Tuesday, December 2, 2014

विज्ञापनों में बेइमानी है पुरानी!

अखबारों में छपने वाले विज्ञापनों के बाजार में सरकारी तंत्र में और दलालों में करोड़ों-अरबों के घपले बरसों से लगातार जारी हैं। दो महीने पहले यूपीटीयू में विज्ञापन देने के नाम पर करोड़ों के घपले का खुलासा लखनऊ से छपने वाले एक हिन्दी दैनिक ने अपने अखबार के पन्नों पर किया था। उस घपले में एक विज्ञापन एजेंसी के साथ दो-तीन छोटे अखबारों के शामिल होने का खुलासा किया गया था। यह नाम खासतौर पर बाक्स में छापे गये थे। खबर दो दिन छपी। इसके बाद जांच के नाम पर सब कुछ शान्त हो गया। दरअसल विज्ञापन के क्षेत्र में बड़े-बड़े चोर दरवाजे हैं और शातिरों के अपने करतब/लखनऊ की कई विज्ञापन एजेंसियों के दफ्तर सूरज ढलने के साथ ही ‘बाॅर’ मंे बदल जाते हैं और देर रात तक ‘जाम’ के साथ ‘जाॅन’ तक छलकते रहते हैं। इन महफिलों में सरकार के बड़े ओहदेदार, एजेंसी के मालिकान/ अधिकारी, अखबार के अधिकारी कभी भी देखे जा सकते हैं।
‘प्रियंका’ ने 1986 के कई अंकों में उप्र राज्य लाॅटरी में हो रहे घपलों में विज्ञापनों के खेल को कई अंकों में उजागर किया था। उस समय ‘पीएसी’ के नाम से मशहूर विज्ञापन कंपनी लाॅटरी निदेशालय से लेकर लगभग प्रदेश के हर विभाग में काबिज थी। खुलासा होने के बाद ‘प्रियंका’ को खरीदने में नाकाम रहने पर विज्ञापन एजेंसी के मालिक की धमकियां, हाथापाई फिर तत्कालीन लाॅटरी निदेशक द्वारा मुकदमा दायर करना। इसमें भी मनचाही सफलता न मिलने पर नौकरशाही व न्यायिक कर्मियों के षड़यंत्र से संपादक को एक दिन के लिए जेल भेज देने का कृत्य किया गया। जब अपने फंसने और जेल जाने की बारी आई तो लखनऊ के तत्कालीन जिलाधिकारी के हस्तक्षेप और ‘प्रियंका’ के संरक्षक व शुभचिंतकों के माध्यम से 9 साल चले मुकदमें में निदेशक द्वारा खेद जताकर न्यायालय में क्षमा याचना कर समझौता कर लिया गया। आज भी उसी विज्ञापन एजेंसी के वारिस बेखौफ उसी राह पर बढ़ रहे हैं। हाल ही में हुए लोकसभा चुनावों में भाजपा ने उसे तमाम छोटे-बड़े अखबारों में अपने प्रचार का विज्ञापन छपाने का ठेका दिया था। एजेंसी ने खुले हाथों छपवाया भी लेकिन भुगतान के समय असल भुगतान से 50-60 फीसदी तक कटौती कर के छोटे-मंझोले पत्र-पत्रिकाओं को भुगतान किया।
विज्ञापनों के खेल में सूचना विभाग के कारिन्दों का अपना अलग गिरोह है। इसमें विज्ञापन एजेंसियां, अखबार/पत्रिकाओं के मालिकान/अधिकारी पूरी तरह भागीदारी निभाते हैं। टेण्डरों से लेकर सजावटी विज्ञापनों में विज्ञापन दर, आकार व किस अखबार में कौन सा टेण्डर छपेगा तक का खेल बड़े ही सुनियोजित ढंग से चलता आ रहा है। इसी तरह अखबरों के साथ लेन-देन का धंधा जारी है। छोटे-मंझोले अखबारों को जानबूझकर बदनाम किया जाता है जबकि खेल तो बड़े-बड़ों में हो रहे हैं। सूचीबद्धता जैसे नियमों ने विज्ञापन मान्यता समिति का नाम ही दफना दिया।
विज्ञापन के बजट का खेल आंकडों में इस कदर उलझा दिया जाता है कि उसके लिए काबिल सीए को भी अपना सिर पीट लेने के बाद भी नतीजा निकालना आसान नहीं होगा। इसी तरह कामर्शियल दरों पर दिये जाने वाले विज्ञापनों का अपना अलग जाल-बट्टा है। यह सब बरसों से चल रहा हैं जिसने इसके मुखालिफ आवाज उठाई उसके विरोध में चन्द अखबारवालों का समूह, सूचना विभाग के बेईमान और विज्ञापन एजेंसियां सक्रिय हो जाते हैं। यह एक गंभीर जांच का विषय है, लेकिन कौन करेगा जांच?

नये दौर का नया आन्दोलन ‘अखबार मेला’

छोटे-मंझोले अखबारों/पत्रिकाओं के सामने आज के लक-दक बाजार की रंगीनियों में हर पल कुछ नये की तलाश में भटकते पाठकों के बीच अपने वजूद को बनाए रखने की सबसे बड़ी चुनौती है। 70-80 करोड़ हिंदी पढ़ने-समझने वाले हिन्दुस्तानी छोटे-मंझोले पत्र/पत्रिकाओं से कैसे जुड़ें? कैस दिली नातेदारी कायम कर सकें? इस पर बातें तो बहुत होती हैं। इनके तमाम संगठन भी सक्रिय हैं। लघु पत्रिका दिवस तक मनाया जाता है, मगर उसमें केवल साहित्यिक पत्रिकाओं की ही भागीदारी होती है। साप्ताहिक/पाक्षिक अखबारों और राजनैतिक, सामाजिक पत्रिकाओं का ऐसा कोई मंच नहीं है, जहां से वे अपना परिचय पाठकों के एक बड़े समुदाय से करा सकें। उन्हें अपनी सचबयानी और आदमी की पीड़ा से कराहते समाचारों-विचारों को पढ़वा सके। न ही कोई अखबार बेचनेवाले या वितरकों को कोई दिलचस्पी है और न ही बचे-खुचे पुस्तकालयों को। ऐसे में इन अखबारों/पत्रिकाओं को अपना दायरा बढ़ाने के लिए गम्भीरता से सोंचना होगा। बाजारीकरण, सरकारी उपेक्षात्मक नीतियों, विज्ञापनदाताओं की बेरूखी और अपनी ही बिरादरी के बेगैरतों के थोथे आरोपों की शाक्तियों को दर किनार कर पाठकों तक छोटे-मंझोले अखबारों/पत्रिकाओं की पहुंच कैसे आसान बनाई जा सकती है? खासकर तब जब बड़े अखबार 16-24 रंगीन पन्नों में पूरी दुनिया की नंगई और नेताओं की दबंगई, थियेटर, माॅल और बड़े वितरकों के जरिए बेचने पर बजिद हों। आज हर बड़े अखबार ने तहसील/ब्लाक स्तर पर अपने भव्य कार्यालय बना लिए हैं और उनके जरिए विज्ञापनों, पाठकों पर पूरी तरह काबिज होने का षड़यंत्र जारी है। इसमें उनका भरपूर सहयोग बड़ा कहा जाने वाला महाजनी समाज और सरकारी तंत्र पूरे मनोयोग से कर रहा है। जाने-अन्जाने मध्यम वर्ग व पेट की आग में झुलस रहा गरीब तबका भी शामिल है, व्यावसायिकता का तकाजा भी शायद यही है। छोटे-मंझोले अखबारों को ऐसे हालातों में विज्ञापन जुटाने, पाठक बनाने में बड़े परिश्रम के बाद भी कुछ खास हासिल नहीं होता। नतीजा यह होता है कि अखबार/पत्रिका अनियमित छपते हैं या असमय बंद हो जाते हैं। इसके जिम्मेदार सरकारी तंत्र, विज्ञापनदाताओं और पाठकों से अधिक पत्र/पत्रिकाओं के सम्पादक/प्रकाशक होते हैं। वे विज्ञापनों को हासिल करने के लिए हर जतन करते हैं। सरकारी कारिन्दों की परिक्रमा से लेकर राजनेताओं के यहाँ माथा टेकने व राजनैतिक दल विशेष, सत्तादल के गुणगान तक के पराक्रम में अपनी भरपूर ऊर्जा लगाते हैं। यहां तक जबरन उगाही तक के मामलों में फंसा दिये जाते हैं या फंस जाते हैं। विज्ञापन हासिल करने का यह चक्रव्यूह इतना गजब का है कि इसके भीतर धंसते जाने का लोभ न अभिमन्यु रहने देता है और न ही जयद्रथ। फिर होता वही है जो महाभारत के दोनों योद्धाओं का हश्र हुआ था। अपवाद छोड़ दें तो अधिकांश पत्र/पत्रिकाएं केवल सांस लेते भर रह जाते हैं। ऐसे हालातों में अखबार/पत्रिका के पन्नों पर पढ़ने लायक सामग्री नहीं छप पाती। कई बार तो हालात इतने हास्यास्पद होते हैं कि विदेशों की खबरें निजी संवाददाता के हवाले से छपी दिखाई दे जाती हैं। मजे की बात है कि अखबार/पत्रिका जिस इलाके से छप रहे होते हैं वहां की खबरें उसके पन्नों पर होती ही नहीं या न के बराबर होती हैं। बड़े अखबारों की तर्ज पर या नकल पर बड़ी खबरें या बड़ों की चिंता में दुबला होने वाली खबरें छपी होती हैं, जिन्हें पहले से ही कई-कई बार टेलीविजन के पर्दे पर देखा और बड़े दैनिक पत्रों में पढ़ा जा चुका होता है। इसके अलावा छपाई, भाषा की अशुद्धियां, कागज और पढ़े जाने लायक गम्भीर सामग्री या खबरों का लगभग अभाव होता है। इसके बाद इंटरनेट या टीवी चैनलों पर आरोप लगाना कि उनके आने से छोटे-मंझोले अखबारों/ पत्रिकाओं के पाठकों को घटाया है, कहां तक तर्कसंगत हैं?
बेशक छोटे-मंझोले पत्र/ पत्रिकाओं के आंदोलन का वह दौर अंग्रेजों के साथ चला गया जब संपादकों को बतौर पारिश्रमिक दो सूखी रोटियां, एक गिलास पानी और उम्र भर के लिए काला पानी का दण्ड मिलता था, फिर भी संपादकों की कतार मौजूद रहती। आज समय बदल गया है, जगर-मगर करते मोबाइल फोन के छोटे पर्दे पर हर जरूरत पूरी करने की क्षमता है। शेयर मार्केट के उतार-चढ़ाव से लेकर
प्रधानमंत्री के हर पल की खबर तक फेसबुक, ट्विटर पर मौजूद हैं, लेकिन लौकी बेचने वाले की घटतौली, परचूनिये की हेरा-फेरी, दरोगा जी की उगाही, मोहल्ले की दादागीरी, शहर-कस्बे-गांव के मेले, पर्व और ठगी के साथ कलेक्टर, पुलिस कप्तान के कामों में आनेवाली दिक्कतें, बिजली, पानी, अस्पताल, सड़क, पुलिया, बेवा-बुढि़या, बन्दर, कुत्ता, सांड़, शोहदे, सफाई के कष्ट जैसी हजारों खबरें हमारे आस-पास हैं। इन्हंें छापने की जरूरत है और आदमी से नातेदारी बनाने की ओर कदम बढ़ाने से शादी डाॅटकाम से लेकर मेटरीमोनियल काॅलमों पर हल्ला बोलने की जरूरत है। एक बार फिर से लघु-मध्यम पत्रों के आन्दोलन को धार देकर प्रधानमंत्री के ‘मेक इन इंडिया’ से जोड़ कर शुरूआत करने जरूरत है। लालू यादव के कुम्हार को रोजी देने की तर्ज पर मोहल्ले की खबरें देने की जरूरत है। महात्मा गांधी के ‘इंडियन ओपीनियन’ या ‘हरिजन’ की तरह अपने ही जिले की पीड़ा, पर्व और प्रेम को अखबार/पत्रिका के पन्नों पर छापकर स्वस्थ और स्वच्छ शहर-कस्बा और जिला बनाने के आन्दोलन से पाठकों, विज्ञापनदाताओं और वितरकों को जोड़ा जा सकता है। इसी सोंच के साथ ‘अखबार मेला’ लखनऊ में लगाया जा रहा है। मेला महज चाय समोसे के साथ ताली बजाने के लिए नहीं वरन् नये दौर में नये आन्दोलन का शंखनाद है।

गांधी, गणेश और गंगाधर की विरासत हैं छोटे अखबार

ईश्वर से या चैरासी करोड़ देवी-देवताओं से मेरी मुलाकात कभी नहीं हुई। मिले तो हमेशा आप लोग। आप ही सहोदर हो, देव हो और बिरादर भी। सुख में, दुख में और अक्षरों के गांव-गलियारे में आपने ही हाथ थामा। आज ‘अखबार मेला’ के मण्डप में आप सभी के चरण पखारते हुए धन्य हुआ। आप सभी का स्वागत करते हुए मैं राम प्रकाश वरमा अपने सहयोगियों सहित प्रणाम करता हूँ। आपका आशीर्वाद पाने के बाद यहां पर बैठे हुए माननीय अग्रज का इस्तकबाल आप सबकी ओर से करता हूँ और चाहुँगा कि इन राजर्षियों, ऋषियों के सम्मान में, खैरमकदम में आप सब इतनी जोरदार तालियां बजायें कि मेला मण्डप और उसके ऊपर का आसमान भी खिलखिला कर हंसते हुए अदब से आदाब करें।..... लखनऊ की तबियत और तरबियत बिलाशक नवाबी है, सो रूआब, शवाब और कबाब को सुर्खियां हासिल हैं, मगर मेले-ठेलों के शायराना ठहाके मजाज की ‘आवारा’ यादें ताजा करते हैं, तो नागर जी की ‘कोठे वालियों’ से भी आपकी मुलाकात कराते हैं। ‘अखबार मेला’ लखनऊ की सरजमीं पर लगाने का हौसला ओर प्रेरणां अपने गुरूवर आचार्य दुलारे लाल भार्गव के ‘कवि-कोविद-क्लब’ की पावन स्मृतियों से मिला। खासकर छोटे और मंझोले अखबारों/पत्रिकओं के प्रति आम सोंच से अलग उनकी असलियत से आमना-सामना कराने के लिए यह मेला आयोजित किया गया है। इसलिए भी कि गांधी, गणेश (शंकर विद्यार्थी) और गंगाधर की विरासत अभी चुकी नहीं है। दो-चार पन्नों के अखबार गली-मुहल्लों की खबरों के अलावा सचबयानी का हलफनामा होते हैं। पत्रिकाएं प्रेमचन्द की ‘ईदगाह’ से लेकर के.पी. सक्ेसना के लखनउवा आंगन तक की हकीकत बयां करती हैं। और भी बेलाग कहूं तो दो पन्नों में लोकतंत्र के झूठे दर्प का रोजनामचा छपा होता है। दरोगा से लेकर दागदारों की हकीकत से जलते हुए अक्षर इंसाफ के जयकारे लगाते हुए खबर की शक्ल में पढ़ने को मिलते हैं। कटरों-कस्बों की गंधाती जिंदगी और उनसे पैदा होने वाले कीमती कचरे का नरक से सामना करातीं खबरों की पूरी जमात का दर्द पढ़ा जा सकता है।
गो कि इन अखबारों/पत्रिकाओं में पसीना बेचकर अक्षरों को आलू, नमक और आटे की मंडी के ताजा भाव में बदलने के करतब करने पड़ते हैं। चुनाचे छोटे-मंझोले अखबारों/पत्रिकाओं के बेरंग या बेनूर होेने से उसकी गरिमा या पठनीयता कम नहीं होती। और आम पढ़े-लिखे अभिजातों के दिलो-दिमाग में बैठा यह भरम कि छोटे अखबार सरकारी विज्ञापन पाने की गरज से सौ-पचास (फाइल काॅपी) की संख्या में छापे जाते हैं, यह कोरी कल्पना है। सरकारें (केन्द्र/प्रदेश) छोटे पत्र/पत्रिकाओं को विज्ञापन देने के नाम पर तमाम ऐसे नियमों को लादे है जिसे पूरा करने में छोट प्रकाशक/संपादक हलकान रहते हैं। सूचीबद्धता के नाम पर भ्रष्टाचार का, शोषण का पूरा कुनबा जनसम्पर्क विभाग में खा पीकर अघा रहा है। सूचीबद्ध छोटे अखबारों (साप्ताहिक/पाक्षिक मासिक) को भी साल भर में महज तीन विज्ञापन जारी किये जाते हैं, जिनकी अधिकतम दर 6 हजार है। डीएवीपी की दरों पर जारी किए जाने वाले विज्ञापनों की अपनी अलग दास्तां है। ऐसे हालातों में अभावों से प्रतिस्पर्धा करनेवाले भला पीडि़त और शोषितों की आवाज कैसे बनेंगे?
इससे भी खतरनाक हालात पत्रकार मान्यता के हैं। जहां मान्यता समिति का बरसों से कोई अता-पता नहीं, वहीं (लघु-मध्यम पत्रों के) सम्पादकों को पहचान-पत्र तक नहीं जारी किये जाते। मान्यता प्राप्त धमाकाधुनी पत्रकारों की एक लम्बी जमात (अखबारों/इं.चैनलों में छोड़कर) बरसों से स्वतंत्र पत्रकार के रूप में सरकारी सुविधाओं के साथ अर्थ हिंसा के धंधे में अपना ठीहा जमाए है? प्रेस क्लब और दो जंग खाएं 19वीं शताब्दी के संगठन और उनके सरगना इसकी गवाही हैं। वहीं छोटे अखबार वालों को खबरें इकट्ठी करने तक के हक नहीं दिये जाते? यहां एक बात प्रदेश की समाजवादी सरकार, उसके मुखिया और तमाम जनप्रतिनिधियों से कहनी तर्कसंगत होगी कि आये दिन बड़े अखबारों के झूठे और अनर्गल प्रचार से उन्हें परेशानी का सामना करना पड़ता है, तो क्यों नहीं छोटे-मंझोले अखबारों को बढ़ावा देने की पहल की जाती? यदि ऐसा किया जाये तो सरकारी विकास का सच झोपडि़यों से जंगल तक अपनी पहुंच बना सकेगा। और अन्त में बेटियों की बात, जो कल की मां हैं। नई पीढ़ी का भविष्य हैं। उनकी सुरक्षा के साथ सम्मान और शिक्षा पर बाकायदा जन जागरण अभियान चलाना होगा। दरअसल मानवीय संवेदना की सरस्वती लुप्त हो गई है, उसे तलाशना होगा और उसे पूर्वजों की गंगा, परम्पराओं की यमुना से मिलाना होगा। उस पर सामुहिक सरोकारों के सेतु का निर्माण करना होगा।
इन्हीं संकल्पों के साथ आभार। प्रणाम।

जगर-मगर मीडिया के बीच लगा अखबार मेला

रविवार का दिन। राजधानी लखनऊ के राजपथ पर लगा ‘अखबार मेला’ का काफी बड़ा विज्ञापन पर्दा (बैनर) हर आने-जाने वाले को रोक रहा था। हर कोई जानना चाह रहा था, ‘यह कैसा मेला है?’ यहां अखबार बेचे जायेंगे?लखनऊ से छपने वाले सारे अखबार यहां मिलेंगे?क्या कोई राजनेता आ रहा है?कोई मनोरंजन का कार्यक्रम हैं?जितने लोग उतनी बातें। भीड़ बढ़ती जा रही थी। ‘अखबार मेला’ बैनर के पीछे लगे शामियाने के नीचे कई मेजों पर तमाम बहुरंगी अखबार/पत्रिकाएं करीने से सजे थे। उत्सुक भीड़ खासी थी। दरअसल तमाम छोटे-मंझोले, नये-पुराने अखबारों/पत्रिकाओं की प्रदर्शनी/मेला का पहला आयोजन राजधानी लखनऊ से छपनेवाली ‘प्रियंका’ हिन्दी पाक्षिक पत्र ने अपने कार्यालय ‘दिलकुशा प्लाजा’ के बाहर, विधानसभा मार्ग, हुसैंनगंज चैराहे पर अपने दो मित्र प्रकाशनों रेड फाईल’ हिन्दी पाक्षिक व ‘दिव्यता’ हिन्दी मासिक/साप्ताहिक के साथ किया था।
‘अखबार मेला’ की मुख्य अतिथि तेरह साल की कक्षा आठ में पढ़नेवाली नवयुग रेडियन्स स्कूल लखनऊ की छात्रा प्रतिष्ठा थी। यह विशेषता ‘बेटी कल की मां है-बेटी बचाओ’ सोंच पर आधारित थी। मेले में कोई मंच या मनोरंजक कार्यक्रम नहीं थे। साधारण से पंडाल के पीछे, ‘प्रियंका’ कार्यालय के बेसमेन्ट में ‘माता सरस्वती’ के चित्र को माल्यापर्ण कर प्रतिष्ठा ने मेले का शुभारम्भ किया। मेले का उद्घाटन दीप जलाकर पूर्वांचल के लोकप्रिय नेता, 25 करोड़ से अधिक भोजपुरी भाषियों के दुलारे ‘‘बाबा’ उप्र के पूर्वमंत्री व ‘प्रियंका’ हिन्दी पाक्षिक के संरक्षक पं0 हरिशंकर तिवारी ने किया। दीप जलाने में साथ रहे सरोजनीनगर लखनऊ के सपा विधायक पं0 शारदा प्रताप शुक्ला, पूर्वमंत्री उप्र डाॅ0 सुरजीत सिंह डंग व सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक पद्यनाभ त्रिपाठी।
‘अखबार मेला’ में आये अतिथियों का स्वागत करते हुए मेला आयोजक राम प्रकाश वरमा बोले,
‘बचपन में सिखाते यही धाम सत्य है
यौवन में लगे अर्थ काम सत्य है
जब राम चले जाते तन की अयोध्या से
तब लोग बताते राम नाम सत्य है
इसी सत्य से मेरा सामाना रोज होता है। राम से मेरी मुलाकात हर कदम पर, हर प्रयास पर और मेरी कलम से लिखे गये हर अक्षर में होती है। सुख में, दुख में मेरे साथ राम ही होते हैं। मेरे राम आप हो। आप ही मेरे प्रेरक हो, पालक हो और पथ प्रदर्शक हो। सखा हो, सगे भाई हो। मैं नहीं जानता ईश्वर को और जानना भी नहीं चाहता। मेरे लिए आदमी यानी आप ही ईश्वर हो। आपको प्रणाम। आपकी प्रेरणा से ही ‘अखबार मेला’ का ख्याल जब मेरे मन में जन्मा तो मैंने आपसे ही इसकी चर्चा की, आपसे इसके आयोजन की सलाह ली और आशीर्वाद की अभिलाषा भी। मेरे साथ मेरे साथी श्री रिजवान चंचल जी, श्री प्रदीप श्रीवास्तव जी और आप सब ‘अखबार मेला’ में मौजूद हैं। खासकर पूर्वांचल की धरती से आये पत्रकारों की मौजूदगी ने मुझे बेहद हौसलामन्द किया है। दरअसल ‘अखबार मेला’ अपने लिए अपनों से संघर्ष है। अपनी पहचान के लिए अपनों के बीच पर्व है। यह ताली बजाऊ या हल्ला-गुल्ला मचाने वाला कार्यक्रम नहीं है बल्कि जगर-मगर करते मीडिया के बीच छोटे-मंझोले अखबारों/पत्रिकाओं और आदमी के बीच संवाद कायम करने की पहल है। इसके अलावा देश की आधी आबादी जो बदलाव का परचम थामे बाजार की साजिशों का शिकार हो रही है के लिए आवाज बनने की कोशिश है। सो ‘बेटी कल की मां’ है के सच को अक्षरों का आन्दोलन बनाने का प्रयास है। बिलाशक यह रास्ता पथरीला है। इसी रास्ते पर गांधी, गणेश शंकर विद्यार्थी और बाल गंगाधार तिलक चले थे। यही रास्ता सरस्वती पुत्र प्रेमचन्द्र ने ‘ईदगाह’ जाने के लिए चुना था। नाम तो बहुत हैं हमारे पुरखों के मगर उनकी विरासत को चार कदम आपके साथ चलकर संजोये रखने की एक छोटी सी कोशिश भर है ‘अखबार मेला’।समय और सम्माननीयों का अदब करते हुए इतना ही कहूंगा-
बैठ जाता हूँ खाक पर अक्सर,
अपनी औकात अच्छी लगती है।’
मुख्य अतिथि प्रतिष्ठा ने बेटी बचाओं पर गंभीर चिंता व्यक्ति की, ‘बेटियों को दान करके अपना परलोक सुधारने के सनातन चलन ने आज बेटियों को महज असुरक्षा के वातावरण में जीने को ही नहीं मजबूर किया है, वरन् माता-पिता के वंश से भी निकाल फेंका है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी बेटी के पिता भले ही नहीं थे लेकिन उन्होंने स्वर्गीय इंदिरा गांधी को अपनी दत्तकपुत्री मानकर अपना ‘गांधी’ नाम उन्हें दिया था। आज भी
गांधी वंश का नाम बड़े अदब से भारत में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में लिया जाता है। बेटियों को दुलाराएंगे तो देश को बा... मदर टेरेसा और इंदिरा गांधी के सैकड़ों अवतार मिलेंगे।’
‘प्रियंका’ परिवार के संरक्षक पं0 हरिशंकर तिवारी पूर्व मंत्री ने अखबार के सम्पादक के पिछले तीस वर्षाें के संघर्षाें की चर्चा के साथ अखबार और उसके सम्पादक राम प्रकाश वरमा को ‘अखबार मेला’ आयोजन पर बधाई देते हुए कहा, ‘ऐसे अद्भुद आयोजन तो बड़े अखबार के लोग भी नहीं सोंच सके। ‘प्रियंका’ के ‘अखबार मेला’ अंक का लोकार्पण करते हुए श्री तिवारी जी बोले, ‘इसी तरह इनके अखबार ‘प्रियंका’ में भी एकदम अलग खबरें पढ़ने को मिलती हैं, जो इन्हें व इनके अखबार को तमाम बड़े-छोटे-मंझोले अखबारों से अलग खड़ा करता हैं। आप इसी अखबार में पढ़ेंगे तो कई खबरें ऐसी होंगी जो पिछले पन्द्रह दिनों में आपने कहीं नहीं पढ़ी होंगी’ ‘अखबार मेला’ में लगी तमाम अखबारों की प्रदर्शनी देखकर पंडित जी बेहद आचर्य चकित हुए। मेले में मौजूद सरोजनी नगर, लखनऊ के सपा विधायक पं0 शारदा प्रताप शुक्ला ने ‘अख़बार मेला’ के आयोजन को सराहते हुए कहा, ‘पुस्तक मेला सुनाा था, साहित्य मेला सुना था, लिट्रेरी कार्निवाल सुना था, लेकिन ‘अख़बार मेला’ पहली बार सुना, देखा और गुना। गुना यों कि इसके आयोजक मेरे मित्र ही नहीं हैं वरन ‘प्रियंका’ समाचार पत्र को निकालने के लिए नये-नये प्रयोग करते रहे, लड़ाइयाँ लड़ते रहे। आज भी मेला की मुख्य अतिथि बेटी है। इसके अलावा आयोजन का निमंत्रण भी अखबार के पन्नों पर ही छपा हैं एक-दो पन्नों में नहीं साढ़े चार पन्नों में, मैंने आज तक ऐसा कभी नहीं देखा, पढ़ा। राम प्रकाश बधाई के पात्र हैं।
डाॅ0 सुरजीत सिंह डंग ‘अखबार मेला’ देखने के बाद और बिटिया प्रतिष्ठा को मुख्य अतिथि की प्रतिष्ठा दिये जाने से बेहद भावुक शब्दों में बेटियों को शिक्षित किये जाने पर जोर देते हुए बोले, ‘हमें नकल करने की आदत है, इससे परहेज करना होगा। नकल करके पास होने वाला जब शिक्षक बन जाता है तो वह नई पीढ़ी को क्या शिक्षा देगा? आज दुर्भाग्य से हो ऐसा ही रहा हैं हमें अपनी बेटियों को बेटी समझने की ओर कदम बढ़ाने होंगे। प्रतिष्ठा बिटिया ने जो कहा है उस पर अमल करने का संकल्प लेना होगा।
‘अखबार मेला’ में आये अतिथियों, पत्रकारों व पाठकों को लेखक, विचारक व सामाजिक कार्यकर्ता पं0 पद्मनाथ त्रिपाठी, राष्ट्रपति से पुरूस्कृत शिक्षक पं0 ओम प्रकाश त्रिपाठी, भारतीय राष्ट्रीय पत्रकार महासंघ के राष्ट्रीय संयोजक डाॅ0 भगवान प्रसाद उपाध्याय, सोनभद्र से प्रियंका परिवार के वरिष्ठ सदस्य/पत्रकार मिथिलेश प्रसाद द्विवेदी, कांग्रेस नेता व प्रियंका परिवार के सदस्य राजेश द्विवेदी ने भी सम्बोधित किया। रायबरेली, उन्नाव, कानपुर, बाराबंकी, हमीरपुर, ललितपुर, बांदा, बनारस, इलाहाबाद, सुल्तानपुर, आजमगढ़, गोरखपुर, सीतापुर, मऊ, फैजाबाद, जौनपुर व राजधानी लखनऊ के पत्रकारों ने व सोनभद्र के वरिष्ठ पत्रकार श्री मिथिलेश द्विवेदी के नेतृत्व में सोनभद्र से 40 पत्र-पत्रिकाओं के तमाम संपादकों- प्रकाशकों ने मेले में सक्रिय भागीदारी निभाई। मेले में लगे अखबार-पत्रिकाओं में जहां हिंदी ‘ब्लिट्ज’ के पुराने अंक थे वहीं उनके संवाददाता रहे प्रदीप कपूर ने अपनी लिखी खबर भी उन्हीं अंकों में खोज ली और उसकी फोटो आयोजक के साथ अपने कैमरे में कैद कर ली। मेले में ‘‘वाह क्या बात’, ‘न्यूज साइट’ व कई अन्य पत्रिकाओं का विमोचन भी अतिथियों ने किया। सुदूर दक्षिण भारत के केरल, महाराष्ट्र, गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, बिहार व उप्र के 1870 पत्र-पत्रिकाओं को देखकर पाठक, पत्रकार, नेता अभिभूत थे।

झूठा है महंगाई घटने का शोर


राजकोषीय घाटा चिंता का विषय है। कर्ज बढ़ता जा रहा है। टैक्स-मुद्रा स्फीति मामले में देश की हालत सोंचनीय है। बाजवजूद इसके जिन सवा सौ करोड़ की दुहाई देकर तमाम गुल-गपाड़ा मचाया जा रहा है, उन्हें आंकड़े नहीं सस्ती और सुविधाजनक तरीके से रसोई गैस चाहिए न कि कांग्रेस फार्मूले वाले घुमाव-फिराव वाली सब्सिडी का झांसा। विदेशों से वापस आनेवाले कालेधन से करोड़पति बनने की चाहत के सपने में चन्द भारतीय मगन होंगे लेकिन हकीकत में कालाधन तो फुटपाथ से लेकर महलों तक हर किसी की ख्वाहिशें पूरी करने का साधन है। इंटरनेट, मोबाइल सस्ता होने से अधिक अरहर की दाल के सस्ते होने की जरूरत है। आंकड़ों का झूठ कहता है कि खुदरा महंगाई एक प्रतिशत घटी जबकि अंडा एक पांच-छः रूपए में मिल रहा है, मई से अक्टूबर तक चार रूपए में मिल रहा था। मछली मामूली दर्जें की एक सौ चालीस रू0 किलो बिक रही हैं, मई में 60-80 रूप किलो बिक रही थी। ऐसे ही घी-तेल व अन्य सामानों के भाव हैं। डीजल/पेट्रोल सस्ता होने से ट्रांस्पोर्टरों को फायदा हुआ होगा। लेकिन जन सामान्य तो पहले से भी महंगा सामान खरीदने को मजबूर है। सीजन में आने वाली सब्जियों के भाव भी आम आदमी की रसोई की हालत चिंताजनक बनाए हैं।
अखबारों में छापा जा रहा है कि भारतीय शेयर बाजार में इस साल 15.4 अरब डाॅलर का अब तक निवेश हो चुका है और सेंसेक्स 7,246 अंक मजबूत हुआ है। इसका लाभ आम आदमी को क्या मिला? यह तो कागजी हल्ला है। यही कागजी शेर बैंकों का 41 हजार करोड़ से अधिक दबाये बैठे हैं। मोबाइल फोन के बाजार को 40-42 हजार करोड़ का बताया जा रहा है, इसमें 75-80 फीसदी विदेशी कंपनियों के खाते में है।
गौर से देखा जाय तो ईस्ट इंडिया कं0 के नक्शेकदम पर लूट जारी है। ताजी घटना स्टेट बैंक द्वारा अदाणी समूह को एक अरब डाॅलर का कर्ज दिये जाने की है, जबकि पहले से ही किंग फिशर के पास 7,800 करोड़ की रकम दबी है। जनधन योजना के नाम पर खुलवाये गये आठ करोड़ गरीबों के खातों की रकम अमीरों में बांटी जा रही हैं?ये कैसे अच्छे दिन हैं?
यह महंगाई घटने का कौन सा अर्थशास्त्र देशवासियों को पढ़ाया जा रहा है?
सामग्री नवंबर, 2014 मार्च, 14
का भाव का भाव
अरहर दाल 78-85 75
मसूर दाल 72-75 70
उड़द दाल 100 80
चावल मंसूरी 35 30
चावल बांसमती 80 70
आलू 30-40 20
केला 40-50 30-40
प्याज 20-25 25-30
आटा 23-25 20-22
सरसों तेल 120 100
वनस्पति घी 83 82
देशी घी400-425 360-380
दूध फुलक्रीम 70-80 46-48
(सभी दरें प्रति किलो में)

अख़बार मेला सफल

मोबाइल फोन की घंटी बजती है......... स्क्रीन पर 919415081581 नंबर उभरता है.... घंटी लगातार बजती जा रही है। अन्जाना नम्बर था... उठाया... जवाब में उधर से बधाई हो, मैं राजस्थान के लांडनूं से बोल रहा हूँ... ‘अखबार मेला’ की सफलता पर बधाई स्वीकारें। मैं और सुमित्रा जी आना चाहते थे, लेकिन पारिवारिक कारणों से नहीं आ सके। ‘कलम कला’ अखबार मे ंखबर भी छापी है।’ ऐसे ही इन्दौर, भोपाल, मुंबई, अहमदाबाद, गांधीधाम, तिरूवनन्तपुरम् (केरल), मोहाली (पंजाब), नागपुर और उत्तर प्रदेश के कई जिलों से मेले में न पहुंच पाने के मलाल..... मुआफी के साथ बधाइयों के फोन आते रहे। अभी भी आ रहे हैं। और तो और केरल से मलयालम भाषा व हिन्दी की पत्रिकाएं व कुछ किताबें मेला समाप्ति के सप्ताह भर बाद तक आईं।
‘अखबार मेला’ देखने-जानने की ललक देशभर के अखबारवालों में जहंा थी, वहां विधानसभा मार्ग से गुजरने वाले पाठकों में भी खासी थी। मेला शाम पांच बजे जबरन बंद कराया गया। जबरन इसलिए कि पाठकों के आकर्षण में पुराने समाचार-पत्रों के साथ नये पत्र-पत्रिकाओं में रमा रूझान अंधेरे की आमद को भी नकार रहा था।
गौरतलब है ‘अखबार मेला’ आयोजन बगैर किसी सरकारी सहयोग के दशे में पहली बार लखनऊ में लगाया गया था जो बेहद सफल रहा। उससे भी अधिक आश्चर्यजनक था कि मेले में प्रदेश सरकार के कोई मंत्री या मुख्यमंत्री भी नहीं आये थे। उसी दिन लखनऊ मेें राष्ट्रीय प्रेस दिवस पर कई कार्यक्रम पत्रकार संगठनों द्वारा आयोजित किये गये थे। एक पत्रकार संगठन का राष्ट्रीय अधिवेशन भी था, बावजूद इसके मेले में दिन भर भारी भीड़ बनी रही। जिले से आये पत्रकारों में कुछ कवि मन कविताओं के जरिए मेले का गुणगान करते रहे। अजब उत्साह, गजब ऊर्जा से भरपूर पत्रकारों-पाठकों के संगम का नजारा पहली बार सूबे की राजधानी के राजपथ पर देखने को मिला।
‘अखबार मेला’ में पं0 हरिशंकर तिवारी के अलावा कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पं0 मार्कण्डेय तिवारी, राष्ट्रीय लोकदल के राष्ट्रीय सचिव अनिल दुबे ने दोपहर में शिकरत कर पत्र-पत्रिकाओं का अवलोकन किया। श्री मार्कण्डेय तिवारी ने सोनभद्र से प्रकाशित पत्रिका ‘वाह क्या बात है’ को जारी भी किया। मेला स्टाल पर ‘प्रियंका’ के अंकों को सराहना मिली तो ‘रेड फाइल’ के अंक पलटे गये। ‘दिव्यता’, ‘पूर्वा स्टार’, ‘माया अवध’ व ‘केरल ज्योति’ की प्रतियों में लोगों की दिलचस्पी दिखी।
‘अखबार मेला’ के पूरी तरह सफल होन पर कई पत्रकार संगठनों ने हैरत के साथ अपनी बधाईयां भेजी हैं। इसके साथ ही उत्साहित भारतीय राष्ट्रीय पत्रकार महासंघ के राष्ट्रीय संयोजक ने 30 दिसम्बर को इलाहाबाद में संगम किनारे ‘अखबार मेला’ लगाने की घोषणा की तो सोनभद्र के मिथिलेश द्विवेदी व राजेश द्विवेदी ने सोनभद्र में 17 जनवरी 2015 को ‘अखबार मेला’ के आयोजन का ऐलान किया। बहरहाल अक्षरों के आन्दोलन का प्रथम चरण पूरी तरह सफल रहा।

ताली बजाऊ तमाशा नहीं है ‘अख़बार मेला’

‘अख़बार मेला’ की अभूतपूर्व सफलता के बाद छोटे-मंझोले पत्र-पत्रिकाओं के पत्रकारों को
धन्यवाद देते हुए, बधाई देते हुए राम प्रकाश वरमा ने कहा, ‘मेला आप सबके प्रयासों से सफल हुआ, लेकिन अभी भी कई लोगों के मन में मलाल है कि मंच नहीं था, हाल में आयोजन नहीं था। मेला और भव्य हो सकता था। इसे प्रेस क्लब में आयोजित किया जा सकता था। ऐसी ही कई बातें उठीं। मैंने पहले ही साफ कर दिया था कि मेले में कोई मंच नहीं होगा, कोई वीआईपी मुख्य अतिथि नहीं है और मेला किसी हाल में नहीं होगा। भव्यता से अधिक पाठकों की भागीदारी की आवश्यकता थी, जो भरपूर मिली। यही कारण था कि मेला समाप्ति के पूर्व लखनऊ से छपनेवाले कई प्रतिष्ठित दैनिक समाचार-पत्रों ने अपनी प्रतियां मेला स्टाल पर खड़े पाठकों/पत्रकारों को वितरित की। हाल में पाठकों की पहुंच न के बराबर हो पाती और सड़क पर जो दृश्य था वो सबने देखा। रहा प्रेस क्लब में आयोजन करना सो वहां का बखान करने से अच्छा होगा कि हम आगे की बातें करें।’
बात को आगे बढ़ाते हुए वरमा जी ने कहा, ‘अख़बार मेला’ पाठकों, विज्ञापनदाताओं और अख़बारों/ पत्रिकाओं के बीच नये रिश्ते बनाने की ओर पहला कदम है। जो बेहद सफल रहा। लोगों ने बड़े ही उत्साह से पत्रिकाएं/अख़बार देखे, उन्हंे खरीदने की पेशकश की और जब निराशा हाथ लगी। तो कोई पत्र/पत्रिकाएं चुपके से उठा ले गये। यही मेले की सबसे बड़ी सफलता है। ठेके के मंच  और किराये के हाल में पत्रकार संगठनों के
अधिवेशन होते हैं, सांठ-गांठ वाले सम्मान समरोह या ताली बजाऊ नपंुसक तमाशे। उनकी सार्थकता पर दसियों सवाल भी खड़े होते हैं। छोटो-मंझोले पत्र-पत्रिकाओं के प्रति समाज में भ्रम की स्थिति है, उन्हें बदनाम करने के तमाम जतन किये जाते हैं। इसी भ्रम को दूर करने और सच को सामने लाने का प्रयास है ‘अख़बार मेला’।’ ‘अख़बार मेला’ की सफलता पर मिल रही बधाइयों के बीच ‘प्रियंका’ सम्पादक ने बताया कि 2015 में भी इसी जगह पर मेले का आयोजन इससे बड़ा होगा। कई नवीनताएं भी होंगी। एक पत्रकार को सम्मनित भी किया जाएगा। यह सम्मान हिन्दी के पितामह आचार्य पं0 दुलारे लाल भार्गव के नाम से होगा। पत्र-पत्रिकाओं के विमोचन को भी प्रमुखता दी जाएगी। मेले में देश के कई हिस्सों से छपने वाले पत्र-पत्रिकाएं दिखेंगे साथ ही उनके संपादकों/प्रकाशकों व अन्य भाषाई पत्रकारों को भी आमंत्रित किया जायेगा। ‘अख़बार मेला-2015’ का मुख्य अतिथि भी कोई वीआईपी नहीं होगा और कोई मंच भी नहीं होगा। हामरे पुरखों के द्वारा छापे गये पत्र/पत्रिकाओं की प्रदर्शनी अलग से लगाई जायेगी। जिलों से छपने वाले पत्रों और उनके पत्रकारों की भागीदारी सुनिश्चित करने के प्रयास किये जायेंगे। ‘अख़बार मेले’ में आप आये धन्यवाद। आप किन्हीं कारणों से नहीं आ सके तो 2015 के मेले में आने की अभी से तैयारी कीजिए और अंत में इतना अवश्य कहुंगा कि हर आयोजन की शुरूआत में कमियां रह जाती हैं, गलितयां हो जाती हैं, अन्जाने में अपनों का अपमान हो जाता है, ऐसी किसी भी परिस्थिति का सामना करने वालों से मैं माफी चाहुंगा और चाहुंगा कि वे अपने सुझाव अवश्य दें जिससे मेला और अधिक सफल हो सके।

आधी बीबी से बलात्कार!

डाॅक्टर ने शादी का झांसा देकर छात्रा से रेप किया.... युवक ने तीन साल तक यौन शोषण किया या शादी का वायदे के साथ दो साल साथ रहने के दौरान यौन शोषण। उसके बाद बलात्कार का मुकदमा लिखाया। ऐसी तमाम खबरे रोज अखबार की सुर्खियां बन रही हैं। इन खबरों के पीछे की हकीकत क्या है? इसकी तहकीकात कौन करेगा? उससे भी बड़ा सवाल है कि एक ही पक्ष अपराधी कैसे हो सकता है? जबकि दोनों पक्ष लगातार उसी अपराध में लिप्त रहते हैं और आपस में विवाद होने पर एक पक्ष धोखा और बलात्कार का आरोप जड़कर दूसरे पक्ष को अपराधी बना देता है। मजे की बात कानून की अपनी धाराएं हैं उनमें मुकदमें दर्ज हो जाते हैं। लेकिन सामाजिक मान्यताओं और मूल्यों को धता बताने वाले दोनों पक्षों को जिम्मेदार क्यों नहीं माना जाता? ताजी एक खबर के अनुसार बरेली की रहने वाली 28 साला युवती का मोबाइल पर प्यार हुआ, रेस्त्रां में परवान चढ़ा और हास्टल के कमरे में आठ-दस महीने पहले यौन
संबंध बने, फिर लगातार यौन संबंध जारी रहे। इस बीच शादी के लिए मामला वायदों के बीच लटका रहा। लड़की यहां मडि़यांव में किराए के मकान में अपने परिवार से दूर अकेली रहती है।
आरोपी पेशे से डाॅक्टर है। उस पर लड़की व उसके परिवार ने आरोप लगाया है कि शादी के लिए करोड़ों का दहेज मांगा उससे पहले लगातार उससे दुराचार करता रहा। लड़की कानून की स्नातक है, प्रतियोगी परीक्षा की तैयार कर रही है। सीधी सी बात है लड़की कानून जानती है। ऐसे में क्या इन संबंधों में भावनात्मकता और विवाद का उलझाव नहीं है? यदि है तो दुराचार का अरोप क्यों? रहा दहेज या अश्लील फोटो/मैसेज भेजने का आरोप तो वह अदालत में सुबूत दिये ही जायेंगे लेकिन यह मामला सीधे-सीधे प्रेम-प्यार फिर इन्कार का नहीं है? देश में ऐसे सैकड़ों बल्कि करोड़ों बलात्कार के मुकदमें अदालतों में लंबित हैं, जिनमें लड़कियां सालों लिव-इन-रिलेशन में रहीं, बाद में विवाद होने पर बलात्कार का मुकदमा दर्ज करा चुकी हैं। ऐसे ही एक मामले पर शिवसेना अध्यक्ष उद्वव ठाकरे की टिप्पणी आई थी, ‘बलात्कार के आरोप लगाना फैशन हो गया है।’ सवाल फैशन से कहीं बड़ा है।
पढ़ी-लिखी या पढ़-लिख रहीं लड़कियों के लिए ‘ब्वाय फ्रंेड’ प्रतिष्ठा (स्टेटस सिंबल) बन गया है।
राजधानी के किसी भी कोचिंग या कालेज जिसमें लड़के/लड़कियां साथ पढ़ते हों के आस-पास का माहौल देख लीजिए। वहां साइबर कैफे, रेस्त्रां, चाऊमीन-कबाब के ठेले, मोबाइल/सीडीशाप खासी तादाद में दिख जाएंगे। इसी के आस-पास खुली सड़क पर लड़कियों/लड़कों की बेहूदा हरकतों का प्रदर्शन आम राहगीर रोज देखते हैं। कई बार उनके पड़ोसी की लड़की उनमें शामिल होती है, लेकिन वे उसे या उन लड़कियों/लड़कों को टोक नहीं सकते। इसे बदलाव नहीं कहा जा सकता। न ही यह आधुनिकता के खाते में डाला जा सकता है। और न ही इसे पितृसत्तात्मक समाज से बगावत की झंडाबरदारी कहा जा सकता है। यह बाजार का षड़यंत्र है जिसे राजनीतिक और सामाजिक साझेदारी हासिल है।
सवाल यह है कि सालों तक यौन शोषण बिना सहमति, बिना अपेक्षा, बिना लोभ या बगैर आनंद के कैसे संभव है? उससे भी बड़ा सवाल ऐसे बलात्कार के मुकदमें पुलिस/ अदालतों का समय व पैसा नही ंखराब करतीं? जबकि उच्चतम न्यायालय ने भी सहमति से दो वयस्कों द्वारा बनाए गये शारीरिक संबंधों को बलात्कार नहीं माना है। क्या इस तरह के बढ़ते मामलों को सामजशास्त्रियों को नजर अंदाज करना चाहिए? यहां एक बात गौर करने लायक है कि जब सालों तक यौन शोषण या यौनाचार कर्म में लड़की/लड़का लिप्त रहे, तो लड़की ‘आधी पत्नी’ का दर्जा हासिल नहीं किये रही? फिर ‘आधी पत्नी’ से बलात्कार का मुकदमा? कानून में तो पत्नी से भी बलात्कार अपराध है लेकिन उनके कितने मुकदमें आते हैं? समस्या गंभीर है। समाज को ही इसका हल खोजना होगा।

अक्षरों का गुस्सा नहीं... सचबयानी है....

भारतीय मीडिया के आलीशान दफ्तरों की जगमगाती दीवारांे पर शुभ-लाभ लिखकर उसके सामने कीमती लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियां सजाकर उन्हें प्रणाम करने का चलन आम है। माता सरस्वती, गांधी, पराड़कर, गणेश शंकर विद्यार्थी, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसों के चित्र खास-खास मौकों के लिए ‘मोर्ग’ (अख़बार के स्टोर) में बंद कर रखे जाते हैं। हिंदी पत्रकारिता के मंगल नक्षत्र आचार्य दुलारे लाल भार्गव व आर0के0 करंजिया का नाम भी बाजारवाद की कोख से जन्मा नवमीडिया नहीं ही जानता होगा। इसी मीडिया उद्योग की काॅलोनी में सम्पादक/महाप्रबन्धक की नाम पट्टिका कमाऊपूत के नाम से कुख्यात है। इन्हीं कुख्यातों की साजिश ने भारतीय राजनीति, आस्था, आध्यात्म, सामाजी ताने-बाने, रिश्तों के मूल्य, आदमी की पीड़ा के सरोकार को झूठ के चैराहे पर खड़ा कर दिया है। इसी चैराहे पर अपराध के आतंक, महिलाओं की नाप जोख, महाजनों की लूट-खसोट, खून और खुराक के रोने पीटने के साथ नव खबरचियों का बेसुरा हल्ला-गुल्ला बेढंगा जाम लगाए है।
वक्त आ गया है कि हर छोटा-मंझोला अख़बार/पत्रिका खुल्लमखुल्ला आदमी की पीड़ा उजागर करना और अपने आस-पास टहलते झूठ का खुलासा करना शुरू कर दे। हर पत्रकार गांधी, गणेश के सच का प्रचार करने पर लग जाये, क्योंकि अब हमारे सामने सिर्फ दो ही रास्ते हैं। सामने फैला जगमगाता बाजार या निश्चल मौत। दोनों में से एक को चुनना ही होगा। उससे पहले दोनों को समझना भी होगा। विज्ञापनों पर, पाठकों के दिलो-दिमाग पर रंग-बिरंगे अखबारों वाले बड़े घरानों के अलावा नए उग आए कुबेरों का कब्जा बेहद मजबूत है। इनके साथ सरकारी तंत्र भी अपना दोजख भरने की जल्दी में है। दोनों कुनबों के किस्से मुलाहिजा हों।
‘अख़बार मेला’ के मौके पर आपके अख़बार ‘प्रियंका’ का विशेषांक छापा जा रहा था। पांच-सात हजार करोड़ का व्यापार करनेवाले बिल्डर्स से एक रंगीन विज्ञापन की मांग की गई। सीधे फोन पर जवाब मिला, ‘हम पर बेहद दबाव होता है सभी के लिए कुछ न कुछ करना पड़ता है। हमने आपको हर साल एक विज्ञापन देने का अपना वायदा हमेशा निभाया है। अब मजबूर न करें।’ इसी कंपनी के रंगीन विज्ञापन बड़े अखबारों में आये दिन छपते रहते हैं। करोड़ों रूपया फिजूलखर्ची में भी उड़ता है, लेकिन आपके अखबार को टरका दिया गया। इसी तरह एक करोड़ से लेकर चार-पांच सौ करोड़ के व्यापार करनेवालों ने हमारा फोन उठाना बंद कर दिया या हजार-पांच सौ का विज्ञापन देने की पेशकश की। सरकारी तंत्र का हाल पहले से ही बेहाल है। एक सरकारी विभाग में तैनात एक उच्च अधिकारी ने हमारा फोन लगातार काटा तो मैं खुद जा धमका उनके  दफ्तर, वे अपना दफ्तर छोड़कर पीछे से निकल गये शायद सीसी टीवी कैमरे में उन्होंने मुझे देख लिया था। ऐसे ही सूचना निदेशक से मुलाकात में उन्होंने आश्वासन दिया और विज्ञापन मांग-पत्र पर अपने नीचे वालों को लिखा, लेकिन वहां किसी नये शासनादेश का रोना, फिर सीए प्रसार, व आरएनआई प्रमाण-पत्र की मांग उसके बाद फाइल चलने लगी अभी तक चल रही है। कब तक चलेगी? विभागीय बेईमान जाने। यह आरोप नहीं सच्चाई है और गहरी जांच का विषय है। और यह विज्ञापन न मिलने पर खिसियाहट मिटाते हुए अक्षरों का गुस्सा भी नहीं है, बल्कि बाजार और सरकार की हकीकत है। हमें इसे बड़ी गम्भीरता से ईमानदारी से समझना होगा। दरअसल हमारी पहचान पाठकों से सीमित संख्या में है या सीमित क्षेत्र में है। वह भी सीरिया, अमेरिका, पाकिस्तान या मोदी सरकार की चिंता से ग्रस्त छपे पन्नों से है। हम अपने आस-पास से बेखबर रहते हैं। हमारे अख़बार हरहू-निरहू-घुरहू के लगातार शराब खाने जाकर बर्बाद होने को नजर-अंदाज कर जाते हैं। शराबखाने की बदगुमानियों को खबर नहीं बनाते। मोहल्ले में, गली में शोहदे अच्छी खासी भली लड़की को इलाके की कीमती औरत बना डालते हंै। हम अपने अख़बार में उस घटना को सुर्खियों में नहीं ला पाते। दरोगा, सफाईकर्मी, दूधवाले, छुट्टा जानवर, गंदगी, पानी, बनिया कोई भी हमारे अख़बार में जगह नहीं पाता। हम सिर्फ विज्ञापनों के पीछे भागते हैं। हमारी शोहरत विज्ञापन मांगने वाले भिखारियों मंे शुमार है।
‘अख़बार मेला’ आयोजन के दौरान मेरी मुलाकातें हर तबके के लोगों से हुईं। अधिकतर लोगों ने ‘प्रियंका’ देखे बगैर ही कह दिया अच्छा वो छोटे पन्नोंवाला या फाइल काॅपी छापने वाला या फिर वो तो सरकारी विज्ञापनों के लिए छपते हैं। शर्मिन्दगी भी हुई और अपनी असलियत से सामना भी हुआ। सच कहूं तो हमारे बीच भी कलम से महरूम, खबर के व्याकरण से अपरिचित, अक्षरों के जोड़-घटाने से अंजान और आसुरी शक्तियों की घुसपैठ हो गई है। इन्हें आदमियत की,मानवीयता की पीड़ाओं से और बाजार में युद्धरत कौरवों से परिचित कराना होगा। इसी परिचय के परचम का नाम है, ‘अख़बार मेला’। यह कोई संगठन नहीं है वरन् पाठकों के बीच अपनी पहुंच बनाने का साधन है। हमारा मानना है, इसे हर जिले में, हर मण्डल में सक्षम अख़बार आयोजित करे तो झूठ का संहार किया जा सकता है। फिर पत्रकार तो भरोसे की सीटी बजाने वाला चैकीदार है। हमें पूरी ईमानदारी से चैकीदारी करते हुए पाठकों के बीच भरोसा कायम करना होगा। पहचान बनानी होगी। भिखारियों के मोहल्ले से बाहर आना होगा। वरना... मौत... निश्चित है।