देकर गुजारा भत्ते की मांग की जिस पर निचली अदालत ने पचैया को पांच सौ रुपये माहवार गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया। जिसके खिलाफ वेलू उच्चतम न्यायालय गया, जहां 21 अक्टूबर 2010 को फैसला दिया गया, यदि कोई व्यक्ति किसी महिला को रखता है, उसे यौन इच्छाओं की पूर्ति/नौकरी करने के एवज में वह धन देता है तो ऐसे संबंध को हमारी राय में वैवाहिक प्रकृति के संबंध नहीं माना जा सकता।’ इतना ही नहीं उच्चतम न्यायालय में जस्टिस के.एस. राधाकृष्णन की अध्यक्षता वाली खण्डपीठ ने 22 नवंबर, 2013 में एक मुकदमें में फैसला दिया, ‘लिव-इन- रिलेशनशिप में रहना न कोई अपराध है और न ही पाप’। इसी तरह, लिव-इन-रिश्तों के आधार पर महिला को गुजारा भत्ते का अधिकारी भी नहीं माना। ऐसे दसियों परिस्थितिजन्य मुकदमों का हवाला दिया जा सकता है। लिव-इन-रिलेशन में रहकर दोनों प्राणी दैहिक सुख उठाते हैं, फिर मनमुटाव या अलगाव के हालात मंे मर्द बलात्कारी कैसे हो सकता है? साफ-साफ कहें तो आज प्यार हुआ राजी-खुशी समर्पण हुआ। कल महिला बलात्कार का मुकदमा कैसे दर्ज करा सकती है? इस सवाल पर गम्भीरता से सामाजिक बहस की जरूरत है।

शामियाने तले जनाना बंदोबस्त...!

‘तो मुलाहिजा हो... ‘सीन-सीनरी पुराने डिरामे की। लाइट फोकस सही। हुक्का-तमाखू चालू। जो पके लपूस हैं सो लिहाफ-दुलाई ओढ़े बैठे हैं। जवान-बांके की बात अलग। छापे का तहमद लगाये, बीड़ा दबाये, सुरमा जमाये, मूंछ की नोक पे गोंद लगाये घड़ी के दस बजा रहे हैं, खामखाही में बेफजूल खिलखिला रहे हैं। शामियाने तले जनाना बंदोबस्त अलग है। दूर-दूर से निगाहों का कनक्सन चल रहा है। इधर से होली की मुबारिक गयी, उधर से डेढ़ आँख भर जवाब आया।’ पहचाना अक्षरों के इस हुरियार को...? अजी जनाब ये हैं अपने मिर्जा के लंगोटिये के.पी. सक्सेना, ‘खेल पोरस और सिकंन्दर का’ के शब्दबेधी मंच पर।
    ‘अब जरा इन्हें भी पहचानिये, बरगद का वह पेड़, पक्षियों में बड़ा लोकप्रिय है। बेरोजगार कौवे, अखाड़े तथा बहाने की तलाश में निकले लड़ाकू तीतर, स्कूल जाती चिडि़यों को घूरने के इरादों वाले आवारा चिड़े, किसी खाये-पिये सेक्रेटरी से तृप्त तोते, गोल-गोल आँखें मटकाती-फुदकती मैनाएं सभी शाम होते इस बरगद पर बैठ जाते हैं।...... आना सार्थक हो जाता है, दो-चार डालों पर घूमघाम करके पूरे शहर के समाचार पेड़ बैठे प्राप्त हो जाते हैं।.....कबूतर बेचैन हो उठा। उसने एक उदास उड़ान भरी.... पोर्च पर से गुजरते हुए उसने देखा चपरासी बांस पर झाडू बांध रह थे। एक झटके में घोसला उछल गया है और अंडे टूट गये हैं।’ नहीं... पहचाना.....‘राजनीति और कबूतर के अंडे’ एक सांस में पढ़ते हुए पीड़ा भरे व्यंग्य के साथ हास्य के रंग-बिरंगी शब्दों की चादर तले भाई ज्ञान चतुर्वेदी ने कोई पैंतीस बरस पहले ‘धर्मयुग’ (होली-विशेषांक) के पन्ना नंबर सोलह पर हिन्दी के पाठकों के साथ मन भर होली खेली है।
    उस वक्त टाइम्स आॅफ इंडिया की पत्रिका ‘धर्मयुग’ के संपादक होते थे बड़े भाई धर्मवीर भारती जी और उनके सहायकों में गणेश मंत्री व मनमोहन सरल। यह वह दौर था जब ‘करंट’ हिन्दी साप्ताहिक के आखिरी पेज पर हरिशंकर परिसाई जी के तीखे तंज धमाल मचाकर अखबार बन्द होने के साथ छपना लगभग बंद हो चुके थे और ‘धर्मयुग’ को छपते हुए बत्तीस बरस बीत गये थे। ‘धर्मयुग’ देशभर की हिन्दी पट्टी की सबसे प्रिय पत्रिका थी। विदेशों में भी इसके पाठक पत्रिका की सिलाई खोलकर उसके पन्ने आपस में बांटकर पढ़ते थे।
    इसी होली विशेषांक में होली; मंगलाचरण पर ‘ब्लफ़ाय नमः ब्लफ़ मास्टराय नमः’ जपते गोपाल प्रसाद व्यास की लंतरानी, तो भंग भवानी की किरपा प्राप्त विनोद शर्मा ‘खर्चा खुराक जानवरान’ की आर्थिक नवलकथा बांच रहे हैं। राजनीति से ऊब गये देशपांडे, ‘कहां तक बखान करें अपनी इस ऊब का?’ औ ‘गुलमुहर तेल ‘रवीन्द्रनाथ त्यागी के साथ सुरेशकांत ‘गांधी जी के बंदरों पर फिल्म’ की होलियाना शूटिंग में गांधी बाबा से लौ लगाये हैं। बीच मंे ‘मेरी कारः मेरा हाहाकार ‘मचाये सुरेन्द्र शर्मा की चार लाइना भी हंै। ऐसे में काव्य संध्या का आयोजन न हो तो भला हारियारों को भौजाई-लुगाई का फरक भूलने का मौका कैसे मिलेगा। शैल चतुर्वेदी की ‘शादी भी हुई तो कवि से, भगवान जाने किस्मत में क्या बदा है, भागवान के लिए बैठ जाइए। बैठने के पांच सौ रूपये दिलवाइए का नारा बुलंद करते पूरी एक सौ पचहत्तर गलियों में गुम होने की धमकी देते हुल्लड़ मुरादाबादी के ऐन बगल में ‘रिटायर्ड कवियों के गोरखधंधे बनाम होली के फंदे’ का भूगोल सुधारने माणिक वर्मा, मधुप पाण्डेय के ठीक नीचे कपड़ों पर पचास प्रतिशत छूट पढ़ती सरोजनी प्रीतम मौजूद हैं। गजब हो गया... ओम प्रकाश आदित्य एकदम ऊपर आश्वासन का जर्दा, भाषण की सुपाडि़यां चभुलाते’ नेता का नख शिख वर्णन’ करते दिख रहे हैं। सुरेन्द्र तिवारी ‘इक पीली-सी चिडि़या की फागुनी भविष्यवाणी’ सुना रहे हैं। होली के हंसगुल्ले भी हैं। हरीश नवल के ‘मिलना डिग्री का चमन लाल को’ के साथ शंकर पुंणतांबेकर का ‘परीक्षा प्रसाद’ भी रवींद्र भ्रमर की ‘इसी होली में’ मौजूद है।
    ‘रूप फागुनी-धूप फागुनी’ हो और ‘होली हाथी पर सवार’ दिखे तो ‘कुछ रंगीन यादें’ औ... ‘काशी की होरी के रंग खूब छनी भंग’ तो ‘आजु रंगीली होरी’.... ‘होली दारागंज की’ ‘फागैं बुंदेली रंग बोरीं, खेलैं रस की होरी’ के बीच ‘हलके रंग, गहरे रंग, के साथ महादेवी जी भी महिलाओं की दशा-दुर्दशा पर चिंतित दिखाई देती है। बिना शिवानी जी के बेटे की बारात के संस्मरण और अमृतलाल नागर के उपन्यास ‘खजन नयन’ के अंश एवं दब्बू जी के कार्टून कोने के जिक्र के ‘धर्मयुग’ का यह होली-विशेषांक पूरा नहीं होता। महिलाओं ने भी ‘होली पर थोड़ी लिबर्टी’ ली हैं। गो कि होली की भरपूर मस्ती छनी है, बुजरूग से लगाये जिनका तन नहीं अटता चोली में उन्होंने  भी बड़े गहरे घोले है रंग, इस होली की ठिठोली में ‘धर्मयुग’ के रंगीन-संगीन पन्नों पर।