Wednesday, August 7, 2013

लखनऊ फिर घायल

लखनऊ। रमजान के मुबारक महीने में झगड़ा फसाद जायज है? वह भी आपस में.. भाई-भाई में एक ही फिरके में? हर गली-कूचे की मस्जिदों से र्कुआन की आयतें गूंज रही हैं... तमाम हिदायतें दी जा रही हैं। मौलाना या आलिम से लेकर आम मुसलमान नेकी और ईमान के रास्ते पर चलने की बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हैं.... ऐसे में ये फसाद? यह सारे सवाल लखनऊ के हर वाशिन्दे के हैं। और क्यों न हो?  शहर की इकलौती माँ गोमती का ही पानी शिया भी पीते हैं... सुन्नी भी पीते हैं... हिन्दू भी पीते हैं... और वे पटरी दुकानदार भी पीते हैं, फिर यह हिंसां?        इन सवालों के जवाब तलाशने जब ‘प्रियंका’ ने सआदतगंज से हजरतगंज तक तफसील जानी तो कई जवाबों का खुलासा हुआ। दरअसल हर त्यौहार से पहले पटरी दुकानदार स्थानीय पुलिस नगर निगम व जिला प्रशासन से अपनी दुकानें लगाने की इजाजत लेकर लगभग पन्द्रह दिनों तक नक्खास (विक्टोरिया स्ट्रीट) में अस्थायी दुकानें लगाते हैं। इनमें वे लाखों रूपयों का सामान पहले से भर लेते हैं। ये दुकानदार रातों में भी उन्हीं दुकानों में सोते हैं। जूता बेचनेवाले अकबर अहमद का कहना है, ‘कुछ असामाजिक तत्व हर साल अवैध रूप से वसूली करते हैं। इन लोगों से पुलिस भी मिली रहती है। पिछली बकरीद में वसूली को लेकर काफी झंझट हुआ था, जो मौलाना याकूब के हस्तक्षेप से शांत हो गया था।’ गौरतलब है 12वीं रबीअव्वल के जुलूस में इन्हीं मौलाना के काॅम्पलेक्स के पास गोलियां चलीं थीं। इन पर मुकदमें भी हैं।
    इस बार भी बाजार सजते ही असामाजिक तत्व सक्रिय हो गये और मनमानी पर उतर आए। शहर के वरिष्ठ नागरिक मुश्ताक खान कहते हैं, ‘खुदा जाने पुलिस क्यों तमाशाई बन जाती है। रमजान के पाक महीने में इबादत की जगह फसाद करने-कराने वालों को खुदा भी माफ नहीं करेगा और इसमें शामिल सियासी लोगों की मंशा भी नहीं पूरी होगी। बहरहाल लखनऊ एक बार फिर घायल हुआ। फसादियों ने रोजेदारों को सरेराह पीटा, खुदा के सच्चे बन्दों को गोलियों से भून दिया, इससे ईद की आँख में आँसू छलक आये हैं।

सावन और ईद की मुस्कराहट है समाजवादी

सावन आता है भर मन। हर एक चेहरा मुस्कराता है। यहां तक कड़वी नीम भी खिलखिलाने लगती है। हर उम्र की महिलाएं बगैर झूले के हिलोरें लेती हैं, तो मर्दानगी अखाड़ों में छाती फाड़कर श्रीराम के दर्शनों को आतुर दिखती। जीन्स-शार्ट या टाॅपलेस भी चूड़ी...बिंदी... मेहंदी की दीवानगी से बच नहीं पाते। माॅल... की भीड़ भी मेलों में मस्ती की छेड़छाड़ और बरखा रानी की अठखेलियों से अपने को बचा नहीं पाती। भले ही ढीठ यौवन... शिट.. ‘सा..वन’... कहकर मुंह बिचकाए और आधुनिक गुसलखाने में लगे फुहारे के नीचे खड़े हो गुनगुनाए ‘आग लगे सावन में...।’ बरखा रानी को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वो दुलारी बिटिया की तरह अपने मायके आकर आपनी धरती मां के गले से लिपटकर जार-जार आँसू बहाती हैं और खूब प्रसन्न होती हंै। उसकी खुशी गांव-शहर, हिन्दू-मुसलमान, गोरा-काला, बाभन-दलित, सावन और ईद में कोई फर्क नहीं करती।
    इस बरस भरपूर उफनाये सावन में ईद का इस्तकबाल त्योहार के हुस्न को दोबाला करने को बेताब है। समूचा मंजर गले मिलकर जय हिन्द... जय भारत के नाद की गंूज सुनने का ख्वाहिशमंद है। बाजार तक इससे अछूते नहीं है। नवाबों का शहर लखनऊ सावन और ईद की रौनक से भरपूर चहक रहा है। मस्जिदों से गूंजती आयतें, तो मन्दिरों से हर-हर महादेव की भाई-बन्दगी लखनऊ की हर गली में आबाद है। चैक, नक्खास, अमीनाबाद, मौलवीगंज के बाजार रातों में मुगलिया खाने की सोंधी महक से गुलजार हैं। दिन फूलों, फलों, दूध, सिवइंयों सूतफेनियों व अनरसे की मीठी गोलियांे-पूरियों से बरौनक हैं। आलमबाग हो या गोमतीनगर या कस्बा काकोरी, बंथरा, निगोहा या फिर बालागंज, गोसाईगंज सब जगह सावन झूम रहा है, रमजान इबादत में नतमष्तक।
    गुडि़या-रक्षाबंधन को तैयार, तो ईद की नमाज के लिए नन्ही-मुन्नी टोपियों से सजा लखनऊ अदब से आदाब बजा रहा है। औरतों की खरीदारी से बाजार के कहकहे बेतरह बुलंद हैं। सावन और ईद की सेवाइंयों के गले मिलने का हाल बयान करने का नहीं देखने का गजब मंजर है। हुसैनगंज, सआदतगंज में गुडि़यों का मेला जहां दोनों फिरकों की औरतों की चूडि़यां खनकती हैं, बच्चों की जिदभरी चिल्लापों से समूचा माहौल मुस्कराता है। बुद्वेश्वरन से मनकामेश्वर मन्दिर तक भोलेबाबा का जयकारा गूंज रहा है। टीले वाली मस्जिद से लेकर ईदगाह तक सहरी की इत्तिला और तरावीह (कुअऱ्ान के पाठ) की पाकीजगी से रूबरू है, लखनऊ। गो कि गोमती के पानी मिले दूध में पकी सेवेइयों में हिन्दू-मुसलमान की तलाश बेमानी है।
    सियासत के मुहल्लों में बाढ़ और शहरिया सीवर के बदबूदार पानी से पैदा डेंगू, मलेरिया, वायरल से पीडि़तों की कराहटों से बड़ी चर्चा दिल्ली की गद्दी हथियाने की जारी है। वह भी यह भूलकर कि इसी सावन में देश आजाद हुआ था और आजाद देश का बचपन आज भी अधनंगा है, यौवन हाथ पसारे है, तो बुढ़ापे के खण्डहर बस दफ्न होने को हैं। लैपटाॅप, खाद्य सुरक्षा कानून, नमो और सर्व समाज के दंगल से आदमी पहलवान का खिताब हासिल कर पायेगा? सवाल इससे भी अधिक हैं मगर बहरे कौओं की कांय-कांय में दोहरा कर होगा क्या? जब आदमी के जलने के लिए चिता की लकड़ी तक कीमती हो जाये तब सावन का रूदन बढ़ेगा नहीं? जब ईद की सेवइयां सरे बाजार लुट जाएं और भाई-बहनों से शोहदई करने लग जाएं तब बरखा के वेग से आदमी को कौन बचाएंगा? खुद आदमी, और कौन? सच यही है, इस साल जश्न-ए-आजादी के दिन घर में घुसे घरेलू लुटेरों से छुटकारा पाने की कसम खानी होगी। भोलेबाबा को दूध से नहलाने की जगह हर बच्चे को दूध उपलब्ध कराने का संकल्प लेना होगा। ईद की नमाज के वक्त मुल्क की हिफाजत की हलफ उठानी होगी और अम्मा के हाथ की बनी मीठी सेवइयों का लुत्फ उठाने के लिए सावन और ईद को गले मिल कर आजाद उद्ंदडों को सबक सिखाना होगा। चुनाचे प्रेमचन्द की ‘ईदगाह’ से लौटे हमीद के हाथों में लोहे का चिमटा देखकर दादी की आँखों में उमड़ आये सावन का दुलार पूरे मुल्क को भिगो दे और सच्ची व मासूम खिलखिलाहटें समाजवादी हो जाएं। तभी तो सावन और ईद की सेवइयों की मिठास एक रस होगी और अन्त में-
अगर मिलकर बरस जाएं यही बिखरे हुए बादल।
तो फिर सहराओं को सैलाब में तब्दील करते हैं।।

नये नवाब!

लखनऊ। शाही अंदाज में जीने का सलीका नवाबों के शहर में तमाम नए नवाबीनों को रास आया है। सूबे की मुख्यमंत्री रहीं मायावती का मलिकाओं वाला अंदाज खासा चटखारेदार रहा है। उनसे कम नहीं हैं नई उमर के नये मुख्यमंत्री।
    खबरों के मुताबिक आरटीआई के जरिए खुलासा हुआ है कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने 2012-13 के दौरान मुख्यमंत्री आवास मंे मूल निर्माण पर 41 लाख 73 हजार व सामान्य मरम्मत कार्य पर 1 लाख 95 हजार रूपए खर्च किये। जबकि मायावती ने अपने अन्तिम कार्यकाल 2011-12 में मूल निर्माण पर 21 लाख 20 हजार रूपए व सामान्य मरम्मत पर दो लाख रूपए खर्च किये थे। बताते चलें कि यह जानकारी आरटीआई एक्टिविस्ट उर्वशी शर्मा ने मुख्यमंत्री सचिवालय से हासिल की है।

दूध, फल और सब्जी में जहर!

नई दिल्ली। दूध और फल लोगों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होते जा रहे हैं। साग-सब्जी भी रासायनिक पदार्थाें की गिरफ्त में है। स्वास्थ्य मंत्रालय की पिछले दिनों आई रिपोर्ट बताती है कि उप्र में बिकने वाला 50 फीसदी दूध मिलावटी होता है और दस फीसदी फल रासायनयुक्त।
    मिलावट को रोकने के लिए कड़े कानून भी हैं, लेकिन जान से खिलवाड़ का गोरखधंधा जारी है। स्वास्थ्य मंत्रालय के मुताबिक वर्ष 2009 से इस वर्ष नवंबर तक फल के 523 नमूने लिए गए, जिसमें से 49 नमूने निर्धारित मानकों के अनुरूप नहीं पाए गए, जबकि 46 मामलों में फलों को रसायनों के माध्यमों से पकाए जाने का पता चला। बताते चलें कि खाद्य सुरक्षा व मानक (बिक्री संबंधी प्रतिषेध व प्रतिबंध), विनियम, 2011 के खंड 2/3/5 में वैसे फलों की बिक्री को प्रतिबंधित किया गया है, जिसको कार्बाइड से पकाया गया हो। मंत्रालय के मुताबिक पकड़ में आए मामलों में 48 व्यक्तियों को गिरफ्तार किया गया तथा दो को कारावास की सजा दी गई। वैसे कार्बाइड के प्रयोग में गुजरात सबसे आगे हैं। अकेले गुजरात में तीन सालों में 2000 कुंटल कार्बाइड पकड़ में आया। इसी तरह वर्ष 2009 से नवंबर तक उप्र में दूध के 7889 नमूने एकत्रित किया गए, जिसमें से 3448 नमूने निर्धारित मानकों के अनुरूप नहीं पाए गए तथा 45 मामलों में हानिकारक रसायनों के अवशेष पाए गए, यूरिया और अन्य रासायनिक पदार्थ लीवर को कमजोर करते हैं। मंत्रालय के आंकड़ों के मुतबिक दूध में रासायनिक पदार्थांे के मिलावट के मामले में कुल 126 व्यक्तियों को गिरफ्तार किया गया तथा 183 व्यक्तियों को कारावास की सजा दी गई तथा
54.12 लाख का जुर्माना लगाया गया। मिलावट से सब्जियां भी अछूती नहीं हैं। सब्जियों के भी 687 नमूने निर्धारित मानकों के अनुरूप नहीं पाए गए। बताते चलें कि इन दो मामलों में सात व्यक्तियों को गिरफ्तार किया गया।

सावधान! नकली है दवा...!

लखनऊ। दवा नकली, दवा की दुकान नकली, डाॅक्टर नकली और सरकारी अस्पताल बिगड़ैलों का बाड़ा। गजब है कि बीमार भी नकली दर्ज हैं सरकारी कागजोें पर! इस घपले में असली बीमारों को श्मशान तक जाना पड़ रहा है, जहां लकड़ी भी महंगी और गीली बिक रही है। इन हालातों में आदमी कैसे स्वस्थ्य रहकर जीने का रास्ता तलाशे?
    देशभर से आ रही खबरें बताती हैं कि नकली और यौनवर्धक दवाओं से दवा बाजार पटा पड़ा है। नेपाल और बांग्लादेश के बाद उप्र में आगरा को नकली दवाओं की बड़ी मंडी माना जाता है। मुंबई, लखनऊ, भोपाल, दिल्ली और अहमदाबाद का भी नाम इस कारोबार के नक्शे पर बेहद असरदार है। इन बाजारों में किसी भी दवा या इंजेक्शन की नकल मिल सकती है। इनकी पहचान आसान नहीं है और जिम्मेदार हाथ ही इसमें शामिल हैं। पिछले महीनों में आगरा में एलोथ्रोसिन 200/500 एमजी (एंटीबायटिक गले के इंफेक्शन के लिए), डोमेस्टल (उल्टी के लिए), मिकासिन (एंटीबायाटिक), वोवराॅन, एसआर, रेजेस्ट्रोन, मैक्सक्लेव टैब, डूफास्टोन, कैल्शियम टैब, मैंटेन टैब, इंडोकैप एसआर कैप, शेलकैल 500 एमजी आदि दवाओं की नकल का खुलासा कई डाॅक्टरों ने किया तो उन्हीं के खिलाफ मुहिम चलाई जाने लगी। ड्रग कंट्रोल अथार्टी भी इस धंधे में शामिल होने के संदेह से परे नही है। दवा बनाने वाली बड़ी कंपनियां भी इस गोरखधंधे में शामिल हैं। क्योंकि एस्ट्रोजेनेका के अधिकारी नकली दवा की शिकायत करने पर टाल-मटोल कर चुप्पी साध जाते हैं। निओन लेनोटेरटीजा, सिटला, सन फार्मा, बंगाल केमिकल जैसी नामी कम्पनियां भी घटिया दवाएं बाजार में उतार रही हैं। केन्द्रीय औषधि मानक प्राधिकरण की आकस्मिक जांच में 61 दवाएं घटिया स्तर की पाई गईं। राज्य स्तर पर भी धर-पकड़ की गई लेकिन कार्रवाई के नाम पर कुछ नहीं किया गया। पैरासीटामाॅल (दर्द निवारक/बुखार), क्लोरोक्वीन (मलेरिया), इबुजेसिक (आर्थराइटिस) जैसी नकली दवाओं की तो भरमार है। ग्रामीण इलाकों में ये नकली दवाइयां धड़ल्ले से खपाई जा रही हैं।
    मुंबई के औषधि एवं अन्न प्रशासन (एफडीए) कमिश्नर ने दो महीने पहले एक प्रेसवार्ता में खुलासा किया था कि दवा कम्पनियों और दवाओं को बाजार में बेचने वाले ड्रगिस्ट एवं केमिस्ट के बीच बाकायदा लेन-देने होता है। गौरतलब है कि दवा उत्पादन कंपनियों को ड्रगिस्ट एंड केमिस्ट के आॅल इंडिया आॅर्गनाइजेशन के अडि़यल रवैए के सामने झुकना पड़ता हैै। कंपनियों को बाजार में अपनी नई दवा बेचने से लेकर स्टाॅकिस्ट की नियुक्ति करने तक आॅर्गनाइजेशन से एनओसी लेनी पड़ती है। बिना इनकी एनओसी कोई भी दवा कंपनी अपनी दवा बाजार में नहीं बेच पाती है। कोई कंपनी इनकी एनओसी के बिना स्टाॅकिस्ट या दवा बाजार में लाती है तो आॅर्गनाइजेशन इन कंपनियों को बायकाॅट कर देती है।
    कमिश्नर एफडीए के मुताबिक एनओसी के नाम पर बड़े पैमाने पर दवा कंपनियों और आॅर्गनाइजेशन के बीच करोड़ों रूपयों का लेन-देन भी होता है। स्टाॅकिस्ट, नई दवा की लांचिंग के अलावा व्यवहार में होनेवाले मुनाफे की अतिरिक्त राशि की रिश्वत इनके द्वारा ही तय की जाती है। केमिस्ट एंड ड्रगिस्ट के इस घपले पर तीन महीने पहले स्पर्धा आयोग ने दवा विक्रेता संगठन आॅल इंडिया आॅर्गनाइजेशन आॅफ केमिस्ट एंड ड्रगिस्ट को 47 लाख रूपए का दंड भरने का आदेश भी दिया था। आॅर्गनाइजेशन के इशारे पर नए स्टाॅकिस्ट को दवा देने से इंकार कराने वाली तीन दवाई कंपनियों पर एफडीए ने आपराधिक मामला भी दर्ज किया है। इन्हीं कारणों से दवा के दामों में इजाफा हो रहा है और इसकी शिकार आम जनता हो रही है।
    इससे भी आगे शहरी/ग्रामीण क्षेत्रों में खुले अनगिनत मेडिकल स्टोर्स में कोई भी सरकार द्वारा तय मानकों पर खरा नहीं उतरता। नियम कहता है हर मेडिकल स्टोर पर एक फार्मेसिस्ट होना चाहिए लेकिन 80-85 फीसदी पर वह नहीं होता। जो लोग दवा बेचते हैं वे दवाओं की उपयोगिता से नवाकिफ साधारण सेल्समैन होते हैं। नियमानुसार दवा बेचने वाले कर्मचारी को हाथ में दस्ताना पहनना अनिवार्य है व दवा पत्ते से काट कर नहीं बेची जानी चाहिए। स्टोर पूरी तरह कवर्ड व साफ-सुथरा हो और एक निश्चित तापमान में होना चाहिए, लेकिन शायद ही ऐसा कहीं हो। जिम्मेदार अधिकारियों का कहना है कि ये सभी मानक व्यवहारिक रूप से मानना संभव नहीं है।
    लखनऊ शहर में लगभग साढ़े चार हजार मेडिकल स्टोर्स हैं। इन मानकों व नई दवा नीति, दवा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के मुखालिफ लखनऊ केमिस्ट एसोसिएशन ने एक दिन की हड़ताल दो महीने पहले की थी। एसोसिएशन के मुताबिक उस दिन लगभग दो सौ करोड़ का नुकसान हुआ था। यह नहीं बताया गया कि उस दिन बगैर दवा के कितने मरीज भगवान को प्यारे हो गये। यह भी नहीं बताया गया कि अधिक मुनाफे के लिए नकली दवाइयां क्यों, कौन-कौन और कितनी बेचते हैं?

बिजलीवाले मांगते हैं खर्चा पानी...?

लखनऊ। बिजली महंगी हो गई। चारो ओर अंधेरा, किल्लत का हाहाकार पूर्ववत जारी हैं। सड़कांे पर उतरते लोग बिजली गुल और कीमतों के इजाफे को लेकर हिंसक हो रहे हैं। उपभोक्ता परिषद और समूचा विपक्ष लामबंद होकर सरकार पर हमलावार है। व्यापारी, उद्योगपति सड़कों पर सरकार विरोधी नारे लगा रहे हैं। गृहणियां उमस और गरमी से हलकान अपने चेहरे का पसीना पोंछते हुए बिजलीवालों को कोस रही हैं। हालात यही नहीं ठहरते। सूबे के किसान, परद्दान से लेकर विधायकगण तक गुहार लगाते हुए हाकिमों से लेकर आलाकमान तक हकीकत बयान कर रहे हैं। जवाब में सरकार सियासत के शतरंज पर पिटे हुए नाकारा विपक्ष को कोसते हुए अपने प्यादों को विकास का भोंपू बजाने का ठेका सौंपकर मस्त है।
    राजधानी के सात लाख से अधिक उपभोक्ताओं की सुननेवाला कोई नहीं, उन्हें बिजलीचोर, गलत बिलिंग और बिजलीकर्मियों के खर्चा-पानी जैसी मुसीबतों का लगातार सामना करना पड रहा है। असल बिजली चोर बिजली कर्मियों की मिलीभगत से चैन की नींद एसी में सोते हैं और ईमानदार उपभोक्ता जुर्माना, मुकदमा, अपमान भोगता है। कई बार तो इन सदमों से अस्पताल से श्मशान तक पहुंच जाता है। गलत बिलिंग से परेशान लाखों उपभोक्ता विद्युत उपकेन्द्रों के चक्कर काटने में एक माह के बिजली के बिल से अधिक की रकम खर्च करके भी राहत नहीं पा रहे हैं। मरम्मत (मेन्टीनेन्स) के कामों में लगे विद्युतकर्मी बगैर ‘खर्ची-पानी’ उपकेन्द्रों से हिलते भी नहीं। उदाहरण के लिए देखें, यदि किसी उपभोक्ता की बिजली हाईटेंशन लाइन पोल से अवरूद्ध हो जाती है, तार टूट जाता है, कनेक्शन केबल में कोई दिक्कत आती है या मीटर में कोई परेशानी है तो उपभोक्ता उपकेन्द्रों पर जाकर नियमानुसार अपना बिल दिखाकर शिकायत दर्ज करा आता है। फिर उसे इंतजार में कितने दिन काटने होंगे, यह कहा नहीं जा सकता? उपभोक्ता यदि थोड़ी समझदारी दिखाता हुआ लाइनमैन से ‘खर्चा पानी’ तय कर लेता है, तो उसकी या उसके इलाके की बिजली आनन-फानन में दुरस्त हो जाती है। उपभोक्ता यदि रसूखवाला हुआ तो अद्दिशासी अभियंता तक गुहार लगा लेता है, फिर भी लाइनमैन के दर्शन उसे आसानी से नहीं होंगे। जब तक ‘बडे़ साहब’ गरम न हो जायें तब तक सीढ़ी, लेबर-मिस्त्री मौके पर नहीं जाएंगे। साहब जोर से बोल दें तो काम बंद की धमकी की ब्लैकमेलिंग झेलें या रिश्वत में हिस्सेदारी का ढोल सुने। फिर भी उपभोक्ता की बिजली ठीक करने के बाद ढीठ कर्मचारी बड़ी बेशर्मी से खर्चा-पानी की मांग करते हैं। हकीकत इससे भी अधिक खतरनाक है। रह गया ऐसी बातों को साबित करना तो जांच नहीं स्ंिटग आॅपरेशन कराए जा सकते हैं।
    विद्युतकर्मी अपने घरों में बिजली के उपभोग के लिए महज 168 रूपये से लेकर 1068 रूपये प्रतिमाह देकर अनाप-शनाप बिजली का उपयोग करने के साथ दूसरों को बेच भी रहे हैं। एसी के लिए 450 रूपये प्रतिमाह नियत है, लेकिन अधिकांश ने उसे दर्शाया तक नहीं यानी 168 या 426 रूपये में ही एसी भी चल रहे हैं। यदि विद्युतकर्मियों के यहां सघन जांच कराई जाए तो चतुर्थश्रेणी कर्मचारियों, बाबुओं और पेंशनधारकों तक के घरों में तीन-चार एसी चलते हुए मिल जाएंगे। क्या ये चोरी नहीं है? विद्युतकर्मियों के घरों पर बिजली के मीटर लगाने के आदेश विद्युत नियामक आयोग ने काफी पहले दिए थे। पाॅवर कारपोरेशन के अधिकारी, इस आदेश को न मानने के लिए लाचार हैं। इस लाचारी पीछे विद्युतकर्मियों के संगठनों की दादागीरी के अलावा विभाग में ऊपर से नीचे तक व्याप्त भ्रष्टाचार है। पिछले साल आगरा में दक्षिणांचल विद्युत वितरण निगम लि0 के प्रबन्ध निदेशक ने प्राइवेट कंपनी टोरंटो पाॅवर के जरिए विद्युतकर्मियों के घरों पर बिजली के मीटर लगवाने चाहे तो बिजलीकर्मियों की दहाड़.... ‘तो अब टोटंटो की इतनी हिम्मत’ की गूंज के कारण प्रबंध निदेशक को अपना आदेश वापस लेना पड़ा। वहीं टोरंटो को दसियों आरोपों का सामना करना पड़ा। उनमें प्रमुख आरोप लगाया गया कि टोरंटों उप्र इलेक्ट्रिसिटी रिफार्मस् एक्ट 1999 और इलेक्ट्रिसिटी एक्ट 2003 के टैरिफ का उल्लंघन करते हुए कर्मचारियों का उत्पीड़न कर रही है। यहां उल्लेखनीय है कि नियामक आयोग ने वर्ष 2013-14 का टैरिफ 31 मई को जारी करते हुए विद्युत कर्मियों के घरों पर मीटर लगाने के निर्देश दिए हैं। एक अनुमान के मुताबिक उपभोक्ताओं से वसूल होने वाले राजस्व का 25 फीसदी लगभग बिजलीकर्मी मुफ्त की बिजली जलाने के शौकीन हैं। इन लोगों पर भी करोड़ों रूपया बकाया है।
    बिजली सुधारों के प्रति लापरवाह नौकरशाहों की मनमानी सलाह मानकर सरकार ने बिजली दरों में 40-45 फीसदी की बढोत्तरी कर दी है। इसके विरोध में जहां धरना-प्रदर्शन हो रहे हैं, वहीं उपभोक्ता परिषद के नेता राज्यपाल से लेकर विधायक तक अपना विरोध दर्ज करा रहे हैं। राजधानी के तमाम उपभोक्ता एक साथ सारे शहर में एक साथ दो घंटे के लिए बिजली बंद करके गांधीवादी तरीके से विरोध दर्ज कराने की पहल करने की सोंच रहे हैं। इस विरोध में अपने घरों से ही हाय... हाय... बिजली या बढ़ी दरें वापस लो जैसे नारे लगाएंगे। कई समाजसेवी संगठन इस ओर सक्रिय हैं।

संघर्ष को विराम कहां...

संघर्ष की परिभाषा में विराम के लिए कोई जगह नहीं होती। उसका व्याकरण त्याग और तप की मुस्कान से भरा पुरा होता है। शायद इसी वजह से सच का दर्द सहनेवाले स्वाभिमान का हाथ थामे अपमानों से तपती पगडंडियों को बेखौफ पार कर जाते हैं। मगर ऐसे लोग भावुक अधिक होते हैं और भावुकता अनुशासन कहां मानती है। बस यहीं वे अपने लिए दुश्वारियां पैदा कर लेते हैं। फिर भी जलते हुए रौशनी बिखेरते हैं। उसी रौशनी की ऊर्जा से स्वार्थियों का जमघट भरपूर मस्ती करता है। इस हकीकत से वे वाकिफ भी होते हैं। ऐसी ही शख्सियत पं0 हरिशंकर तिवारी का बखान उनके 74वें जन्मदिवस पर करना लोगों को भले ही बेमौसम लगे, लेकिन चंद लाइनों में उनकी जिंदगी के सावन-भादों का गीलापन, रीतापन तमाम सपनों के लिए प्रेरक होगा।
    ऊँची दुनिया से लड़ने के कारण पंडित जी के आस-पास बहुत सारे लोगों का जमघट लगा रहा। वे अपने जीवन का पहला चुनाव विधान परिषद का लड़े तब कांग्रेस के महारथी हेमवती नंदन बहुगुणा के साथ गोरखपुर के स्थानीय मठाधीशों की साजिश का शिकार होकर महज एक वोट से हार गये। पिछला चुनाव अपनों की साजिश से हारे। इस बीच उनके जीवन में बहुत कुछ घटा। वे उप्र मंत्रिमंडल के वरिष्ठ सदस्य भी रहे। स्वार्थियों ने ‘हाते’ से लेकर ए-4 पार्क रोड तक फूल ही फूल बिखरा दिये। हरिशंकर तिवारी जिन्दाबाद की गूंज से आसमान को झुकाने का परिहास भी कर दिया। ईमान को अहंकार की खाई में पटकने के ऐसे ही सैकड़ों जतन कर डाले।
    लाभ की चैखट पर खड़े लोगों ने शुभत्व के स्वास्तिक के भीतर धकेलकर पंडित जी को सम्पन्न मुग्ध करने का षड़यंत्र कर डाला। उनसे कई गलत फैसले करा दिये, नतीजा वही हुआ जो होना था। आज कहीं कोई नारा नहीं है, कोई स्वागत द्वार नहीं है, कोई महाभारत नहीं है, सारे शकुनी विदा हो गये। न कृष्ण हैं, न अर्जुन अगर कोई है तो ‘सुदामा’ सरीखे मित्र जो उन्हें कर्ण के रूप में भी स्वीकारते हैं। यह कोरी बकवास नहीं बल्कि फुंफकारता हुआ सच है। हजारों-हजार लोग आज सोने की थाली में चांदी की रोटी उनके नाम के पाटे पर रखकर आराम से खा रहे हैं। उनका जिक्र आने पर उन्हें महज परिचित बताकर छुट्टी पा लेते हैं। इसके सैकड़ों उदाहरण हैं। एक छोटा सा वाकया उनकी कानपुर यात्रा का याद आ रहा है। मैं इस यात्रा में उनके साथ था। पूरा दिन कई कार्यक्रमों में बीता गया, साथ चलनेवालों को भोजन का अवसर कहीं न मिल पाया। पंडित जी की इच्छा थी कि वापसी में किसी ढाबे पर रूका जाएगा। इसी दौरान अन्तिम कार्यक्रम में एक कर्मचारी नेता ने अपने यहां भोजन ग्रहण करने का आग्रह किया।
    पंडित जी ने मेरी ओर देखते हुए.... चुप्पी साध ली। चुप्पी को उसने ‘हां’ समझा और साधिकार अपने निवास की ओर गाडि़यां मुड़वा दीं। मैंने कुछ दूर चलने के बाद पंडित जी से उस नेता के कई कारनामें बताते हुए उसके यहां न चलने को कहा तो बोले, उसका भाग्य है, हम बदल नहीं देंगे। उसका वो जाने हम तो अपना कर्म कर रहे हैं। सब भूखे भी हैं उनकी भूख मिटेंगी।’ वहां गये भोजन किया। उसके बाद वो नेता सच में भाग्यशाली हुआ और करोड़पति भी लेकिन पंडित जी की याद उसे फिर नहीं ही आई।
    चिल्लूपार से लेकर तमाम शहरों तक ऐसे हजारों उदाहरण हैं और सैकड़ों रिश्तेदार। चिल्लूपार ही नहीं पूर्वीं उप्र का तमाम हिस्सा मामूली वर्षा और नेपाल से नदियों में पानी छोड़े जाने से हर साल बाढ़ से पीडि़त रहता है। चिल्लूपार का काफी कुछ हिस्सा (नदियों के किनारे का क्षेत्र) ‘कछार’ कहलाता है। पंडित जी का गांव भी कछार में पड़ता है। वहां कभी जाना बेहद मुश्किल था, आज पक्की सड़क है। मजबूत बांध है। आषाढ़-सावन की एक बाढ़ में पंडित जी बाढ़ पीडि़तों के बीच मौजूद थे, उन्हंे बचाते हुए वे खुद नाव से हरहराती नदी में गिर पड़े थे। ऐसी ही सेवाओं के साथ संघर्ष आज भी जारी है। यह लाइने संताप से ग्रसित नहीं बल्कि जन्मदिन के बहाने याद आ जाती हैं और शायद किसी की प्रेरणां बन सके। इसलिए लिख जाती हैं। और अन्त में, उन्हें मेरा सलाम कह देना/गरीबी मुफलिसी में कौन सा तोहफा उन्हें दंू/ताकि उनमें हैसियत मेरी ढंकी हो क्या उन्हें दूं भेंट जिसमें/ कैफियत सारी टंकी हो इसलिए कुछ शब्द ले जाओ/इन्हें लिख लो इन्हीं अल्फाज को मेरा कलाम कह देना।

एक सुबह पं0 हरिशंकर तिवारी

सूर्याेदय से पहले ही नींद के आलिंगन से मुक्त हो माता पृथ्वी को प्रणाम कर उनके दुलार का आशीष लेते हुए थोड़ा व्यायाम करना ही प्रातः का प्रथम शगल है। नित्यकर्म के बाद एक प्याला चाय का और अखबार पढ़ना। इतने में ही भोर का उजाला और गाय-भैंसों का रंभाना शुरू हो जाता है। यही पंडित जी के पशुप्रेम और दिन की शुरूआत का दूसरा चरण होता है। अपनी गौशाला की ओर बढ़ते हुए अपने कुत्तों को दुलराते हैं। अच्छी नस्ल की गाय और उम्दा वंश के कुत्ते उनकी कमजोरी हैं। गौशाला उनके हाते (निवास) में ही आखिरी छोर पर है। अपने सामने वहां की साफ-सफाई से लेकर दूध दुहने व चारे आदि के काम कराते हैं।
    यदि कोई गाय या भैंस गर्भवती है तो उसकी देखभाल पर पूरा ध्यान रखते हैं। उनकी देख-रेख में ही उसका बच्चा पशुचिकित्सकों की निगरानी में जन्म लेता है। इस बीच उन्हें फोन पर बात करना भी पसन्द नहीं।
    गौशाला से बाहर आकर स्नान-
ध्यान और पूजन होता है। पूजन में कोई पाखण्ड नहीं, बस अगरबत्ती जलाकर ईश्वर का स्मरण भर। नाश्ते में कोई विशेष नियम नहीं कभी रोटी-सब्जी तो कभी टोस्ट-मक्खन, दूध या फिर दलिया, दही-चूरा। ऐसा ही सादा सा पहनावा सफेद धोती-कुर्ता। कांधे पर अंगौछा तब अवश्य होता है जब कहीं बाहर निकल रहे हों। अब तक सुबह के दस बज जाते हैं। बाहर हाते के मैदान में बनी झोपड़ी में तरह-तरह के फरियादियों और मिलनेवालों की भीड़ जमा हो जाती है। वे बाहर आते ही इस भीड़ के हो जाते हैं। उनके चेहरे की रौबदार मूंछें तक इस वक्त मुस्कराती रहती हैं।
    हर किसी से आत्मीयता, हर कोई अपना, हर एक की समस्या का निदान उनकी दिनचर्या के मजबूत उपकरण हैं। कोई आपाधापी नहीं, कोई तनाव नहीं। उनके अन्तस की ऊर्जा करूणावतार लिए समान रूप से पीडि़तों को चैतन्य करती है।
    राजनीति की चैसर के दसियों, प्यादे, हाथी-घोड़े, वजीर तक इस भीड़ में उनका आशीर्वाद लेकर अपने दिन की शुरूआत करने को आतुर आते हैं। वे इनसे भी निश्छल यथार्थपरक बातें करते हैं। एक बार ऐसी ही एक प्रातः उनके चुनाव क्षेत्र चिल्लूपार से उनके ही मुखालिफ चुनाव लड़ने का आशीर्वाद लेने एक शख्स आया, उन्होंने उसे ‘भोलेबाबा’ की तरह विजयी होने का आशीष दिया। आशीर्वाद का प्रभाव देखिए आज वही शख्स चिल्लूपार से विधायक है। पौराणिक कथाओं में है कि महादेव को कैलाश से लंका ले जाने के लिए रावण ने तमाम जतन किये, उनका आशीष भी पाया, पर वह सफल नहीं हुआ। अन्त-पन्त इतना ही कि महादेव के लिए कैलाश और कैलाश के लिए महादेव ही सत्य है।

खाओ बांस का अचार तो आओ...!

लखनऊ। भारतीय रसोई में मसालांे का खासा महत्व है, भले ही डाॅक्टर इसके सेवन से परहेज बताते हों। देश का हर वर्ग मसालों के स्वाद से अपने को बचा नही पाता। यही वजह है कि आज बाजार में सैकड़ों ब्रान्डों का कब्जा है। बावजूद इसके लखनऊ के मुगलिया दस्तरख्वान पर आज भी खुले मसालों की महक बदस्तूर जारी है। इन खास मसालों को तैयार करने में महिलाओं का बड़ा योगदान है। इनके द्वारा घरों में आज भी पुराने तौर-तरीके अपनाकर खड़े मसालों को कूट-पीस कर बनाया जाता है। वहीं लखनऊ की पहचान और शान को बरकरार रखे बाजार चैक व नक्खास मंे खास मसालों को बेचनेवाली दसियों दुकाने हैं। जो सब्जी सालन, मुर्ग मुसल्लम से लेकर बिरयानी पकाने के उम्दा मसाले बेचते हैं।
    लखनऊ की ही तरह आगरा के रावत पाड़ा बाजार में भी मसालों, मेवों और अचार की मण्डी है। यहां मसाले थोक में मंगाकर कोल्ड स्टोरेज में रखने वाले व्यापारी भी हैं। बड़े व्यापारी हल्दी, मिर्च, आमचूर, मध्य प्रदेश से, धनिया राजस्थान से, जीरा गुजरात से और काली-मिर्च, लौंग दक्षिण से मंगाते हैं। इनमें जीरा, कालीमिर्च, लौंग छोड़कर सभी मसाले जल्दी खराब होते हैं इसलिए इन्हें कोल्ड स्टोरेज में रखा जाता है।
    हींग का आयात कच्चे माल के रूम में कजाकिस्तान से किया जाता है। हाथरस में इसे तैयार करने के कारखाने हैं। वहीं से उत्तर भारत के बाजारों में तैयार हींग भेजी जाती है। हींग के एक नामचीन व्यापारी बताते हैं कि कजाकिस्तान में पेड़ों पर हींग गोंद की तरह पैदा होती हैं। इसे इक्ट्ठाकर हींग का रूप दिया जाता है। सस्ती हींग मैदे से तैयार होती है, इस पर केवल महंगी हींग का लेप चढ़ा होता है। हींग 200 रू0 से लेकर 8 हजार रूपए किलो तक रावत पाड़ा बाजार में उपलब्ध है।
    रावतपाड़ा में अचार भी खूब बिकता है। यहां आचार की सालों पुरानी दुकान आपको ऐसा स्वादष्टि अचार खिलाएंगी कि आप सब्जी खाना भूलकर अचार की मांग करने लगें। अचार विक्रेता संजीव मित्तल बताते हैं कि उनके बाबा कन्हैयालाल अग्रवाल ने यहां अचार की दुकान 1910 में खोली थी। तब से उनका अचार शहर के अलावा ग्वालियर, झांसी, टूंडला, मिढ़ाकुर आदि जगह के लोगों को अंगुलियां चाटने पर मजबूर कर रहा है। वे बांस का अचार खास तौर पर तैयार कराते हैं। इसके लिए बांस हरिद्वार से मंगाया जाता है। यहां करौंदे का मुरब्बा, सेंजना का अचार भी अपने आप में अनूठे हैं।
    रावतपाड़ा बाजार के बारे में कहा जाता है यहां गदरकाल 1857 के बाद सबसे पहले लाला कोकामल ने मसालों का कारोबार शुरू किया था। आज भी उनके परिवार के लोग इसी व्यवसाय से जुड़े हैं। अब तो यहां मेवा, अचार, फूल, पेठे के अलावा दवाओं की भी दुकाने खुल गई है। इस बाजार का फैलाव सात-आठ सड़कों-गलियों तक है। ठीक लखनऊ के चैक-नक्खास बाजार की गलियों से मिलता जुलता।

दो घंटे में एक आत्महत्या

लखनऊ। खुदकुशी करनेवालों की संख्या में भले ही हेर-फेर हो लेकिन देश में हर दो घंटे में एक आदमी अपनी जान दे रहा है। खुशी की बात है कि उप्र इस मामले में सबसे पीछे है। अपनी जान देने वालों में अधिकतर प्यार में असफल प्रेमी जोड़े होते हैं। आर्थिक मोर्चे पर नाकाम, महत्वाकांक्षाओं का पूरा न होना, दहेज विवाद, नशेे की आदत, तंगहाली से परेशान, आपसी कलह, घरेलू हिंसा, परीक्षा में विफलता, संपत्ति विवाद, लांक्षन आदि आत्महत्या के बड़े कारण बन रहे हैं। हाल ही में नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरों (एन.सी.आर.बी.) द्वारा जारी आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2012 में 1,35,445 लोग देश में आत्महत्या के शिकार हुए जबकि 2010 में 1,35,585 लोगों ने असमय मौत को गले लगाया यानी 0.1 फीसदी की कमी हुई है।
    आंकड़ों के मुताबिक तमिलनाडु में आत्महत्या की दर सर्वाधिक है। इसके बाद क्रमशः महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश व कर्नाटक का स्थान है। देश में होने वाली आत्महत्याओं का कुल 55.3 फीसदी इन्हीं पांच राज्यों में होता है। केंद्र शासित प्रदेशांें मंे आत्महत्यााअें के मामले में देश की राजधानी दिल्ली अव्वल है और पांडिचेरी दूसरे नंबर पर है। वर्ष 2012 में जिन राज्यों व केंद्रशासित प्रदेशों में आत्महत्या की दर में पिछले साल के मुकाबले सर्वाधिक वृद्धि हुई है, उनमें मिजोरम अव्वल है। यहां आत्महत्या की दर 92.2 फीसदी बढ़ी है। इसके बाद जम्मू व कश्मीर (44.3 फीसदी), उत्तराखंड (33.4 फीसदी), मणिपुर (24.2 फीसदी), त्रिपुरा (20.1 फीसदी) और असम (19.7 फीसदी) का स्थान है। आत्महत्या में संख्यावार सर्वाधिक गिरावट छत्तीसगढ़ में आई हैं। सर्वाधिक आबादी वाला उत्तर प्रदेश एकमात्र राज्य है जहां आत्महत्या से हुई मौतों की दर काफी कम यानि 16.9 फीसदी है जो देश में कुल आत्महत्याओं का महज 3.3 फीसदी हैं। एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक घरेलू व स्वास्थ्य समस्याओं के चलते सर्वाधिक आत्महत्याएं होती हैं। आंकड़ों के मुताबिक घरेलू समस्या के चलते 25.6 फीसदी और स्वास्थ्य संबंधी समस्या के चलते 20.8 फीसदी आत्महत्याएं हुईं।

पेट्रोल-डीजल का काला धंधा

आगरा। आगरा-मथुरा हाईवे पर कोठरियों में अवैध पेट्रोल पम्प चल रहे हैं। रिफायनरी से निकलने के बाद टैंकर सड़क किनारे जगह-जगह पेट्रोल-डीजल बेचते हैं। चार और दोपहिया वाहनों को देने के साथ पेट्रोल-डीजल से भरे ड्रम बाहर भी सप्लाई किये जाते हैं। खतरे का यह खेल कभी भी हादसे की वजह से मुसीबत बन सकता है। सुबह से रात तक तेल लेने वालों की लाइन लगी रहती है। इसकी भनक रिफाइनरी में भी कइयों को हैं। पुलिस के आला अधिकारियों द्वारा की गई छापा कार्रवाई के बाद कुछ समय के लिए यह कारोबार बंद हो जाता है, लेकिन फिर धड़ल्ले से चलने लगता है।
    रिफाइनरी से हर रोज दर्जनों टैंकर तेल लेकर निकलते हैं। मापतौल कर भरा जाने वाला पेट्रोल-डीजल पम्पों तक पहुंचते-पहुंचते सैकड़ों लीटर कम हो जाता है। यह तेल आगरा-मथुरा हाइवे के किनारे बने मिनी पेट्रोल पम्पों पर बेच दिया जाता है। सड़क किनारे झाडि़यों के पीछे बनी कोठरियों के पास टैंकर रूकता है। इससे पहले गुर्गे ड्रम लेकर तैयार हो जाते हैं।
    चालक-क्लीनर आनन-फानन में पाइप खोलते हैं और तेल निकालना शुरू कर देते हैं। पन्द्रह मिनट के अंदर तेल निकालने के बाद टैंकर गंतव्य को रवाना हो जाते हैं। इस तरह तेल का काला द्दंद्दा हाइवे पर एक जगह नहीं, कई जगह चल रहा है। काले धंधे की पहचान के लिए अड्डे के बाहर खाली ड्रम रख दिए जाते हैं। यह संकेतक का काम करते हैं कि यहां चोरी का ईंधन बिकता है। यह सारा खेल पुलिस के संरक्षण में ही चल रहा है। पुलिस को हर महीने मोटी रकम पहुंचती है, इस वजह से खाकी सब कुछ जानते हुए भी आंखों पर पट्टी बांधे रहती है। इन मिनी पम्पों पर दस से पन्द्रह गुगें हर समय मौजूद रहते हैं। वह लाठी-डंडोे के साथ हथियारों से लैस रहते हैं। कोठरियांें मे चल रहे पम्पों पर सुबह से रात तक पेट्रोल-डीजल लेने वाले दोपहिया और चार पहिया वाहनों की लाइन लगी रहती है। यही नहीं टैªक्टर भी डीजल लेने के लिए आते रहते हैं। वह टंकी फुल कराने के साथ कैन भी भरवाकर ले जाते हैं। कोठरी में पेट्रोल-डीजल के दस से पन्दह ड्रम हर समय भरे हुए रहते है। इसके साथ ही जमीन में पक्के टैंक भी बनवा रखे हैं। पम्पों पर मिलने वाले रेट से पांच-छह रूपये कम में तेल यहां बेचा जा रहा है। फरहा-सिकंदरा क्षेत्र में रहने वाले लोग पेट्रोल पम्पों पर तेल लेने के लिए नहीं दौड़ते। सस्ता मिलने के साथ नजदीक होने के कारण वह इन ठिकानों से ईंधन लेना ही उचित समझते हैं। रोजाना आते-जाते उनकी पहचान भी बढ़ गई होती है।
    लोगों का कहना है कि हाइवे पर अद्दिकांश पम्प रात को बंद हो जाते हैं लेकिन यहां कभी भी जाओ तो तेल मिल जाता है। आसपास के लोगों को इस गोरखधंधे के बारे में सब कुछ जानकारी है पर कोई मुंह खोलने को तैयार नहीं होता।

मंझली बहू

रेशमी कपड़ों में लिपटी एक गठरी जब घर के दरवाजे पर आकर रूकी तो मां ने बड़े ही उत्साह से स्वागत किया। मंगलगीत गाते हुए अपनी बाहों में लिपटाकर पलकों की छांव तले देशी घी के चिराग जलाकर घर में प्रवेश दिलाया। वो रेशमी कपड़ों की गठरी परिवारजनों, संबंधियों और पड़ोसियों के बीच सिमटी-सिकुड़ी सी एक कोने में रखी थी। कभी-कभी जब वह हिलती तो चूडि़यों की खनक से वातावरण संगीतमय हो उठता। लेकिन उस गठरी के खुलने के आसार नजर नहीं आ रहे थे। तभी मां की नजर अचानक मुझ पर पड़ी और वे एकदम बोल पड़ीं, ‘‘बड़े तुम आराम कर लो, अब औरतों का काम तो रात भर चलता रहेगा।’’ मैं इंतजार में था, तुरन्त तीसरी मंजिल की ओर बढ़ गया।    ?
    ऊपर आकर भी भाभियों, बहनों और अनेक रिश्ते की औरतों की खिल-खिलाहट के खनकते स्वरों से पीछा न छुड़ा सका। थका हुआ शरीर आराम चाहता था लेकिन आराम शायद नसीब में नहीं था। बार-बार मुझे अपने मंझले भाई का चेहरा याद आ जाता, जो आज्ञाकारी और सहृदय था। तभी तो बारात जब लड़की वालों के दरवाजे पहुंची तो मात्र औपचारिकताओं को लेकर विवाद हो गया, जिसने तूल भी पकड़ा और मैंने गरजदार आवाज में बारात वापसी की घोषणा कर दी। मंझला चुपचाप अपनी उमंगों की हत्या करके सर झुकाकर मेरे पीछे हो लिया। इस विवाद से पहले जयमाल पड़ चुका था, मंझले ने लजाई-शर्माई जेवरों से लदी-फंदी, औरतों और नाजुक बदनवाली गोरियों के बीच घिरी बनारसी साड़ी में लिपटी झुकी-दबी गठरी को एक नजर देख लिया था। फिर भी उसके चेहरे पर कोई हलचल नहीं थी, न कोई निराशा या कुण्ठा का ही भाव उजागर हो रहा था। मुझे उस पर गर्व हो आया था। मैं भूखा भी था और गुस्से ने कुछ ज्यादा ही भूख बढ़ा दी थी, परन्तु मंझले के धर्य ने मुझे बड़ी शक्ति दी। विवाद के निपटते ही मंझला चहकने लगा था। हंसी-ठिठोली के बीच मंझले को घर के अन्दर विवाह वेदी पर जाना पड़ा। मैं अपने संबंधियों व छोटे भाई के साथ बाहर गपशप करने में व्यस्त हो गया।
    मुझे कई रस्मों को अदा करने के लिए अन्दर बुलाया गया, तब मैंने देखा मंझला, एक रेशम की गठरी के करीब बैठा है। पंडित मंत्रोचार के साथ फेरे की तैयारी करा रहा था। फेरे पूरे हुए फिर शर्ताें और नियमांे का सिलसिला शुरू हुआ। पहले की छः शर्ताें को मंझले ने दोहराया और पाबंदी से पालन करने का वचन दिया। सातर्वी शर्त वधू के लिए थी कि मैं जीवन भर किसी दूसरे पुरूष को नहीं देखूंगी। हालाकि इस ‘‘न देखने’’ की शर्त की व्याख्या पंडित जी ने नहीं की थी, फिर भी मंझला बहुत खुश था।
    ‘‘अरे तुम अभी जाग रहे हो।’’ अचानक मेरी पत्नी के शब्दवाण ने विचारों का घेरा तोड़ा।
    ‘‘हां आवो। मंझली बहू कैसी लगी।’’
    ‘‘ठीक है, सुन्दर तो है ही, इतनी ही सुशील भी हो तो ठीक ही ठीक है।’’
    ‘‘क्यों क्या तुम्हें कुछ शक है?’’
    नहीं। नहीं! मैंने तो साधारण सी बात कही है। फिर वही मौन छा गया। अंधेरे ने नींद की चादर ओड़ने को मजबूर कर दिया।
    प्रातः की जाग में शोर के साथ कहकहे और ढोलक की थाप पर सुरीले गीत के बोल हवा में तैर रहे थे। आज मेहमानों की गहमागहमी कुछ अधिक हो गई थी। पूरा दिन दौड़ धूप में यूं बीत गया, जैसे हवाई सफर बीत जाता है। शाम की आमद मंे रंगीन बल्बों और टयूब की रोशनी में पंडाल नहाया हुआ था। पंडाल के एक कोने में मंझला उसी रेशमी गठरी के साथ ऊंची कुर्सी पर बैठा था। आज गठरी कुछ खुली सी लग रही थी। प्रीतिभोज कैसे और कब निपट गया, पता नहीं लग सका। दूसरे दिन मैं ऊपर की मंजिल पर खाना खा रहा था कि अचानक छत की ओर नजर उठ गई, एक सिल्क का आंचल हवा में लहरा रहा था, मैं एक दम चीख उठा, ‘‘ऊपर कौन है।’’
    ‘‘मंझली बहू।’’
    ‘‘क्यों अभी चैबीस घंटे भी नहीं बीते और शर्म की चादर में आग लग गई।’’ और न जाने क्या-क्या कह गया। मंझली बहू रोने लगी। लोगों ने ढांढस बंधाया, इस बीच मंझला खामोश व निर्विकार रहा।
    मगर मुझे लगा कि रेशमी गठरी खुल गई है। मुझे हैरत भी हो रही थी और डर भी लग रहा था कि गठरी की गांठें शीघ्र ही खुल जाएंगी और रेशमी गठरी बिखर जाएगी, पसर जाएगी तब... तब क्या होगा? दूसरे दिन मेहमानों से भरा घर खाली हो गया था और मंझली बहू मेरी आवाज सुनकर किसी पत्थर के बुत की तरह स्थिर हो जाती तब मां या भाभियां उसका मजाक उड़ाती और वह बुत भयभीत हो उठता, मानो उसे शंका हो कि कहीं महमूद गजनवी की तरह मैं भी पत्थर के बुत को तोड़ने वाला न बन जाऊ।
    इसी तरह आठ दिन बीत गए मंझले ने दुकान से नजरें फरे ली। मुझे लगा कि रेशमी गठरी खुलकर मंझले की बिछावन बन गई है। परन्तु शायद मैं गलत था। दूसरे दिन ही मंझला दुकान पर आया, लेकिन उसने मात्र ‘‘कैशबाक्स’’ को ही खाली किया और बगल में एक छोटा-सा पैकेट दबाए घर की ओर वापस हो लिया।
    समय कितनी तेजी से गतिमान है, अन्दाज लगा पाना बड़ा ही कठिन है। इन्हीं बदली हुई परिस्थितियों में मंझला भूखे मांसाहारी कुत्ते की तरह जिन्दा गोश्त के आसपास मंडराया करता। अगर किसी ने जरा भी छेड़छाड़ की तो फौरन गुर्रा उठता या एकदम काटने की मुद्रा में हमला कर बैठता। हालात यहां तक बदल गए थे कि मंझली बहू की कीर्ति पताका के नीचे खानदान की इज्जत दब गई।
    अब मंछली बहू के पांवों के नीचे सास की छाती थी और शरीर के नीचे मंझला। उसके पास मात्र मेकअप, जेवर और साडि़यों को अपने बदन पर सजाकर, किसी शो रूम की गुडि़या या बाजार की जीनत... बनने का काम रह गया था।
    मेरी निगाहों के सामने का वो खामोश बुत और दुनिया जहान की नजरों में मेरे परिवार की मंझली बहू मंझले के लिए खुदा का स्वरूप हो गई थी। खुदा की इबादत में भी आदमी स्वार्थी हो जाता हैं, लेकिन मंझला उस बुत की इबादत में कहीं से भी स्वार्थी नहीं दिखता था। उसने बुत के शरीर से रेशमी लिबास उतार कर खानदान की इज्जत पर कफन की तरह लपेट दिया।
    कफन में लिपटी खानदानी आबरू की अर्थी पर मंझला उस बुत की लेनाई और चिकनाई की बूंद-बूंद वात्सायन के ‘कामसूत्र’ की अग्नि में डालने में मशगूल था और परिवार एक भयानक तूफान के दहाने पर खड़ा था। जिसका मुझे डर था आखिर वही हुआ। छोटे ने बगावत का झंडा गाड़ दिया, बागी छोटे ने घर की चहार-दिवारी को त्याग दिया और सड़कों पर निकाल गया।
    छोटे के पांव इधर घर से बाहर हुए उधर मंझली बहू के ‘पावं भारी’ हो गए। उसने सास को जिन्दा ही तस्वीर के फ्रेम में जड़ दिया और जेठ को अपनी थाली की जूठन समझकर परे खिसका दिया। अब परिवार फूट का शिकार हो गया जिसका भरपूर फायदा मंझले ने उठाया और अकेला ही पारिवारिक संपत्ति का मालिक बन बैठा। मालिकाना हालात और मंझली बहू के दीवानेपन ने मंझले को कर्ज की कब्र में उतार दिया मगर मंझला सच्चाई को अपने सीने से न लगा सका।
    बाजार में मंझले की इज्जत, दो पैसों की नहीं रह गई, कर्जदारों ने जिन्दगी हराम कर दी और मंझला खानदानी निशानियांे को नीलाम करने पर उतर आया। कर्ज निपटाने के लिए सबसे पहले उसने मंझली बहू के गहनों से दूसरे घरानों की बहुओं की शोभा बढ़ा दी और अब दुकान की बोलिया लग रही थीं।
    इतना कुछ हो जाने पर भी मां मंझले
को बुरा न कहती थीं। उसी के गुण गाती। मुझे भरे समाज में अपमानित कर छोटे को कोसकर समाज में अपना और मंझले को गौरव बढ़ाती, इसके साथ ही स्वयं भी अपमानित होतीं। अपमान की पीड़ा घर की नालियों से बहकर सड़कों तक फैल गई थी।
    अपमान की ज्वाला मंे मेरा शरीर झुलस रहा है, मुझे अच्छी तरह याद है कि मंझले की शादी से पहले मां और मंझले ने मेरे चारों तरफ स्नेह तथा वात्सल्यता की चहारदीवारी खड़ी कर दी थी। उसी चहारदीवारी के अन्दर मैंने जी खोलकर खर्च किया था। बारात जाने के समय बहू के शरीर पर जो जेवर पहनाए जाते थे, उनका भी इंतजाम घर में नहीं था। यहां तक कि बारात घर के दरवाजे से चल पड़ी और जेवरों का कहीं दूर-दूर तक पता नहीं था, तब मामाजी, एक अदना कुंजडि़न और मैं मां की चूडि़यां और गले की जंजीर लेकर सर्राफा बाजार गए उसकी एवज मंे चढ़ावे के जेवर अपनी जमानत पर उधार लाकर बारात जाने के बाद बारात स्थल पर पहुंचा। वहां भी मेरे लिए अपमान और तिरस्कार का द्वार पहले से ही खुला हुआ था।
    बारात जब लड़की वालों के द्वार पर पहुंची थी और तमाम रस्मों की समाप्ति के बाद जिस भोज का आयोजन था, वह भी मेरी पसन्द का न था जिसको लेकर विवाद बढ़ गया था और मैं अपमान के कड़वे घूंट पीकर रह गया था। यहां तक कि पूरी बारात में अपमान और अपमान के सिवा कुछ भी न हासिल हुआ था।
    प्यार और वात्साल्य का झूठा आवरण एक मां भी ओढ़ सकती है क्या? मुझे तो यकीन ही नहीं आता, लेकिन जो इन आंखों ने देखा है और हृदय ने भोगा है, उसे झूठलाया नहीं जा सकता। यह सच है कि नारी हत्यारिणी, व्यभिचारिणी, और आंसू बहाने वाली प्रतिमा हो सकती है, लेकिन अपने दूध की एक बूंद में जहर नहीं मिला सकती। ममता का गला नहीं घोंट सकती और न ही ममतत्व की झूंठी झीनी चादर ओढ़ सकती है। मैं तो मां के प्यार और वात्सल्य की परिभाषा से पूर्णतया अनभिज्ञ रहा हूं। इस गहरे और पीड़ादायक जख्म पर नकली ममता के मरहम के अहसास ने मुझे सीमा से ज्यादा ऊंची छलांग लगाने को मजबूर कर दिया। जब गिरा तो एहसासा हुआ कि जो मेरे दूध की हत्यारिनी हो सकती है, उसे मां कहना कितना गलत है।
    औरत शरीर का व्यापार करती है, छल करती है, लेकिन ममता के साथ कोई सौदा नहीं करती। परन्तु आज मुझे एहसास होता है कि हम सब कहीं गलत अवश्य है। देखा जाए तो हम वैधानिक रूप से औरत के सामाजिक दलाल हैं। क्या फर्क है, वेश्याओं के दलालों में और सामाजिक रीति से वैवाहिक बंधनों में बांधने की अगुवई करने वालों में। मात्र इतना कि एक को समाज नैतिकता का लिबास पहनाकर मान्यता देता है और दूसरे को इन्द्रियों की प्यास बुझाने का अनैतिक साधन मानकर अवहेलना करता है।
    वैश्याओं के दलाल अपने ग्राहकों से कमीशन लेकर सुन्दर शरीर का सामना करा देते हैं, और ग्राहक उसके शरीर के एक-एक हिस्से से अपनी रकम वसूल करता है। यहां तक की स्वयं भी कभी-कभी बिक जाता है। ठीक उसी तरह सामाजिक दलाल वर को वधू तक पहुंचा देते हैं और वर, वधू के शरीर से गिन-गिन कर पूरे ब्याज सहित अपनी शान-ओ-शौकत से बढ़-चढ़कर कीमत वसूल करता है और उसके शरीर पर बिछ जाता है हालात यहां तक पहुंच जाते हैं जैसे वैश्या कंगले को अपने कोठे के जीने से नीचे ढकेल देती है, ठीक उसी तरह सामाजिक बन्धनों में बंधी औरत अपने शरीर की गर्मी में अपने पति को पिघलाकर खुली सड़कों पर संघर्ष के लिए छोड़ देती और खुद ऐश करती है। ठाठ से बनारसी, कांजीवरम साडि़यों से, मेकअप के महंगे सामानों से, कीमती हीरे-जवाहरातों और जेवरों से अपने को सजाती-संवारती है और पति को दुनियां के नर्क में झोंक देती है, और मूर्ख पति नर्क की आग में झुलसता हुआ उसके शरीर से जोंक की तरह चिपटा रहता है। औरत उसकी इसी कमजोरी का फायदा उठाकर उसके जमीर की हत्या तक कर बैठती है।
    मंझले की भी यही मनोदशा थी। मंझले के जमीर को मंझली बहू ने अपनी जुल्फों की छांव में ढककर समाप्तप्राय कर दिया था। अब वह मंझले पर शासन कर रही थी। और ठाठ से ऐश की जिन्दगी जी रही थी। मगर उसे शायद नहीं मालूम कि झूठ और छल की नींव पर बना ताश का महल हल्के से हल्के तूफान का सामना नहीं कर सकता। मंझले की मां और मंझले ने जिस फरेब और दुर्भाग्य के लहू से सने पाए के शाही पलंग पर मंझली बहू को लिटाया था, उसका एहसास भी शायद मंझली बहू को नहीं था।
    उसे नहीं पता था कि उसकी सास ने दुधमुहें बच्चों की मां की हत्या भी की है और बड़ी बहू को आग की लपटों में झुलसाने की साजिश। हालांकि ईश्वर सब पर मेहरबान है। देखने वाला है और न्याय करने वाला है। जवानी के आंगन में वैद्दव्यता का तख्त और उसके बाद आंसूओं के सैलाब में डुबी जिन्दगी। शायद यही ईश्वर का न्याय है। मंझली बहू को तो खानदानी किस्सों की फहेरिस्त का एक सफा भी नहीं मालूम था। वास्तव में उसकी सास ने अपनी सास के कफन को अपनी ओढ़नी और जिठानी की अर्थी की नींव पर अपनी खुशियों का महल खड़ा किया था। आज वह महल कहां?
    हे ईश्वर आज मुझे भी एहसास हो रहा है, तूने शायद मुझे भी दलालों की कतार में खड़ा कर दिया। मैं मंझली बहू और मंझले को आबाद करने के तिलिस्म में इन दुनियाबी और समाजी कारकुनों से कमीशन के रूप में अपमान, तिरस्कार और दुत्कार पा गया था।

बबुआ धीरे-धीरे आई समाजवाद

देखिए एगो बात हमारा भी बूझ लिया जाय, साइकिली में बैटरी फिट कहकै हवा की माफिक ओकर रफ्तार बढ़ाई जा सकै, मगर टिरैफिक-विरैफिक भी कोई चीज है कि नहीं। सड़क का कायदा कानून तो मानना ही पड़ेगा। फिर खुली सड़का पर सरकारी सांड और महादेव के नंदी की बिरादरी वालों की धरपटक से भी सावधानी बरतनी है। सावधानी हटी दुर्घटना घटी। ठीक है समाजवादी एम्बुलेंस सेवा उपलब्ध है, मगर ट्रामा सेन्टर के डागडर साहब तो कैंडिल लाइट रोमांस की कक्षा में यौनवर्द्धक दवा के परीक्षण में व्यस्त हैं। फिर लाल-हरी बत्ती के बाजू में लगे चोर कैमरे से बचकर चैराहा पार करना है कि नहीं। उस पर तुर्रा यह कि सड़कों पर सीवर के बदबूदार पानी की नई बनी झीलों के किनारे-किनारे से ही गुजरना है। कहीं कूड़े का ढेर, कहीं सड़क टूटी, कहीं गढडे में झूलती सड़क। इससे बच भी गए तो जाम की ठसक औ रोना-धोना तम्बू ताने गली-गली में जारी ‘मैं तो छोड़ चली बाबुल की गली...’। भरी-पुरी सड़क पर गाती-बजाती, नाचती, भीड़ में ठाड़े रहियो बांके यार... या सब कुछ छोड़-छाड़ के चली अपने...’’ की द्दुन पर करीना, कैटरीना का मरम पाले मम्मियां अपने घर की रसोई या बाथरूम में की गई मशक्कत से बनाई गई अपनी बेडौल ‘बाॅडी’ के भूकम्प से सड़क का उत्पीड़न और शोहदों का मनोरंजन कर रही हों तो क्या सइकिल फर्राटा भर सकती है? तिस पर समूचा समाजवादी कुनबा भी साइकिल पर सवार हो!
    तो भइया, यूं समझों कि पंडित-मुल्ला ठडि़याए दिए गए सड़कन ते मैदान तलक, दलित-पिछड़े लोकसभा चुनाव ‘हाइवे’ घेरे खड़े हैं और जय श्रीराम.... जय द्वारकाधीश का नारा ‘इम्पोर्टेड नेता’ लगा रहे हैं। ऐसे में आप ही बताइए कि ससुरी साइकिल कितनी तेज चल सकती हैं? वह भी तब जब उस पर ‘लैपटाॅप’ का बोझ लदा हो! फिर लालबत्ती का हाल भी बेहाल, बिजली अलग से गुल। घुप्प अंधेरे में कोठी विक्रमादित्य का रास्ता कैसे तलाशा जाय? वहां भी कौन किसका ‘हौसला’ बढ़ाए पता नहीं। पहले ही हाथी से उतरकर आये ‘कुनबे’ को समाजवादी अक्षरज्ञान कराया जा चुका है। अब परिवार नियोजन के भी कोई मायने हैं या नहीं? आखिर एक साइकिल पर किस -किस को बैठाया जाये? आप ही बताईए ऐसे में साइकिल धीरे-धीरे नहीं चलेगी तो क्या दौड़ेगी?
    हर-हर महादेव...! सावन का महीना है तो भोले बाबा का जयकारा लगेगा ही। गाँव से गंगा तक बम..बम.. बम भोले सो हर की पैड़ी के शिवाले से काशी के बाबा विश्वनाथ वाली गली तक भंग भवानी के नाच का जायज हक है। जहां नाच, वहां हुड़दंग। जहां बूटी की हो महिमा वहां क्या बेनी के बोल... क्या पुलिसवालांे की मारकुटाई... क्या शोहदई और क्या दुराचार? भगत ‘जय-जय शिवशंकर न कांटा लगे न कंकर...’ गाते हुए समाजवादी साइकिल पर सवार होकर विदेश तो जायेगा नहीं जो उसकी बेइज्जती हो, वह तो ‘नेताजी’ के चरणों की धूल लेने पार्टी दफ्तर ही जाएगा। पानी महंगा हो जाय कोई बात नहीं, बिजली के दाम बढ़ गये कोई बात नहीं, बाढ़-पीडि़तों को तो फांकाकशी की आदत हो गई है। समाजवादी गांव-गांव जाकर बताएगा ‘भइयाजी’ साइकिल पर आ रहे हैं। अब उसको तो पता नहीं कि मांसाहारी कुत्ते एथलीट हो गये हैं और शाकाहारी बंदर जिमनास्ट। तभी तो सड़क से लेकर संडास तक जिस-तिस को काट ले रहे हैं। अब उन्हें तो बस अपना समाजवादी धर्म निभाना है। ऐसे में साइकिल की रफ्तार सुस्त तो होगी ही न, बोलो?
    आपको शायद न पता हो, समाजवादी छप्पर तले शौचालय बनाने की योजना अभी केन्द्र की मोहताज है। भले ही एलडीए के शौचालय टच-स्क्रीन मशीनों और सीसी टीवी कैमरों से कीमती हों। उधर बेरोजगारी भत्ता और टेबलेट बांटने का गतिण अफसरान पढ़ रहे हैं। इद्दर राशन, साड़ी वाले सिनेमा की स्क्रिप्ट अभी ‘पार्टी प्रेस’ लिख रहा है। चुनाव-14 के भौगोलिक नक्शे पर सच्चे समाजसेवकों के हाथों में लोहिया के बड़े वाले फोटो देकर तैनात कर दिया गया है। कार्य प्रगति पर है, धैर्य रखिए। राजनीति मनोरंजन के बाथरूम में नहा- धोकर तैयार हो रही है। तो बबुआ कुछ समझे, धीरे-धीरे आई समाजवाद।