कलम है मेरी माँ का नाम/स्वर है मेरे पिता. अक्षर है मेरा सगा भाई. ख़बरें/समाचार हैं मेरे बेटे -बेटियां. अखबार है मेरा हीरामन. पाठक हैं मेरे नातेदार. और हम हैं पत्रकार. बोलो क्या कहते हो? उठाओगे बहन वेदना की कराहती आवाज़ को? अगर हाँ, तो आगे बढ़कर थाम लो आदमी का हाथ, बना डालो धारदार तलवार. जी हाँ! धारदार तलवार . धारदार तलवार. धारदार तलवार.
Saturday, April 27, 2013
Friday, April 26, 2013
Thursday, April 18, 2013
कहानी आधी सड़क
-राम प्रकाश वरमा
सर्दियों की बदचलन हवाओं ने छेड़छाड़ की तमाम हदें पार कर मौसम से समलैंगिक रिश्ते बना लिये थे। बादल शर्मसार तो सूर्यदेव हैरान। चांद-तारों की बारात सहम गई। मंगल से लेकर शनिदेव तक के चेहरे एकदम सियाह। राहु और केतु ने इन्द्रदेव का हाथ थाम एक गाढ़ी सलेटी सफेद कोहरे की चादर तान दी थी। समूची पृथ्वी लजाई सिमटी सिकुड़ी सिहरी सी कांप रही थी। शहर, गांव, कस्बे, नदी, तालाब, नाले बरफ का गोला थामे किसी अनाथ आश्रम में पलने वाले बच्चों की तरह सहमे से सिर्फ हिल-डुल रहे थे। वाहनों की आवाजाही के बीच राजधानी के हृदय में खड़े गांधी, अम्बेडकर, पंत, पटेल के पुतलों के साथ ट्रैफिक सिपाहियों के दांत बजने का संगीत साफ-साफ सुनाई दे रहा था। नेशनल हाइवे नंबर पच्चीस की शहरी, सड़क के चैराहे हुसैनगंज पर भाला ताने घोड़े पर सवार खड़े महाराणाप्रताप और काले पड़ गये थे। उनके घोड़े के आगे-पीछे आने-जाने वालों की हलचल न के बराबर थी। इक्का-दुक्का वाहन भी खांसते-खंखारते गुजर रहे थे। हां, चैराहे की दुकानों में अभी भी जगमगाहट थीं, लेकिन हलचल नहीं। शराब के ठेके के सामने शायद प्रेमचंद के जमाने का घीसू और उसका बेटा माधव मौजूद थे। बीयर की दुकान पर कथाकार मणि मधुकर की औरतों से मिलती-जुलती दो लड़कियां खड़ी थीं।
इन सबसे हटकर बिजली के जगमगाते खंभे के नीचे बने गोल चबूतरे पर इलाके के महाराजा का दरबार लगा था। कोई तीस-चालीस अदद आवारा कुत्तों की भीड़ के सामने चबूतरे की सबसे ऊपर वाली सीढ़ी पर वह अद्दलेटा सा दो कुत्तों की पीठ के गावतकिये के सहारे पसरा था। सिर पर बेतरतीब छोटे-छोटे बाल, दाढ़ी शहरी यातायात की तरह गुत्थमगुत्था। लम्बा-मैला सा कोट जिसमे ंकेवल एक बटन जिसे उसने बंद कर रखा हैं। नीचे पैंट भी है काली चीकट, आधी टांगों में फंसी-फंसी। बीच-बीच में किसी कुत्ते को हिदायत देता, किसी को अपने पास बुलाता और किसी को कोई काम सौंपता। सारे कुत्ते उसकी आज्ञा का पालन करते अनुशासित मंत्री परिषद की तरह, पूंछ हिलाते उसके आस-पास मंडराते रहते। इस बीच कोई उधर से गुजरा तो महाराजा ने आवाज लगाई, ‘ओए... डोंगे सामने से एक बड़ी वाली ब्रेड पकड़ लेना’। मना करने की गुंजाइश नहीं थी। क्योंकि उसके मंत्रीगण उस दानदाता को चैदह इंजेक्शन के लायक भी नहीं छोड़ते थे। सो आमतौर पर लोगबाग महाराजा की आज्ञा का पालन करते। महाराजा ब्रेड के टुकड़े सामने खड़े-बैठे कुत्तों की ओर उछालता जिसने लपक लिया उसकी क्षुधा शान्त। कोई झगड़ा नहीं, छीना झपटी नहीं सब अनुशासित। ‘ए... चमकी ले तू दो खा...।’ उस भीड़ से एक गबरू कुतिया उछलकर उसके पास पहुंच जाती है। वह उसे दुलराते हुए बड़े प्यार से ब्रेड खिलाता हैं सारी भीड़ चुपचाप दुम हिलाती खड़ी रहती।
‘अबे... तुम लोगों को मालूम है यह सारी दुकानें, यह मार्केट और वो सामने वाला होटल सब खुशहाल पंडित का है। अपने लिए साली ‘नूर मंजिल’ में भी जगह नहीं हैं। सारे पागलांे को आगरे के ताजमहल ले जाएंगे? तुम सबके लिए वो बैंकवाला कूड़ाघर, एलडीए ने एलाट किया है। फिर सड़क पर क्यों सोते हो? इसी बीच मुर्गाें से लदा एक ट्रक गुजरा। दो-तीन कुत्ते दौड़े... आदेश गूंजा ‘मुर्गी पकड़ ला।’ सबके सब ट्रक पर हमलावार। ट्रक चालक के हाथ पैर फूल गये। ट्रक बेतहाशा भागा। खबू दौड़ लगाई लेकिन हासिल कुछ न हुआ थक हार कर पड़ोसी मुल्क के फौजियों की तरह हांफते हुए वापस अपने महाराजा के पास। महाराजा मुस्कराया और चीखा, ‘अबे सुन बे आसमानी बाप इनको खाना देना पड़ेगा तुझे... मेरा क्या...? मैंने तो घर फूंक दिया है अपना बस राख उठानी बाकी है।’ इसी बीच कुत्तों में एक अदद नर-मादा जोड़े ने मैथुनक्रिया का शुभारम्भ कर दिया था। कई गुर्रा रहे थे, कई आॅखें घूर रही थीं। महाराजा बड़े गौर से उन दोनों की क्रिया को देख रहा था। फिर खुलकर हंस पड़ा। रात गहरी हो रही थी, ठंड का कहर बढ़ रहा था। वह उठकर सामने वाली गली में समा गया। चमकी समेत कई कुत्ते उसके साथ चले गये और कई वहीं रह गये।
सूरज का चमकदार केसरिया गोला आज फिर जाम में फंस गया था। वरूण, इन्द्र के वाहनों की भीड़ के आगे भवानी का रथ बीच आसमान में तिरछा हो गया था, शायद। भोलेबाबा के कैलाश की बरफ सारे रास्तों पर फैली थी। द्दुंध में लिपटा कांपता उजाला, धड़ी की सुइयां और सामने वाली मस्जिद से गूंजती ‘अजान अल्लाहु अक्बर... अल्लाहु अकबर.... अश्हद अल-ला इ ला-ह इल्लल्लाह...’ बता रहे थे कि दोपहर हो रही है। लोग बाग यूं भाग रहे थे जैसे सड़क के दूसरे छोर पर मंगल के मेले में लगे लंगर में बंटनेवाली पूड़ी-सब्जी लूटने की जल्दी में हो। सामने वाली फुटपाथ पर महाराजा अपने सुरक्षादस्ते के साथ दोनों हाथों से अपनी पैंट सम्भाले चला आ रहा था। फर्नीचर की दुकान पर रूक गया, दुकान के मालिक इस्लाम ने कुछ रूपये उसके कोट की ऊपरवाली जेब में रख दिये। काफिला आगे बढ़ गया। सामने से तीन-चार जवान हो गईं लड़कियों का छोटा सा झुंड अपने मुंह से भाप छोड़ता खिलखिलाता चला आ रहा था। महाराजा के दोनों हाथ अपनी पैंट से हटकर ऊपर की ओर उठ गये। पैंट नीचे सरक गई। लड़कियां जोर से हंसते हुए आगे को भागीं जैसे नदी में किसी ने डुबकी लगई हो और उससे उठनेवाली लहरें दूर तक उठती-गिरती चली जा रही हों। महाराजा खुलकर हंसा, कुत्तों ने भी भौंक कर साथ दिया। चमकी नामवाली कुतिया कुछ रूठी सी उन लड़कियों की तरफ मुंह उठाए जोर-जोर से भौंकने लगी। महाराजा ने तब तक पैंट अपने पांवों में ऊपर तक फंसा ली थी। गणेश के होटल पर पूरा काफिला रूक गया मगर चमकी अभी भी वहीं खड़ी बेतहाशा भौंक रही थी। होटल के मरियल से नौकर गामा ने रात के बचे हुए खाने का ढेर उनके सामने डाल दिया। महाराजा और उसकी प्रजा एक साथ लंच पर टूट पड़ी। ‘चमकी...ओ... चमकी... आ जा... बस हो गया।’ महाराजा की आवाज सुनते ही वो कुतिया उछलते हुए पास आ गई। रोटी का एक टुकड़ा उसे खिलाते हुए महाराजा ने दुलराया तो चमकी दुम हिलाते हुए नाचने लगी मानों प्यार के घुंघरू बोल उठे हों। लांच का नजारा देखने वालों के चेहरों पर जहां मुस्कराहट थी, वहीं दूर खड़ा गाय का एक बछड़ा किसी भटके हुए भूखे बच्चे की तरह मायूस था।
‘ए बाबू... ए... भूखा हूं... दे...दे.... न...।’ दो घुटनों पर उछलती सवा दो फुट, तीस किलो की मैली सी काया हर राहगीर के पैरों पर हाथ लगाते हुए भीख मांग रही थी। इस अपंग को इलाके के लोग झंझटी कहकर बुलाते थे। झंझटी का इलाका भी गणेश होटल से मियां जी कवाबवाले तक तकरीबन एक फर्लांग के बीच की आद्दी सड़क तक था। झंझटी अपनी कमाई मियां जी के पास ही जमा करता है। कहनेवाले कहते हैं, दस-पन्द्रह हजार महीने की कमाई है झंझटी की, सच तो कभी मियांजी ने भी किसी को नहीं बताया। ईद-बकरीद हफ्ता-दस दिन के लिए झंझटी गायब हो जाता, हां जब दिखता तो ऐसे साफ कपड़ों में जैसे द्दोबी के यहां से धुलकर आया रंगीन कपड़ा। बताते हैं अपने गांव जाता है, वहां झंझटी का भरापूरा परिवार हैं। झंझटी को औरतों खासकर जवान औरतों से मोटी कमाई होती है। कईयों को उससे बात करते और दोनों को हंसते हुए देखा जाता है। आॅटो, बस, रिक्शा के इंतजार में खड़े लोग भी दयावश या परलोक के लिए ‘फिक्सड डिपाजिट’ करने की गरज से उसे सिक्के कम नोट अधिक देते। अचानक कुत्तों के तेज-तेज भौंकने की आवाजें सामने होटल की पार्किंग से आने लगी। उधर चार-पांच कुत्ते सरेराह एक जवान हो चली कुतिया से ‘बलात्कार’ अंजाम दे रहे थे, बाकी शोर मचा रहे थे। मानो मदद की गुहार लगा रहे हों या पास न आने की धमकी दे रहे हों, खुदा जानें!
सड़क पर ट्रैफिक बढ़ गया था। शाम के गुजर जाने की जल्दी में रात की सियाही सरपट दौड़ने लगी थी। बाजार किसी मटके में जमी हुई कुल्फी के छोटे-छोटे डिब्बों की तरह बरफ में दबा-ढंका सा दिखाई देने लगा था। सब्जी और मछली के ठेलों वाली खाली जगह पर खासा अंधेरा था। इसी अंधेरे में महाराजा और चमकी में प्रेमालाप जारी था, दसियों सुरक्षा प्रहरी मुस्तैद थे। नेशनल हाइवे नम्बर पच्चीस की विधानसभा की ओर जाने वाली आधी सड़क बगैर किसी सुरक्षा के तरह-तरह के बलात्कार से पीडि़त बिना चीखे-चिल्लायें मादरजात नंगी पसरी पड़ी थी और देश रोमांस के लिहाफ में दुबका जिस्मानी गरमाहट तलाश रहा था.... शायद!
हिन्दी के स्वर्णाक्षर ‘सुधा’
राम प्रकाश वरमा
‘सुधा’ यानी अमृत अर्थात अमरत्व पाने का रस। इसी अमृत के लिए देव-दानव, ऋषि-राजर्षि में भयंकर युद्ध से लेकर समंदर को मथने तक की भारी मशक्कत हुई। अमृत कुंभ के छलकने से उसकी कुछ बूंदें पृथ्वी पर जहां-जहां गिरीं वहां आज भी मानवीय आपाधापी जारी हैं। हिन्दू और हिन्दी साहित्य अमृत कथाओं से भरा पड़ा है। शायद इसी से प्रेरणां पाकर पं0 दुलारे लाल भार्गव ने ‘सुधा’ और ‘गंगा’ (गंगा पुस्तकमाला) को सर्वसुलभ कराया। हालांकि हिन्दी की ‘सरस्वती’ का कल-कल नाद पहले से ही गूंज रहा था, लेकिन हर किसी को कालीदास की तरह ‘सरस्वती’ में डुबकी लगाने का पुण्य नहीं प्राप्त होता।
‘सुधा’ पत्रिका का प्रकाशन लखनऊ से ऐसे समय शुरू हुआ था जब उर्दू भाषा को अंग्रेजी खदेड़ने का षड़यंत्र कर रही थी। 1857 के आजादी युद्ध के बाद भारतीयों से उनकी भाषा, भूषा और भाष्य जबरन छीने जा रहे थे। हिंदुत्व और मुस्लिम की चोटी-दाढ़ी जड़ से सफाचट करने और द्दोती-पैजामा, टोपी-पगड़ी उतरवाने के साथ जीवन के अमृत जल (पानी) को बांट दिया गया था। नया लखनऊ हजरतगंज की शक्ल में करवट ले रहा था। नई पूंजी, नये बाजार, नए फैशन की बुनियाद रखी जा रही थी। ललमुंहों के साथ कलमुंहे भी कोट-पैंट-नेकटाई में फंसे मंुह टेढ़ा कर गुड़ मार्निंग... गुड इवनिंग बोलने की कसरत करने लग गए थे। ऐसे समय में शहरी जीवन की उत्तेजना, उसकी बेचैनी और अजनबियत को पहचानकर भार्गव जी ने ‘माधुरी’ हिन्दी मासिक पत्रिका की रसधार बहाई, जिसने सहजभाव से लोगों को आकर्षित किया। समय और सियासत के शामियाने तले सिक्कों की अदावत में सफलता ने बंदी बनने से इनकार कर दिया।
‘सुधा’ हिन्दी मासिक पत्रिका ने इसी सफलता की कोख से श्रावण, 1984 संवत् (सन् 1927) में जन्म लिया। उसकी कीर्ति के खाते में सबसे बड़ी उपलब्धी जमा हुई कि उसे पढ़ने के लिए सैकड़ों लखनउवों ने हिन्दी पढ़ना सीखी। उसकी ग्राहक संख्या पहली छमाही में 6000 से ऊपर निकल गई। यह हिन्दी के क्षेत्र में अभूतपूर्व था। आज भी यह दुर्लभ हैं। एक-दो अंकों को तो दो-तीन बार छापना पड़ा था। ‘सुधा’ साहित्यिक से अधिक परिवारिक पत्रिका बन गई थी। उसमें नियमित रूप से संगीत साधना, सहित्य संसार, स्त्री-समाज, समाज-सुधार, विज्ञान-वैचि×य, व्यंग्य-विनोद, ललित कला, कुसुम कंुज, पुस्तक-परीक्षा जैसे स्तम्भों के साथ कविता, कहानी, उपन्यास (क्रमशः), आलोचना, राजनीति, स्तम्भों के साथ देश-विदेश की पठनीय सामग्री छपती थी। उसकी छपाई, लेआउट और सामग्री ही सर्वश्रेष्ठ नहीं थी वरन् उसमें छपे रंगीन चित्र कला व मुद्रण कला में उच्चकोटि के थे। आज की उन्नत तकनीक से किसी भी मायने में उन्हें उन्नीस नहीं ठहराया जा सकता। भाषा की शुद्धता और गलतियों को पकड़ने के लिए ख्याति प्राप्त विद्धान नियुक्त थे। निराल, इलाचंद जोशी, जगन्नाथ प्रसाद खत्री, श्रीधर पाठक, जगन्नाथ दास ‘रत्नाकर’, पं0 जगंदबा प्रसाद ‘हितैषी’, जयशंकर प्रसाद, महावीर प्रसाद द्विवेदी, वृन्दावन लाल वर्मा, रायकृष्ण दास, पं0 रामचंद्र शुक्ला, अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, श्रीरत्न शुक्ल, शिवपूजन सहाय, विनोद शंकर ब्यास, सुमित्रा देवी, बदरीनाथ भट्ट, परिपूर्णानन्द वर्मा, गुलाब रत्न ‘गुलाब’, प्रेमचंद, पं0 भगवती प्रसाद वाजपेयी, आचार्य चतुरसेन, मैथिलीशरण गुप्त, गोविन्द बल्लभ पंत, विश्वम्भरनाथ शर्मा ‘कौशिक’, मिश्रबंधु, विद्यालंकार और न जाने कितने नामों के स्वर्णाक्षर ‘सुधा’ में छपकर अमर हो गये।
‘सुधा’ में ही भार्गव जी ने तुलसी सम्वत् की शुरूआत की थी जो आज बाजार में खो गया। निराला ने पहले अंक के बाद ही ‘सुधा’ को प्रथम श्रेणी की पत्रिका माना, तो विश्व प्रसिद्ध डाॅ0 सर जार्ज ग्रियर्सन ने उत्तर भारत की उच्चकोटि की पत्रिका का दर्जा ‘सुधा’ को दिया था। इसी ख्याति ने हजारों परिवार और नए लेखक/लेखिकाओं को ‘सुधा’ से जोड़ा। यही नहीं काफी समय तक प्रेमचंद जी भी गंगा-पुस्तक माला में साहित्यिक सलाहकार के पद पर कार्यरत थे व इसके सम्पादकीय विभाग से जुड़े रहे। प्रेमचंद जी की पहली कहानी ‘स्वत्व रक्षा’ ‘माधुरी’ में जुलाई 1922 के अंक में सबसे पहले भागर्व जी ने ही छापी थी। पं0 रूपनारायण पांडेय तो ‘सुधा’ सम्पादक थे ही। पं0 अमृतलाल नागर और भगवती चरण वर्मा का प्रथम परिचय ‘सुधा’ में छपकर ही हुआ। राय कृष्णदास जी ने ‘सुधा’ में छपे चित्रों से प्रभावित होकर जहां प्रशंसा व बधाई पत्र लिखे वहीं तमाम चित्र छपने के लिए भी भेजें। उनकी रचनाएं तो लगातार छपती ही रहती थीं। श्री क्षेमचन्द सुमन ने लिखा है, ‘हिन्दी जगत को श्री भार्गव जी का आभार मानना चाहिए कि उन्होंने केवल निराला, प्रेमचंद ही नहीं चण्डी प्रसाद ‘हृदयेश’, बेचन शर्मा ‘उग्र’, गोपाल सिंह नेपाली और चतुरसेन शास्त्री को भी हिन्दी के मोहल्ले में स्थापित किया। वे कोरे प्रकाशक नहीं वरन् उच्चकोटि के सम्पादक और कवि थे।’ भार्गव जी की मृत्यु के कुछ दिनों बाद ‘प्रियंका’ में लिखे एक लेख में सुमन जी ने बेहद व्यथित होते हुए लिखा था, ‘कितने कृतघ्न हैं हम कि जिस व्यक्ति ने ‘हिंदी साहित्य’ को विश्व साहित्य के मंच पर प्रतिष्ठित करने का गौरव और यश प्रदान किया, उसके चले जाने पर भी ज्यों के त्यों अपने कार्य-व्यापार में इस प्रकार संलग्न रहे, मानों कुछ हुआ ही नहीं। सरस्वती के पावन मन्दिर में इतनी बड़ी दुर्घटना से कहीं तो कोई हलचल हुई होती। जिस व्यक्ति ने ‘माधुरी’ और ‘सुधा’ पत्रिकाओं के माध्यम से हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं के सम्पादन का नया मानदंड स्थापित किया, उस दिवंगत आत्मा की स्मृति में दो आंसू भी न बहा सके, विडम्बना ही तो है।’
‘मुझे लेखक बनाया मेरे पाठकों ने’ में आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने स्वीकार किया है कि, ‘सम्भवतः पहली कहानी लिखकर दुलारेलाल भार्गव को लखनऊ भेजी। ‘सुधा’ उन्होंने तब निकाली ही थी, एक दिन मुझे उनका पोस्टकार्ड मिला। लिखा था- आपको यदि नागवार न गुजरे तो हम कहानी का पुरस्कार आपको देना चाहते हैं। पाठक मेरी खुशी का अनुमान न लगा सकेंगे। यह एक ऐसी आमदनी का सीधा रास्ता खुल रहा था, जिसकी मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी। अब तक तो मैं इसी में खुश था कि मेरी रचनाएं छप रही हैं। तब तक मैं ‘प्रताप’ कानपुर में ही लेख भेजता था, पर उसने कभी एक धेला भी पारिश्रमिक नहीं दिया था।
अतः मैंने कार्ड का तुरन्त उत्तर दिया कि- ‘पुरस्कार यदि काट न खाय तो मुझे किसी हालत में उसका भेजा जाना नागवार न गुजरेगा।’ कुछ दिन बाद ही 5 रूपये का मनीआर्डर मिला। उस दिन मैंने सपत्नीक जश्न मनाया और कई दिन तक उन पांच रूपयों का हम लोगों को नशा सा रहा।’
सचमुच ‘सुधा’ अर्थात अमृत यानी जल जिसमें समाहित है आक्सीजन, उसका अभाव केवल हिन्दी और हिन्दू को ही भ्रष्ट-ध्रष्ट नहीं कर रहा है वरन् समूचे हिन्दुस्तान की सामाजिक, साहित्यिक समरसता को अधमरा कर बाजार के नाम पर दानवों की काॅलोनी में धकेलने का नित नया प्रयास कर रहा है।
‘सुधा’ यानी अमृत अर्थात अमरत्व पाने का रस। इसी अमृत के लिए देव-दानव, ऋषि-राजर्षि में भयंकर युद्ध से लेकर समंदर को मथने तक की भारी मशक्कत हुई। अमृत कुंभ के छलकने से उसकी कुछ बूंदें पृथ्वी पर जहां-जहां गिरीं वहां आज भी मानवीय आपाधापी जारी हैं। हिन्दू और हिन्दी साहित्य अमृत कथाओं से भरा पड़ा है। शायद इसी से प्रेरणां पाकर पं0 दुलारे लाल भार्गव ने ‘सुधा’ और ‘गंगा’ (गंगा पुस्तकमाला) को सर्वसुलभ कराया। हालांकि हिन्दी की ‘सरस्वती’ का कल-कल नाद पहले से ही गूंज रहा था, लेकिन हर किसी को कालीदास की तरह ‘सरस्वती’ में डुबकी लगाने का पुण्य नहीं प्राप्त होता।
‘सुधा’ पत्रिका का प्रकाशन लखनऊ से ऐसे समय शुरू हुआ था जब उर्दू भाषा को अंग्रेजी खदेड़ने का षड़यंत्र कर रही थी। 1857 के आजादी युद्ध के बाद भारतीयों से उनकी भाषा, भूषा और भाष्य जबरन छीने जा रहे थे। हिंदुत्व और मुस्लिम की चोटी-दाढ़ी जड़ से सफाचट करने और द्दोती-पैजामा, टोपी-पगड़ी उतरवाने के साथ जीवन के अमृत जल (पानी) को बांट दिया गया था। नया लखनऊ हजरतगंज की शक्ल में करवट ले रहा था। नई पूंजी, नये बाजार, नए फैशन की बुनियाद रखी जा रही थी। ललमुंहों के साथ कलमुंहे भी कोट-पैंट-नेकटाई में फंसे मंुह टेढ़ा कर गुड़ मार्निंग... गुड इवनिंग बोलने की कसरत करने लग गए थे। ऐसे समय में शहरी जीवन की उत्तेजना, उसकी बेचैनी और अजनबियत को पहचानकर भार्गव जी ने ‘माधुरी’ हिन्दी मासिक पत्रिका की रसधार बहाई, जिसने सहजभाव से लोगों को आकर्षित किया। समय और सियासत के शामियाने तले सिक्कों की अदावत में सफलता ने बंदी बनने से इनकार कर दिया।
‘सुधा’ हिन्दी मासिक पत्रिका ने इसी सफलता की कोख से श्रावण, 1984 संवत् (सन् 1927) में जन्म लिया। उसकी कीर्ति के खाते में सबसे बड़ी उपलब्धी जमा हुई कि उसे पढ़ने के लिए सैकड़ों लखनउवों ने हिन्दी पढ़ना सीखी। उसकी ग्राहक संख्या पहली छमाही में 6000 से ऊपर निकल गई। यह हिन्दी के क्षेत्र में अभूतपूर्व था। आज भी यह दुर्लभ हैं। एक-दो अंकों को तो दो-तीन बार छापना पड़ा था। ‘सुधा’ साहित्यिक से अधिक परिवारिक पत्रिका बन गई थी। उसमें नियमित रूप से संगीत साधना, सहित्य संसार, स्त्री-समाज, समाज-सुधार, विज्ञान-वैचि×य, व्यंग्य-विनोद, ललित कला, कुसुम कंुज, पुस्तक-परीक्षा जैसे स्तम्भों के साथ कविता, कहानी, उपन्यास (क्रमशः), आलोचना, राजनीति, स्तम्भों के साथ देश-विदेश की पठनीय सामग्री छपती थी। उसकी छपाई, लेआउट और सामग्री ही सर्वश्रेष्ठ नहीं थी वरन् उसमें छपे रंगीन चित्र कला व मुद्रण कला में उच्चकोटि के थे। आज की उन्नत तकनीक से किसी भी मायने में उन्हें उन्नीस नहीं ठहराया जा सकता। भाषा की शुद्धता और गलतियों को पकड़ने के लिए ख्याति प्राप्त विद्धान नियुक्त थे। निराल, इलाचंद जोशी, जगन्नाथ प्रसाद खत्री, श्रीधर पाठक, जगन्नाथ दास ‘रत्नाकर’, पं0 जगंदबा प्रसाद ‘हितैषी’, जयशंकर प्रसाद, महावीर प्रसाद द्विवेदी, वृन्दावन लाल वर्मा, रायकृष्ण दास, पं0 रामचंद्र शुक्ला, अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, श्रीरत्न शुक्ल, शिवपूजन सहाय, विनोद शंकर ब्यास, सुमित्रा देवी, बदरीनाथ भट्ट, परिपूर्णानन्द वर्मा, गुलाब रत्न ‘गुलाब’, प्रेमचंद, पं0 भगवती प्रसाद वाजपेयी, आचार्य चतुरसेन, मैथिलीशरण गुप्त, गोविन्द बल्लभ पंत, विश्वम्भरनाथ शर्मा ‘कौशिक’, मिश्रबंधु, विद्यालंकार और न जाने कितने नामों के स्वर्णाक्षर ‘सुधा’ में छपकर अमर हो गये।
‘सुधा’ में ही भार्गव जी ने तुलसी सम्वत् की शुरूआत की थी जो आज बाजार में खो गया। निराला ने पहले अंक के बाद ही ‘सुधा’ को प्रथम श्रेणी की पत्रिका माना, तो विश्व प्रसिद्ध डाॅ0 सर जार्ज ग्रियर्सन ने उत्तर भारत की उच्चकोटि की पत्रिका का दर्जा ‘सुधा’ को दिया था। इसी ख्याति ने हजारों परिवार और नए लेखक/लेखिकाओं को ‘सुधा’ से जोड़ा। यही नहीं काफी समय तक प्रेमचंद जी भी गंगा-पुस्तक माला में साहित्यिक सलाहकार के पद पर कार्यरत थे व इसके सम्पादकीय विभाग से जुड़े रहे। प्रेमचंद जी की पहली कहानी ‘स्वत्व रक्षा’ ‘माधुरी’ में जुलाई 1922 के अंक में सबसे पहले भागर्व जी ने ही छापी थी। पं0 रूपनारायण पांडेय तो ‘सुधा’ सम्पादक थे ही। पं0 अमृतलाल नागर और भगवती चरण वर्मा का प्रथम परिचय ‘सुधा’ में छपकर ही हुआ। राय कृष्णदास जी ने ‘सुधा’ में छपे चित्रों से प्रभावित होकर जहां प्रशंसा व बधाई पत्र लिखे वहीं तमाम चित्र छपने के लिए भी भेजें। उनकी रचनाएं तो लगातार छपती ही रहती थीं। श्री क्षेमचन्द सुमन ने लिखा है, ‘हिन्दी जगत को श्री भार्गव जी का आभार मानना चाहिए कि उन्होंने केवल निराला, प्रेमचंद ही नहीं चण्डी प्रसाद ‘हृदयेश’, बेचन शर्मा ‘उग्र’, गोपाल सिंह नेपाली और चतुरसेन शास्त्री को भी हिन्दी के मोहल्ले में स्थापित किया। वे कोरे प्रकाशक नहीं वरन् उच्चकोटि के सम्पादक और कवि थे।’ भार्गव जी की मृत्यु के कुछ दिनों बाद ‘प्रियंका’ में लिखे एक लेख में सुमन जी ने बेहद व्यथित होते हुए लिखा था, ‘कितने कृतघ्न हैं हम कि जिस व्यक्ति ने ‘हिंदी साहित्य’ को विश्व साहित्य के मंच पर प्रतिष्ठित करने का गौरव और यश प्रदान किया, उसके चले जाने पर भी ज्यों के त्यों अपने कार्य-व्यापार में इस प्रकार संलग्न रहे, मानों कुछ हुआ ही नहीं। सरस्वती के पावन मन्दिर में इतनी बड़ी दुर्घटना से कहीं तो कोई हलचल हुई होती। जिस व्यक्ति ने ‘माधुरी’ और ‘सुधा’ पत्रिकाओं के माध्यम से हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं के सम्पादन का नया मानदंड स्थापित किया, उस दिवंगत आत्मा की स्मृति में दो आंसू भी न बहा सके, विडम्बना ही तो है।’
‘मुझे लेखक बनाया मेरे पाठकों ने’ में आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने स्वीकार किया है कि, ‘सम्भवतः पहली कहानी लिखकर दुलारेलाल भार्गव को लखनऊ भेजी। ‘सुधा’ उन्होंने तब निकाली ही थी, एक दिन मुझे उनका पोस्टकार्ड मिला। लिखा था- आपको यदि नागवार न गुजरे तो हम कहानी का पुरस्कार आपको देना चाहते हैं। पाठक मेरी खुशी का अनुमान न लगा सकेंगे। यह एक ऐसी आमदनी का सीधा रास्ता खुल रहा था, जिसकी मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी। अब तक तो मैं इसी में खुश था कि मेरी रचनाएं छप रही हैं। तब तक मैं ‘प्रताप’ कानपुर में ही लेख भेजता था, पर उसने कभी एक धेला भी पारिश्रमिक नहीं दिया था।
अतः मैंने कार्ड का तुरन्त उत्तर दिया कि- ‘पुरस्कार यदि काट न खाय तो मुझे किसी हालत में उसका भेजा जाना नागवार न गुजरेगा।’ कुछ दिन बाद ही 5 रूपये का मनीआर्डर मिला। उस दिन मैंने सपत्नीक जश्न मनाया और कई दिन तक उन पांच रूपयों का हम लोगों को नशा सा रहा।’
सचमुच ‘सुधा’ अर्थात अमृत यानी जल जिसमें समाहित है आक्सीजन, उसका अभाव केवल हिन्दी और हिन्दू को ही भ्रष्ट-ध्रष्ट नहीं कर रहा है वरन् समूचे हिन्दुस्तान की सामाजिक, साहित्यिक समरसता को अधमरा कर बाजार के नाम पर दानवों की काॅलोनी में धकेलने का नित नया प्रयास कर रहा है।
एक मेला था छैल छबीला
रईसी की शौकीन तबीयत के हजार-हजार रंगीले किस्से बनारस की गलियों में आज भी सिर पर रंगीन अंगौछा बांधे शान से टहल रहे हैं। साहित्य हो, संगीत हो, महफिल हो, मौज-मस्ती हो, तवायफों की रंगीनियत हो या फिर मेले-ठेले सबमें बम बम। बाबा भोलेनाथ की जय। गंगा मइया की जय। हर-हर महादेव.... हर- हर गंगे का जयघोष और इत्र-फुलेल, जूही -चंपा के गजरों की महक से मह मह करता बनारस भले ही अपना भूगोल बदल रहा हो मगर उसका इतिहास नहीं बदला, चरित्र नहीं बदला। शिवरात्रि पर्व गया, होली आ गई फिर नवसम्वत्.... नया साल यानी नवरात्रें... माता का पूजन, नई फसल, नये अनाज का पूजन गो कि हर दिन पर्व, हर शाम मेला। सम्वतसर के पहले महीने चैत में बनारस में बुढ़वा मंगल का मेला अदभुद तो होता ही था साथ ही नववर्ष के स्वागत का शानदार आयोजन भी हुआ करता था। आज सिर्फ उसकी यादें भर हैं। यह मेला चैत्र के पहले मंगल से शुरू होता था। चार मेले लगते थे जिन्हें मंगल, दंगल, जंगल और झिलंगा कहा जाता था।
बुढ़वा मंगल का मेला गंगा मां की गोद में लगता था। घाटों पर शामियाने लगते जिनमें रंगीन सजावट होती। नावों और बजरों से घाट पाट दिये जाते। इन पर तरह-तरह की दुकानें लगती थीं। इन्हीं में तवायफों के डेरे भी सजते थे। मेला अलग दिन, अलग घाट पर लगता था। बनारसी बाबू धोती, कुत्र्ता, दुपल्ली टोपी में इत्र से महकते मेले का लुफ्त उठाते।
रात का नजारा तो स्वार्गिक होता। तवायफों की महफिलों से राजेश्वरी, शिवकंुआरी, मैना रानी (बड़ी/छोटी) बड़ी मोती जैसी नामवर गायिकाओं की स्वरलहरियों के साथ उनकी पायलों के घुंघरूओं का मादक संगीत गंगा की लहरों के साथ तैरता समूचे वातावरण को मदमस्त कर देता था। मेले में नावों की दौड़ और बनारसी रंगबाजों, गहरेबाजों में डोंगियां बांधने की होड़ का मजा ही अलग था।
ये रंगबाज अपने पट्ठों के साथ बा आवाजें बुलन्द ‘काट दे लहा सी.... का नारा दे किसी बजरे से बंधी डांेगी काट देते। फिर वह डांेगी गंगा की धारा में किसी अल्हड़ यौवना की तरह बेफिक्र बलखाती, तैरती दूसरे-तीसरे लोक ले जाती। बजरों की सजावट ऐसी दमकती कि छैल-छबीली भी शर्मा के गश खा जाय। तिस पर काशी नरेश की मोरपंखी और घुड़दौड़ की शान ही निराली होती थी। काशी-नरेश महाराज ईश्वरी नारायण सिंह के समय नावों की दौड़ और बजरों का यौवन देखते बनता था। उनके प्रतिद्वंदी महाराज कुमार विजयनगरम के बजरे और नावों का रागरंग भी निराला होता था। इन दोनों की शान को दोबाला करते बनारस के रईस राजा मोतीचंद, शापुरी माधोलाल संड, मुंशी माधोलाल, गोसाईं रामपुरी, साह व राय परिवार के सजे-धजे रंगीन बजरे। इनमें नामी गिरामी तवायफों की महफिलें सजती तो भाटों-चारणों के कोविद करतब दम भरते। सचमुच बुढ़वा मंगल का बेढब मेला ऐसा ही शानदार होता था।
बुढ़वा मंगल मेले की समाप्ति पर दुर्गा मन्दिर के पास एक अखाड़े में दंगल मेला लगता था। जंगल मेला यानी मेला शहर के बाहरी इलाकों में फैल जाता जहां लोग घूमते-फिरते बाटी-चोखा खाते। थाके मांदे लोगों के सुस्ताने (आराम करने) के लिए रईसों के घरों में बैठकें लगतीं, महफिलें सजतीं, खाना-पीना होता, इसे ही झिलंगा मेला कहा जाता था।
बुढ़वा मंगल का मेला अपने समय का छैला कहा जाता था। सो इस मायने में भी कि ऐसी चारित्रिक सम्पन्नता, साहित्यिक सभ्यता और राग रंग से भरा पुरा संगीत अन्यत्र दुर्लभ था। बनारासी पान, रबड़ी के क्या कहने, मेले में हर आंठवीं दुकान पर इनकी ठसक देखते बनती थी। अब तो सिर्फ नाम रह गया है, बुढ़वा मंगल।
(प्रियंका एलकेओ ब्लाग से)
बुढ़वा मंगल का मेला गंगा मां की गोद में लगता था। घाटों पर शामियाने लगते जिनमें रंगीन सजावट होती। नावों और बजरों से घाट पाट दिये जाते। इन पर तरह-तरह की दुकानें लगती थीं। इन्हीं में तवायफों के डेरे भी सजते थे। मेला अलग दिन, अलग घाट पर लगता था। बनारसी बाबू धोती, कुत्र्ता, दुपल्ली टोपी में इत्र से महकते मेले का लुफ्त उठाते।
रात का नजारा तो स्वार्गिक होता। तवायफों की महफिलों से राजेश्वरी, शिवकंुआरी, मैना रानी (बड़ी/छोटी) बड़ी मोती जैसी नामवर गायिकाओं की स्वरलहरियों के साथ उनकी पायलों के घुंघरूओं का मादक संगीत गंगा की लहरों के साथ तैरता समूचे वातावरण को मदमस्त कर देता था। मेले में नावों की दौड़ और बनारसी रंगबाजों, गहरेबाजों में डोंगियां बांधने की होड़ का मजा ही अलग था।
ये रंगबाज अपने पट्ठों के साथ बा आवाजें बुलन्द ‘काट दे लहा सी.... का नारा दे किसी बजरे से बंधी डांेगी काट देते। फिर वह डांेगी गंगा की धारा में किसी अल्हड़ यौवना की तरह बेफिक्र बलखाती, तैरती दूसरे-तीसरे लोक ले जाती। बजरों की सजावट ऐसी दमकती कि छैल-छबीली भी शर्मा के गश खा जाय। तिस पर काशी नरेश की मोरपंखी और घुड़दौड़ की शान ही निराली होती थी। काशी-नरेश महाराज ईश्वरी नारायण सिंह के समय नावों की दौड़ और बजरों का यौवन देखते बनता था। उनके प्रतिद्वंदी महाराज कुमार विजयनगरम के बजरे और नावों का रागरंग भी निराला होता था। इन दोनों की शान को दोबाला करते बनारस के रईस राजा मोतीचंद, शापुरी माधोलाल संड, मुंशी माधोलाल, गोसाईं रामपुरी, साह व राय परिवार के सजे-धजे रंगीन बजरे। इनमें नामी गिरामी तवायफों की महफिलें सजती तो भाटों-चारणों के कोविद करतब दम भरते। सचमुच बुढ़वा मंगल का बेढब मेला ऐसा ही शानदार होता था।
बुढ़वा मंगल मेले की समाप्ति पर दुर्गा मन्दिर के पास एक अखाड़े में दंगल मेला लगता था। जंगल मेला यानी मेला शहर के बाहरी इलाकों में फैल जाता जहां लोग घूमते-फिरते बाटी-चोखा खाते। थाके मांदे लोगों के सुस्ताने (आराम करने) के लिए रईसों के घरों में बैठकें लगतीं, महफिलें सजतीं, खाना-पीना होता, इसे ही झिलंगा मेला कहा जाता था।
बुढ़वा मंगल का मेला अपने समय का छैला कहा जाता था। सो इस मायने में भी कि ऐसी चारित्रिक सम्पन्नता, साहित्यिक सभ्यता और राग रंग से भरा पुरा संगीत अन्यत्र दुर्लभ था। बनारासी पान, रबड़ी के क्या कहने, मेले में हर आंठवीं दुकान पर इनकी ठसक देखते बनती थी। अब तो सिर्फ नाम रह गया है, बुढ़वा मंगल।
(प्रियंका एलकेओ ब्लाग से)
लखनऊ में पिटा एक मुख्यमंत्री
लखनऊ के पांवों के नीचे लहू से सराबोर सुर्ख चादर बिछाने की मशक्कत ललमुंहे फिरंगियों से किसी भी मायने में कम उसके अपनांे ने नहीं की, बेटा चुगलखोर, तो बाप मुंहजोर। सरकारी ओहदेदार उस्ताद, तो मुख्यमंत्री सरगना। रिश्ते-नातों में आपाधापी, महलों में रंगरंलियों के ठहाके और चुंगी से लेकर कचेहरी दरबार तक रिश्वतखोरी, लूट का बांकपन छितराया था। गजब ऐसा कि बादशाह अमजद अली शाह जहरखुरानी का शिकार हुए। तकदीर की बुलंदी तो देखिए कि मामूली शहजादे से वली अहद का ओहदा पाये वाजिदअली शाह अवद्द की सल्तनत के तख्त पर काबिज हुए। बांके-तिरछों की बन आई, मोतियों के थाल लुट गये। हर तरफ हैरानी परेशानी, फरियादी गलियों में जूतियां चटकाते फिरते। ऐसी हाय तौबा, ऐसा गुस्सा कि सूरज और गरम हो जाये और चांद का निकलना दुश्वार। गुस्से ओ.. गम की द्दुंध के बीच हैरतअंगेज हादसे से लखनऊ सहम गया।
मुंशी केवल किशोर ‘नादिर उसल असर’ में लिखते हैं, ‘गोलागंज के मलिका-ए-जमानी के इमामबाड़े के पास से मुख्यमंत्री अमीनुद्दौला अपनी बग्धी में बैठा हुआ गुजर रहा था। उसके साथ उसका बलिष्ठ नौकर हुलास भी था। अचानक चार आदमी सामने आ गये। उनमें से एक तफज्जुल हुसैन ने घोड़े को काबू में किया और मुख्यमंत्री से अपनी बांकी की तनख्वाह मांगी। बर्खास्त नौकर समझ अमीनुद्दौला जब तक कुछ कहते तब तक और तीनों आदमी सामने आ गये। हुलास ने चारों को ललकारा तो एक ने गोली चला दी मगर निशाना चूक गया। दूसरे फजल अली नाम के बादमाश ने ‘मारो-मारो’ की हांक देकर अपनी बंदूक दाग दी गोली सही निशाने पर लगी हुलास लहूलुहान गिरते मरते भी अपनी तलवार से एक बदमाश हैदर खां को घायल कर गया। घायल हैदर दर्द से बेपरवाह अपने साथी तफज्जुल के साथ हाथ में खंजर लिए बग्घी में घुस गया। दोनों मुख्यमंत्री को काबू करने में गुत्थम-गुत्था हो गये लेकिन मुख्यमंत्री ने दोनों को थाम लिया। इस बीच तीसरे ने अपनी तलवार से मुख्यमंत्री के कंधे व बाजू को घायल कर दिया। चारों ने एक साथ उन्हें पीटकर दबोच लिया और दो बदमाशों ने उनके सीने से खंजर टिकाकर धमकी देते हुए कहा, ‘हम तुम्हारी जान नहीं लेंगे मगर किसी मददगर या तमाशबीन ने हम पर हमला किया तो यकीनन तुम्हें मार डालेंगे।’ तब तक भीड़ जुट गई थी लेकिन किसी ने मदद की पहल न की, मुख्यमंत्री खून बहने से खड़े नहीं हो पा रहे थे, टूटे-फूटे शब्दों से लोगों से मदद की गुहार भी लगा रहे थे लेकिन डर से कोई नहीं बढ़ा। बदमाशों ने उन्हें बग्धी से उतारकर पास की पुलिया पर लिटाया मगर खंजर की नोक जरा भी जुम्बिश न खाई।’
इस हौलनाक खबर को पाकर अंग्रेज रेजीडेन्ट अपने सहायक लेफ्टिनेंट बर्ड के साथ चंद मिनटों में मौका-ए-वारदात पर पहुंच गया। मामले को रफा-दफा करने की कोशिश को नाकाम करते हुए एक बदमाश बोला, ‘अजी, अंधेरेगर्दी मची हुई है। दरबार में भले आदमियों की गुजर नहीं, नौकरी छीन ली। अब कहां से खांएं? हमें मजबूरी में यह सब करना पड़ रहा हैं मुख्यमंत्री को हम तभी छोड़ेंगे जब हमें पचास हजार रूपया नकद और बगैर छेड़छाड़ के कानपुर जाने दिया जाएगा।’
रेजीडेन्ट ने किसी समझौते से इनकार करते हुए वायदा किया कि यदि वे मुख्यमंत्री को सही सलामत छोड़ देंगे तो उन्हें भी कुछ नहीं होगा। उन्हें रेजीडेंसी में पनाह दी जायेगी अवध सरकार को नहीं सौंपा जायेगा और पचास हजार रूपयों को मुख्यमंत्री से ही तय करें। इसी बीच मुख्यमंत्री के रिश्तेदार तीन-चार हाथियों पर पचास हजार रूपए लादकर आ गये। बदमाशों को रेजीडेन्ट मय रूपयों के रेजीडेन्सी ले आये और एक कमरे में टिका दिया।
रेजीडेन्ट ने खुद जाकर नवाब वाजिद अली शाह को पूरा वाक्या सुनाया। नाराजगी के बाद बदमाशों के लिए अपने सिपाहियों के साथ हथकडि़यां भेजीं लेकिन रेजीडेन्ट ने मना कर दिया। बाद में इन बदमाशों को अवध सरकार को सौंप दिया गया। मेजर जनरल स्लीमेन की किताब ‘ए जर्नी थ्रू दि किंगडम आॅफ अवध’ के अनुसार मुख्यमंत्री ने नवाब को लिखकर भेजा था कि मुजरिमों को फैसला होने तक मारा-पीटा न जाय। बदमाशों पर मुकदमा चला, तीन बदमाशों फजल अली, तफज्जुल हुसैन, हैदर खान को उम्र कैद हुई। पीलीभीत के रहने वाले चैथे बदमाश अली मुहम्मद को पीलीभीत भेजकर उस पर कड़ी निगरानी रखी गई। नवाब वाजिदअली ने इसे सल्तनत की बेइज्जती मानी और मुख्यमंत्री अमीनुद्दौला को बरखास्त कर दिया। नए मुख्यमंत्री हुए अली नकी जिन्हें बाद में अंग्रेजों ने खरीद लिया था। यही अवध की सल्तनत को अंग्रेजों की झोली में डालने का असल षड़यंत्रकारी भी कहा जाता है।
प्रियंका एलकेओ ब्लाग से
मुंशी केवल किशोर ‘नादिर उसल असर’ में लिखते हैं, ‘गोलागंज के मलिका-ए-जमानी के इमामबाड़े के पास से मुख्यमंत्री अमीनुद्दौला अपनी बग्धी में बैठा हुआ गुजर रहा था। उसके साथ उसका बलिष्ठ नौकर हुलास भी था। अचानक चार आदमी सामने आ गये। उनमें से एक तफज्जुल हुसैन ने घोड़े को काबू में किया और मुख्यमंत्री से अपनी बांकी की तनख्वाह मांगी। बर्खास्त नौकर समझ अमीनुद्दौला जब तक कुछ कहते तब तक और तीनों आदमी सामने आ गये। हुलास ने चारों को ललकारा तो एक ने गोली चला दी मगर निशाना चूक गया। दूसरे फजल अली नाम के बादमाश ने ‘मारो-मारो’ की हांक देकर अपनी बंदूक दाग दी गोली सही निशाने पर लगी हुलास लहूलुहान गिरते मरते भी अपनी तलवार से एक बदमाश हैदर खां को घायल कर गया। घायल हैदर दर्द से बेपरवाह अपने साथी तफज्जुल के साथ हाथ में खंजर लिए बग्घी में घुस गया। दोनों मुख्यमंत्री को काबू करने में गुत्थम-गुत्था हो गये लेकिन मुख्यमंत्री ने दोनों को थाम लिया। इस बीच तीसरे ने अपनी तलवार से मुख्यमंत्री के कंधे व बाजू को घायल कर दिया। चारों ने एक साथ उन्हें पीटकर दबोच लिया और दो बदमाशों ने उनके सीने से खंजर टिकाकर धमकी देते हुए कहा, ‘हम तुम्हारी जान नहीं लेंगे मगर किसी मददगर या तमाशबीन ने हम पर हमला किया तो यकीनन तुम्हें मार डालेंगे।’ तब तक भीड़ जुट गई थी लेकिन किसी ने मदद की पहल न की, मुख्यमंत्री खून बहने से खड़े नहीं हो पा रहे थे, टूटे-फूटे शब्दों से लोगों से मदद की गुहार भी लगा रहे थे लेकिन डर से कोई नहीं बढ़ा। बदमाशों ने उन्हें बग्धी से उतारकर पास की पुलिया पर लिटाया मगर खंजर की नोक जरा भी जुम्बिश न खाई।’
इस हौलनाक खबर को पाकर अंग्रेज रेजीडेन्ट अपने सहायक लेफ्टिनेंट बर्ड के साथ चंद मिनटों में मौका-ए-वारदात पर पहुंच गया। मामले को रफा-दफा करने की कोशिश को नाकाम करते हुए एक बदमाश बोला, ‘अजी, अंधेरेगर्दी मची हुई है। दरबार में भले आदमियों की गुजर नहीं, नौकरी छीन ली। अब कहां से खांएं? हमें मजबूरी में यह सब करना पड़ रहा हैं मुख्यमंत्री को हम तभी छोड़ेंगे जब हमें पचास हजार रूपया नकद और बगैर छेड़छाड़ के कानपुर जाने दिया जाएगा।’
रेजीडेन्ट ने किसी समझौते से इनकार करते हुए वायदा किया कि यदि वे मुख्यमंत्री को सही सलामत छोड़ देंगे तो उन्हें भी कुछ नहीं होगा। उन्हें रेजीडेंसी में पनाह दी जायेगी अवध सरकार को नहीं सौंपा जायेगा और पचास हजार रूपयों को मुख्यमंत्री से ही तय करें। इसी बीच मुख्यमंत्री के रिश्तेदार तीन-चार हाथियों पर पचास हजार रूपए लादकर आ गये। बदमाशों को रेजीडेन्ट मय रूपयों के रेजीडेन्सी ले आये और एक कमरे में टिका दिया।
रेजीडेन्ट ने खुद जाकर नवाब वाजिद अली शाह को पूरा वाक्या सुनाया। नाराजगी के बाद बदमाशों के लिए अपने सिपाहियों के साथ हथकडि़यां भेजीं लेकिन रेजीडेन्ट ने मना कर दिया। बाद में इन बदमाशों को अवध सरकार को सौंप दिया गया। मेजर जनरल स्लीमेन की किताब ‘ए जर्नी थ्रू दि किंगडम आॅफ अवध’ के अनुसार मुख्यमंत्री ने नवाब को लिखकर भेजा था कि मुजरिमों को फैसला होने तक मारा-पीटा न जाय। बदमाशों पर मुकदमा चला, तीन बदमाशों फजल अली, तफज्जुल हुसैन, हैदर खान को उम्र कैद हुई। पीलीभीत के रहने वाले चैथे बदमाश अली मुहम्मद को पीलीभीत भेजकर उस पर कड़ी निगरानी रखी गई। नवाब वाजिदअली ने इसे सल्तनत की बेइज्जती मानी और मुख्यमंत्री अमीनुद्दौला को बरखास्त कर दिया। नए मुख्यमंत्री हुए अली नकी जिन्हें बाद में अंग्रेजों ने खरीद लिया था। यही अवध की सल्तनत को अंग्रेजों की झोली में डालने का असल षड़यंत्रकारी भी कहा जाता है।
प्रियंका एलकेओ ब्लाग से
आदमी हूँ तो आदमियत की बात करता हूँ
कलम को किसी एक की हिमायत में या तारीफ में अड़ाना बहुत ठीक नहीं है। कलम पर बिना हिचक पेड पत्रकारिता या पीत पत्रकारिता का इलजाम लगते देर नहीं लगती, लेकिन जो सामने दिखता हो उसे कागज पर लिख देना पत्रकार का कर्तव्य नहीं? पत्रकारिता का धर्म नहीं? इसीलिए एक सजग कलमकार की हैसियत से एक सेवाभावी आदमी का विशलेषण करने की जरूरत होती है। भले ही उसे व्यक्तिगत कहकर आरोपों की चहारदीवारी में धकेला जाय। उससे पहले बता दूं, जब व्यक्तिगत सार्वजनिक होने लगे तब उस पर बात होनी लाजिमी है। कलम चले बगैर रह ही नहीं सकती, खासकर जब सूखे की राजनीति में खुब्तुलहवासी की जोरदार हवा बह रही हो।
इतनी लाइने लिखनी इस कारण पड़ीं कि नौकरशाही से सार्वजनिक सेवा के हाइवे पर आ रहे डी.के. शर्मा के सार्थक प्रयासों का जिक्र करने जा रहा हूँ। डी.के. शर्मा का नाम लखनऊ के रहने वाले बहुत अच्छे से जानते हैं। किसी भी राजनैतिक दल के नेता, कार्यकर्ता और सामान्यजन मेें मृदुभाषी शर्माजी खासे लोकप्रिय हैं। इसके पीछे उनका लक्ष्यघोष ‘जल ही जीवन है’ रहा है। वे लखनऊ जल संस्थान में सचिव से महाप्रबन्धक पद पर मुस्कराता हुआ सेवाभावी चेहरा रहे। सबकी सुनना, उसका समाधाना करना बल्कि उसे यूं भी कह सकते हैं लखनऊ का प्याऊ रहे। शर्मा जी ब्राह्मण परिवार में जन्में लेकिन उनके लिए पानी कभी भी मुसलमान या हिन्दू नहीं रहा। रमजान हो या होली-दिवाली जलापूर्ति के लिए उन्हें धर्मगुरूओं से लेकर राजनेताओं तक ने सराहा। उनके साथ काम करने वाले कर्मचारी आज भी उनकी कार्यशैली की तारीफ करते नहीं अघाते। इसकी गवाही में जलसंस्थान के कर्मचारी संगठन के पदाधिकारी कहते हैं, कर्मचारियों की समस्याओं के लिए कभी प्रदर्शन, घेराव या आन्दोलन की नौबत नहीं आई। वे हर कर्मचारी का दर्द समझते थे।’ यही हालात घड़ाफोड़ जैसे जन प्रदर्शन की भी रही। उनकी इसी छवि ने उन्हें विराम नहीं लेने दिया। वे आज भी हर दिन दो-ढाई सौ लोगों से मिलते हैं। उनकी समस्याओं को सुनते हैं, भरसक उससे छुटकारा दिलाने का सार्थक प्रयास करते हैं। इसे नेतागीरी या सेवाभाव के खानों में नहीं बांटा जा सकता। यह स्वाभाविक मानवीय गुण है, जो उनके छात्रजीवन से ही निखरने लगा था। जब वे गोरखपुर के मदन मोहन मालवीय इंजीनियरिंग कालेज के छात्र थे तभी वहां के छात्रों ने उन्हें अपना अध्यक्ष बनाया था। छात्रसंघ अध्यक्ष डी.के. शर्मा को उनके साथी आज भी भूले नहीं हैं। चुनावी राजनीति और गठजोड़ों की तारीफ? उनके पुराने साथी बेहद प्रभावी अंदाज में करते।
महापुरूषों ने जिन सपनों के लिए संघर्ष किया, वे आज जगह-जगह बिखरे दिखाई देते हैं। आम आदमी हारा और हताश है। राज्यसत्ता अपनी महात्वाकांक्षाओं के चैराहे पर खड़ी होकर जनप्रलाप सुन नहीं पा रही है। अपराध, हिंसा, अलगाव और विकास के फटे ढोल की धमक से सूबे भर के लोग बिलख रहे हैं। छोटी से छोटी समस्या के लिए उम्मीद बांधे लोगों में निराश है। इस पीड़ा का अनुभव शर्मा जी को लगातार होता रहा, इसीलिए सेवानिवृत्ति के बाद कांग्रेस पार्टी में शामिल होकर उसके द्वारा चलाये जा रहे कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने में अगली कतार में दिखते हैं। पिछले दिनों सपा सरकार के कानून-व्यवस्था में विफल रहने को मुद्दा बनाकर कांग्रेस द्वारा किये गये राज्यव्यापी विरोध प्रदर्शन के दौरान राजद्दानी लखनऊ में प्रदेश कांग्रेस
अध्यक्ष निर्मल खत्री के नेतृत्व में कदम से कदम मिलाते हुए डी0के0 शर्मा चले। इस आयेजन के प्रचार की कमान वे बखूबी सम्भाले रहे।
सामाजिक संगठन परशुराम ब्राह्मण जन कल्याण समिति के प्रदेश अध्यक्ष, अखिल भारतीय लोकाधिकार संगठन के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष व एक दैनिक समाचार-पत्र के सलाहकार सम्पादक होने के साथ सियासत के मोहल्ले में भी अपनी पूरी उपस्थिति दर्ज कराए हैं। लखनऊ के कांग्रेसजनों के बीच जहां लोकप्रिय हैं, वहीं राजधानी के लाखेां वाशिन्दों के बीच जाना-पहचाना चेहरा हैं। वे जनविकास की जिम्मेदारी निभाते हुए हजारों कदम चल चुके हैं। उनका कहना है कि आदमी हूं तो आदमियत की बात करता हूं। उन्हें पूरा विश्वास है कि विकास का जो रास्ता कांग्रेस चुनती आई है। उससे हर देशवासी को लाभ पहुंचता रहा है, और आगे भी पहुंचेेगा। महंगाई का बढ़ना, भ्रष्टाचार का गहराना और महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराध बढ़ती आबादी और सामाजिक मान्यताएं टूटने के कारण जिस तेजी से अपने पांव पसार रहे हैं, उसी तेजी से कांग्रेस उनके समाधान के रास्ते भी तलाशती जाती है। जाति, सम्प्रदाय, क्षेत्रीयता आदि संकीर्णताओं से ऊपर उठकर एक बेहतर समाज बनाने के कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी के अभियान में पूर्णतया समर्पित डी0के0 शर्मा निरंतर सक्रिय हैं। शर्मा जी के जनसंपर्कों को कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने भी सराहा है।
इतनी लाइने लिखनी इस कारण पड़ीं कि नौकरशाही से सार्वजनिक सेवा के हाइवे पर आ रहे डी.के. शर्मा के सार्थक प्रयासों का जिक्र करने जा रहा हूँ। डी.के. शर्मा का नाम लखनऊ के रहने वाले बहुत अच्छे से जानते हैं। किसी भी राजनैतिक दल के नेता, कार्यकर्ता और सामान्यजन मेें मृदुभाषी शर्माजी खासे लोकप्रिय हैं। इसके पीछे उनका लक्ष्यघोष ‘जल ही जीवन है’ रहा है। वे लखनऊ जल संस्थान में सचिव से महाप्रबन्धक पद पर मुस्कराता हुआ सेवाभावी चेहरा रहे। सबकी सुनना, उसका समाधाना करना बल्कि उसे यूं भी कह सकते हैं लखनऊ का प्याऊ रहे। शर्मा जी ब्राह्मण परिवार में जन्में लेकिन उनके लिए पानी कभी भी मुसलमान या हिन्दू नहीं रहा। रमजान हो या होली-दिवाली जलापूर्ति के लिए उन्हें धर्मगुरूओं से लेकर राजनेताओं तक ने सराहा। उनके साथ काम करने वाले कर्मचारी आज भी उनकी कार्यशैली की तारीफ करते नहीं अघाते। इसकी गवाही में जलसंस्थान के कर्मचारी संगठन के पदाधिकारी कहते हैं, कर्मचारियों की समस्याओं के लिए कभी प्रदर्शन, घेराव या आन्दोलन की नौबत नहीं आई। वे हर कर्मचारी का दर्द समझते थे।’ यही हालात घड़ाफोड़ जैसे जन प्रदर्शन की भी रही। उनकी इसी छवि ने उन्हें विराम नहीं लेने दिया। वे आज भी हर दिन दो-ढाई सौ लोगों से मिलते हैं। उनकी समस्याओं को सुनते हैं, भरसक उससे छुटकारा दिलाने का सार्थक प्रयास करते हैं। इसे नेतागीरी या सेवाभाव के खानों में नहीं बांटा जा सकता। यह स्वाभाविक मानवीय गुण है, जो उनके छात्रजीवन से ही निखरने लगा था। जब वे गोरखपुर के मदन मोहन मालवीय इंजीनियरिंग कालेज के छात्र थे तभी वहां के छात्रों ने उन्हें अपना अध्यक्ष बनाया था। छात्रसंघ अध्यक्ष डी.के. शर्मा को उनके साथी आज भी भूले नहीं हैं। चुनावी राजनीति और गठजोड़ों की तारीफ? उनके पुराने साथी बेहद प्रभावी अंदाज में करते।
महापुरूषों ने जिन सपनों के लिए संघर्ष किया, वे आज जगह-जगह बिखरे दिखाई देते हैं। आम आदमी हारा और हताश है। राज्यसत्ता अपनी महात्वाकांक्षाओं के चैराहे पर खड़ी होकर जनप्रलाप सुन नहीं पा रही है। अपराध, हिंसा, अलगाव और विकास के फटे ढोल की धमक से सूबे भर के लोग बिलख रहे हैं। छोटी से छोटी समस्या के लिए उम्मीद बांधे लोगों में निराश है। इस पीड़ा का अनुभव शर्मा जी को लगातार होता रहा, इसीलिए सेवानिवृत्ति के बाद कांग्रेस पार्टी में शामिल होकर उसके द्वारा चलाये जा रहे कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने में अगली कतार में दिखते हैं। पिछले दिनों सपा सरकार के कानून-व्यवस्था में विफल रहने को मुद्दा बनाकर कांग्रेस द्वारा किये गये राज्यव्यापी विरोध प्रदर्शन के दौरान राजद्दानी लखनऊ में प्रदेश कांग्रेस
अध्यक्ष निर्मल खत्री के नेतृत्व में कदम से कदम मिलाते हुए डी0के0 शर्मा चले। इस आयेजन के प्रचार की कमान वे बखूबी सम्भाले रहे।
सामाजिक संगठन परशुराम ब्राह्मण जन कल्याण समिति के प्रदेश अध्यक्ष, अखिल भारतीय लोकाधिकार संगठन के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष व एक दैनिक समाचार-पत्र के सलाहकार सम्पादक होने के साथ सियासत के मोहल्ले में भी अपनी पूरी उपस्थिति दर्ज कराए हैं। लखनऊ के कांग्रेसजनों के बीच जहां लोकप्रिय हैं, वहीं राजधानी के लाखेां वाशिन्दों के बीच जाना-पहचाना चेहरा हैं। वे जनविकास की जिम्मेदारी निभाते हुए हजारों कदम चल चुके हैं। उनका कहना है कि आदमी हूं तो आदमियत की बात करता हूं। उन्हें पूरा विश्वास है कि विकास का जो रास्ता कांग्रेस चुनती आई है। उससे हर देशवासी को लाभ पहुंचता रहा है, और आगे भी पहुंचेेगा। महंगाई का बढ़ना, भ्रष्टाचार का गहराना और महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराध बढ़ती आबादी और सामाजिक मान्यताएं टूटने के कारण जिस तेजी से अपने पांव पसार रहे हैं, उसी तेजी से कांग्रेस उनके समाधान के रास्ते भी तलाशती जाती है। जाति, सम्प्रदाय, क्षेत्रीयता आदि संकीर्णताओं से ऊपर उठकर एक बेहतर समाज बनाने के कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी के अभियान में पूर्णतया समर्पित डी0के0 शर्मा निरंतर सक्रिय हैं। शर्मा जी के जनसंपर्कों को कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने भी सराहा है।
सड़क, साँड़ शोहदे.... उफ्फ!
अम्बेडकर नगर। डाॅ0 लोहिया की जन्म स्थली और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता डाॅ0 गणेश कृष्ण जेटली की कर्मस्थली होने के साथ पवित्र और पौराणिक तमसा नदी का किनारा होने का गौरव प्राप्त अकबरपुर और शाहजादपुर की पीड़ा भरी चीखें डाॅ0 लोहिया के चहेतों को सुनाई नहीं दे रही हैं? वह भी तब, जब सूबे में छोटे लोहिया कहे जाने वाले के पुत्र मुख्यमंत्री हैं।
1975 में अकबरपुर को नगर पालिका का दर्जा मिला और तब से अब तक इस शहर की आबादी कई गुना बढ़ गई है, साथ ही इसके विस्तार का सिलसिला बदस्तूर जारी है। नगर पालिका का दर्जा हासिल होने के ठीक 20 वर्ष बाद इस नगर (अकबरपुर) को जिला मुख्यालयी शहर होने का गौरव प्राप्त हुआ। अकबरपुर बस स्टेशन से पुरानी तहसील तिराहे को जाने वाले मुख्य सड़क मार्ग पर फ्लाई ओवर के निर्माण से यहाँ की शहरीयत विलुप्त हो गई। जिस क्षेत्र में यह उपरिगामी सेतु बना है उसे सिविल लाइन्स कहा जाता रहा, अब वही इलाका कबाड़ सा होकर रह गया। यही नहीं नगर पालिका की कैबिनेट द्वारा उपेक्षित इस क्षेत्र के लोग अपनी रिहायशी कालोनियों से निकलकर मुख्य सड़क मार्ग पर आने से हिचकिचाते हैं।
कारण एक नहीं अनेकों है, जिनके चलते बच्चे, बूढ़े, जवान और महिलाओं को अपने ही शहर के दोनों तरफ की दुर्दशाग्रस्त पटरियों (फुटपाथ) पर पैदल चलना दूभर है। बच्चे एवं बूढ़े तथा महिलाएँ इन पटरियों पर गिरकर अनेकों बार घायल हो चुके हैं। कोई गिरकर घायल हो, उसका अंग-भंग हो या फिर परलोक गमन कर जाए, यह नगरवासियों की निजी समस्या हो सकती है, जिससे निजात पाने के लिए वह नगर पालिका परिषद के पदाधिकारियों को कोसें या मन मसोस कर घुटन भरा जीवन जीए यह वह जाने। वर्तमान नगर पालिका अध्यक्ष चन्द्रप्रकाश वर्मा से उनके प्रथम कार्यकाल में सड़क पटरियों के निर्माण के लिए पूँछा गया था, उन्होंने कहा कि किसी भी वार्ड के सभासदों ने बैठकों में इस पर प्रस्ताव ही नहीं दिया। 50-60 लाख रूपए का खर्चा है, यदि प्रस्ताव आता तो शासन को लिख करके धन की डिमाण्ड करते।
यह बताना जरूरी हो गया है कि अकबरपुर नपाप के अध्यक्ष पर पक्षपात का आरोप लगने लगा है। पुरानी तहसील तिराहे के उत्तर से बस स्टेशन, टाण्डा रोड मुख्य सड़क मार्ग के दोनों तरफ व्यवसाय करने वालों का कहना है कि चन्द्र प्रकाश वर्मा ने बीते नगर निकाय चुनाव के दौरान यह वादा किया था कि यदि दुबारा अध्यक्ष पद पर आसीन हुए तो अकबरपुर के रेलवे क्रासिंग, क्षेत्रीय श्री गाँधी आश्रम, बस स्टेशन, टाण्डा रोड से लेकर पटेल नगर तक मुख्य सड़क मार्ग के दोनों तरफ की पटरियों का निर्माण कार्य कराना उनकी सर्वोच्च प्राथमिकता होगी। नगर पालिका का चुनाव सम्पन्न हो गया और वह पुनः अध्यक्ष पद पर आसीन भी हो गए, लेकिन अपना वादा पूरा नहीं कर सके। उनके इस झूठे वादे से उक्त क्षेत्रों के निवासियों में व्यापक रूप से असंतोष देखा जाने लगा। एक कथाकार/व्यंग्यकार कहते हैं कि अब इस शहर में रहने लायक नहीं है।
क्यों? का उत्तर था कि अकबरपुर शहर की मुख्य सड़क पर चलने में उन्हें कई बातों का भय सताता है। पहला यदि सड़क की पटरियों पर चला जाए तो ऊबड़-खाबड़ फुटपाथ के साथ पटरियों पर टैक्सी-टैम्पो, दुकानों के सामने मोटर-मोटर बाइक बेतरतीब खडे़ हैं, ऊपर से अतिक्रमणकर्ता ठेले वाले यमदूत से जमंे रहते है। गिर गए तो धूल, कीचड़ के साथ-साथ फुटपाथ पर यत्र-तत्र-सर्वत्र जमंे ईंटें माथा फोड़कर ‘कोमा’ में पहुँचा देंगी। रही बात पतली सड़क की तो उस पर से गुजर जाएँगे तो कुचला शरीर पहचान में नहीं आएगा। साथ ही आत्मा परमात्मा में मिल जाएगी। तब गलियों से चलिए के उत्तर में उनका कहना है कि शोहदों और कुत्तों से कैसे बचा जाए? साथ ही आबादी में आवारा और तबेलों से निकले मवेशियों (सांड़, गाय, भैंस) की कुलाँचे पोस्टमार्टम हाउस तक पहुँचाने में अपना विशेष योगदान देंगी। मीडिया से कुछ भी छिपा नहीं है। शोहदों के लिए ‘मजनूँ पिंजड़ा’, कुत्तों के काटने पर ए.आर.वी., आवारा जानवरों, पालतू मवेशियों के छुट्टा घूमने पर पाबन्दी के लिए ‘काँजी हाउस’ की आवश्यकता है, लेकिन ये सब यहाँ के परिप्रेक्ष्य में स्वप्न की बातें हैं। इसके अलावा अकबरपुर शहरवासियों का आरोप है कि प्रभावशाली और स्वजातीय लोगों की दुकानों/घरों और सहन पर सम्बन्द्दित सभासदों के मद से टाइल्स ब्रिक लगवाई गई है। टाण्डा रोड के पटेलनगर तिराहे पर अध्यक्ष के स्वजातीयों की बहुलता है, इसलिए उक्त स्थान को आकर्षक बनवाया गया है। यह नहीं मालूम कि इसमें खर्च धन कहाँ और किस मद से नपाप अकबरपुर को मिला?
अकबरपुर नपाप में नए परिसीमन के पश्चात् तीन दर्जन से अधिक राजस्व गाँव शामिल हुए जिनमें चन्द्र प्रकाश वर्मा की जाति के लोगों की बहुलता बताई जाती है, ऊपर से अकबरपुर विधान सभा क्षेत्र के विधायक सूबे की सपा सरकार में राज्यमंत्री राममूर्ति वर्मा का वरदहस्त नपाप अध्यक्ष के प्रभाव में इजाफा कर रहा है ऐसा उपेक्षित क्षेत्र के नगरजनों का कहना है। कुछ भी हो नगरवासियों को नगरीय सुविधाओं की दरकार है और इन्हें मुहैय्या कराना नपाप अध्यक्ष/सभासदों की जिम्मेदारी है, लेकिन अकबरपुर के वाशिन्दों को अभी तक निराशा ही हाथ लगी है। साफ-सफाई, पेयजल, पथ प्रकाश के बारे में यदि लिखा जाए तो उसमें भी अकबरपुर नपाप दो आँखों से देख रहा है?
1975 में अकबरपुर को नगर पालिका का दर्जा मिला और तब से अब तक इस शहर की आबादी कई गुना बढ़ गई है, साथ ही इसके विस्तार का सिलसिला बदस्तूर जारी है। नगर पालिका का दर्जा हासिल होने के ठीक 20 वर्ष बाद इस नगर (अकबरपुर) को जिला मुख्यालयी शहर होने का गौरव प्राप्त हुआ। अकबरपुर बस स्टेशन से पुरानी तहसील तिराहे को जाने वाले मुख्य सड़क मार्ग पर फ्लाई ओवर के निर्माण से यहाँ की शहरीयत विलुप्त हो गई। जिस क्षेत्र में यह उपरिगामी सेतु बना है उसे सिविल लाइन्स कहा जाता रहा, अब वही इलाका कबाड़ सा होकर रह गया। यही नहीं नगर पालिका की कैबिनेट द्वारा उपेक्षित इस क्षेत्र के लोग अपनी रिहायशी कालोनियों से निकलकर मुख्य सड़क मार्ग पर आने से हिचकिचाते हैं।
कारण एक नहीं अनेकों है, जिनके चलते बच्चे, बूढ़े, जवान और महिलाओं को अपने ही शहर के दोनों तरफ की दुर्दशाग्रस्त पटरियों (फुटपाथ) पर पैदल चलना दूभर है। बच्चे एवं बूढ़े तथा महिलाएँ इन पटरियों पर गिरकर अनेकों बार घायल हो चुके हैं। कोई गिरकर घायल हो, उसका अंग-भंग हो या फिर परलोक गमन कर जाए, यह नगरवासियों की निजी समस्या हो सकती है, जिससे निजात पाने के लिए वह नगर पालिका परिषद के पदाधिकारियों को कोसें या मन मसोस कर घुटन भरा जीवन जीए यह वह जाने। वर्तमान नगर पालिका अध्यक्ष चन्द्रप्रकाश वर्मा से उनके प्रथम कार्यकाल में सड़क पटरियों के निर्माण के लिए पूँछा गया था, उन्होंने कहा कि किसी भी वार्ड के सभासदों ने बैठकों में इस पर प्रस्ताव ही नहीं दिया। 50-60 लाख रूपए का खर्चा है, यदि प्रस्ताव आता तो शासन को लिख करके धन की डिमाण्ड करते।
यह बताना जरूरी हो गया है कि अकबरपुर नपाप के अध्यक्ष पर पक्षपात का आरोप लगने लगा है। पुरानी तहसील तिराहे के उत्तर से बस स्टेशन, टाण्डा रोड मुख्य सड़क मार्ग के दोनों तरफ व्यवसाय करने वालों का कहना है कि चन्द्र प्रकाश वर्मा ने बीते नगर निकाय चुनाव के दौरान यह वादा किया था कि यदि दुबारा अध्यक्ष पद पर आसीन हुए तो अकबरपुर के रेलवे क्रासिंग, क्षेत्रीय श्री गाँधी आश्रम, बस स्टेशन, टाण्डा रोड से लेकर पटेल नगर तक मुख्य सड़क मार्ग के दोनों तरफ की पटरियों का निर्माण कार्य कराना उनकी सर्वोच्च प्राथमिकता होगी। नगर पालिका का चुनाव सम्पन्न हो गया और वह पुनः अध्यक्ष पद पर आसीन भी हो गए, लेकिन अपना वादा पूरा नहीं कर सके। उनके इस झूठे वादे से उक्त क्षेत्रों के निवासियों में व्यापक रूप से असंतोष देखा जाने लगा। एक कथाकार/व्यंग्यकार कहते हैं कि अब इस शहर में रहने लायक नहीं है।
क्यों? का उत्तर था कि अकबरपुर शहर की मुख्य सड़क पर चलने में उन्हें कई बातों का भय सताता है। पहला यदि सड़क की पटरियों पर चला जाए तो ऊबड़-खाबड़ फुटपाथ के साथ पटरियों पर टैक्सी-टैम्पो, दुकानों के सामने मोटर-मोटर बाइक बेतरतीब खडे़ हैं, ऊपर से अतिक्रमणकर्ता ठेले वाले यमदूत से जमंे रहते है। गिर गए तो धूल, कीचड़ के साथ-साथ फुटपाथ पर यत्र-तत्र-सर्वत्र जमंे ईंटें माथा फोड़कर ‘कोमा’ में पहुँचा देंगी। रही बात पतली सड़क की तो उस पर से गुजर जाएँगे तो कुचला शरीर पहचान में नहीं आएगा। साथ ही आत्मा परमात्मा में मिल जाएगी। तब गलियों से चलिए के उत्तर में उनका कहना है कि शोहदों और कुत्तों से कैसे बचा जाए? साथ ही आबादी में आवारा और तबेलों से निकले मवेशियों (सांड़, गाय, भैंस) की कुलाँचे पोस्टमार्टम हाउस तक पहुँचाने में अपना विशेष योगदान देंगी। मीडिया से कुछ भी छिपा नहीं है। शोहदों के लिए ‘मजनूँ पिंजड़ा’, कुत्तों के काटने पर ए.आर.वी., आवारा जानवरों, पालतू मवेशियों के छुट्टा घूमने पर पाबन्दी के लिए ‘काँजी हाउस’ की आवश्यकता है, लेकिन ये सब यहाँ के परिप्रेक्ष्य में स्वप्न की बातें हैं। इसके अलावा अकबरपुर शहरवासियों का आरोप है कि प्रभावशाली और स्वजातीय लोगों की दुकानों/घरों और सहन पर सम्बन्द्दित सभासदों के मद से टाइल्स ब्रिक लगवाई गई है। टाण्डा रोड के पटेलनगर तिराहे पर अध्यक्ष के स्वजातीयों की बहुलता है, इसलिए उक्त स्थान को आकर्षक बनवाया गया है। यह नहीं मालूम कि इसमें खर्च धन कहाँ और किस मद से नपाप अकबरपुर को मिला?
अकबरपुर नपाप में नए परिसीमन के पश्चात् तीन दर्जन से अधिक राजस्व गाँव शामिल हुए जिनमें चन्द्र प्रकाश वर्मा की जाति के लोगों की बहुलता बताई जाती है, ऊपर से अकबरपुर विधान सभा क्षेत्र के विधायक सूबे की सपा सरकार में राज्यमंत्री राममूर्ति वर्मा का वरदहस्त नपाप अध्यक्ष के प्रभाव में इजाफा कर रहा है ऐसा उपेक्षित क्षेत्र के नगरजनों का कहना है। कुछ भी हो नगरवासियों को नगरीय सुविधाओं की दरकार है और इन्हें मुहैय्या कराना नपाप अध्यक्ष/सभासदों की जिम्मेदारी है, लेकिन अकबरपुर के वाशिन्दों को अभी तक निराशा ही हाथ लगी है। साफ-सफाई, पेयजल, पथ प्रकाश के बारे में यदि लिखा जाए तो उसमें भी अकबरपुर नपाप दो आँखों से देख रहा है?
वजीर-वजीर... जी... हुजूर.. आओ गरीबी गरीबी खेलें
नई दिल्ली। देश के सरकारी सफेद वाले कागजों से लेकर चांदी सी चमकती दीवारों पर लिखे बलन्द नारे गरीबी हटाओं को भजते-पढ़ते और नौकरशाह से नेता तक को गरीबी-गरीबी खेलते 65 साल गुजर गये। इस दौर-दौरे में आबादी बढ़ी, आमदनी बढ़ी, महंगाई बढ़ी, कर्ज बढ़ा, घोटाले-घपले बढ़े, कारपोरेट घरानों, राजनेताओं और नौकरशाहों की दौलत बढ़ी, मध्यवर्गीय अमीर बढ़े और गरीबी की रेखा के नीचे जीने वालों की संख्या पहुंच गई 1947 की जनसंख्या के आंकड़े 37 करोड़ के बराबर। गांवों में 60 फीसदी लोग 35 रूपये, तो शहरों में 10 फीसदी लोग 20 रूपये रोज पर गुजर करने वाले सरकारी रजिस्टर में दर्ज हैं। वह भी तब जब देश में पिछले बरस अकेले गेहूं की पैदावार 317 लाख टन हुई थी और इस साल 235 लाख टन संभावित है। दूध, दाल और जूट के उत्पादन में दुनियाभर में अव्वल है, भारत।
हकीकत का बही खाता बताता है कि बरफ का गोला बेचने वाला सुदूर गांवों में मोबाइल के टाॅपअप बेचने से बैटरी चार्ज करने के धंधे में लगा है। पांच रूपये की गोरा बनाने वाली ‘फेयर एण्ड लवली’ क्रीम व एक रूपये का शैम्पू पाउच ग्रामीण व शहरी गरीब धड़ल्ले से खरीद रहे हैं। छोटा पैक मैगी से लेकर चाऊमीन तक उन गांवों में बिक रहे हैं जिनका नाम भी देश के वित्तमंत्री और योजना आयोग के उपाध्यक्ष ने नहीं सुना होगा। बिजली, मोबाइल टाॅवर से लेकर केबिल/डिश नेटवर्क का जाल बैटरियों, जेनरेटर, इन्वर्टरों के सहारे लगातार अपने पांव पसारता जा रहा है। एकदम ताजा उदाहरण उप्र के इलाहाबाद में पचास दिनों के कंुभ मेले में जहां सरकार ने 16 हजार करोड़ खर्च किये वहीं मेले में आए 10 करोड़ लोगों के एक लाख करोड़ से अधिक खर्च करने का अनुमान है। इसी तरह बीती महाशिवरात्रि में आस्था के नाम पर करोड़ों लीटर दूद्द गटर में बहा दिया गया।
मनरेगा की मजदूरी में लाख घपले हों लेकिन आम श्रमिक की आमदनी में खासा इजाफा हुआ है। गांवों से आज भी शहरों में आकर और विदेश (गल्फ) जाकर कमाने वालों का रेला कम नहीं हुआ है। ग्रामीण इलाकों की झोपड़ी और बाजार नये बदलाव से रौशन हो रहे हैं। नाई से लेकर कसाई, दर्जी से लेकर जूता गांठने वाले तक हाईटेक और ब्रांडेड के नशे में गाफिल हैं। करोड़ांे की आबादी दोहरे राशनकार्ड, वोटर कार्ड और दो पत्नियों के सुख में मस्त हैं। मगर उनके घरों में शौचालय नहीं, पीने का शुद्ध पानी नहीं है और गांव/मोहल्ले में अस्पताल, स्कूल नहीं है।
कबाब-पराठे खाकर बोतलवाले पानी से योजनाओं का गरारा करते हुए आंकड़ों की कुल्ली करने वाले ही बताते हैं कि हर साल 30 फीसदी उत्पादन बर्बाद हो जाता है, किसानों को अपनी कमाई का अधिकतम 23 फीसदी ही मिलता है। 80 फीसदी किसान भारी कर्ज में डूबा है तो 60 फीसदी कर्ज न चुका पाने के चलते आत्महत्या कर लेते हैं। कर्जमाफी घोटाले के बाद इस साल के बजट में किसानों को 7 लाख करोड़ का कर्ज देने का इंतजाम किया गया है। वहीं देशभर के 172 बड़े घराने बैंकों की 37 हजार करोड़ से अद्दिक की रकम दबाए बैठे हैं। कुल आबादी का सत्तर फीसदी रोजमर्रा की जरूरतों का मोहताज है। उसके लिए दवाई, सफाई, पढ़ाई और सुरक्षा के नाम पर योजनाओं का ठेंगा, वहीं देश में 10 लाख करोड़ रूपया महज 55 अरबपतियों के पास है। इन्हीं के सात हजार दो सौ पच्चानबे भाई बंदों पर सरकारी बैंकों का 68262 करोड़ रूपया बकाया हैं। यह रकम मनरेगा पर खर्च होने वाली राशि से दोगुनी और पौने चार करोड़ किसानों को दी गयी कर्ज माफी से अधिक है। सरकार को टैक्स अदा करने वाले 3.24 करोड़ लोगों में 89 फीसदी की सालाना आमदनी 5 लाख रू0 तक है। बाकी के 11 फीसदी अमीरों/कारपोरेट्स को हर साल 5.15 लाख करोड़ रूपये से अधिक की टैक्स रियायत दी जाती है। इसे खत्म कर दिया जाये तो राजकोषीय घाटा स्वतः खत्म हो जायेगा। 55 करोड़ युवा आबादी रोजगार के मौके तलाशते हुए बुढ़ापे की ओर कदम बढ़ा रही है, तो 10 करोड़ बुजर्ग वरिष्ठ नागरिक सुविधाओं की बाट जोह रहे हैं। 48 करोड़ महिलाएं अपनी सुरक्षा, समानता और सम्पन्नता के लिए बेचैन हैं। वित्तमंत्री के मुताबिक देश में प्रति व्यक्ति आय 38,037 रू0 है। रेलमंत्रालय के आंकड़े गवाह हैं कि दो करोड़ तीस लाख लोग रोज रेलवे को 245 करोड़ की आमदनी करवाते हैं।
इससे इतर इस साल के बजट में जेब काटने और मूर्ख बनाने के इंतजाम भी बेहद मजबूत हैं। 14 हजार करोड़ रू0 से ग्रामीण क्षेत्रों में नये बैंक खोले जाएंगे। नए बैंक की हर चैथी शाखा गांव में खोली जाएगी। इसी तरह 10 हजार करोड़ रूपयों से महिलाओं के लिए अलग बैंक खोले जाएंगे। इसके मायने हैं कि सरकार जानती है कि गांवों में पैसा है। महिलाओं के पास पैसा है। देशवासियों के पास पैसा है। तभी तो उनसे पैसा निकलवाने के लिए हर छोटे से छोटे पहलू पर हाल ही में गौर किया गया है। तिस पर तुर्रेदार नारा है आत्मनिर्भर बनाने का। सरकारी आंकड़ों (2011-12) के मुताबिक देशवासी अपनी आमदनी का 31.2 फीसदी खाने-पीने पिलाने व तम्बाकू पर, 20.2 फीसदी परिवहन, संचार और सबसे कम 3 फीसदी मनोरंजन, शिक्षा व सांस्कृतिक सेवाओं पर खर्च करते हैं। इसीलिए आयकर से लेकर मनोरंजन, संचार तक में वसूली के नये फरमान जारी हो रहे हैं। रेल का किराया न बढ़ाकर आरक्षण में सरचार्ज और मालभाड़े में 5 फीसदी इजाफा कर आदमी की जेब काटी जाएगी। यही नहीं 10 हजार करोड़ खाद्य सुरक्षा के लिए देकर सरकारी सांड़ों को भ्रष्ट होने का पूरा मौका भी दे दिया गया है। केन्द्र सरकार बहुत शीघ्र सांतवें वेतन आयोग को लागू करने पर विचार कर रही है यानि आने वाल सालों में महंगाई और बढ़ेगी, कर्ज और बढ़ेगा।
मानव विकास सूचकांक में हमारा देश भले ही 186 देशों की सूची में 134वें पायदान पर हो। इस साल 542,449 करोड़ रूपए उधार लेने की सोंच बनाए है और 2011-12 के अंत में 34508 अरब डाॅलर की विदेशी उद्दारी थी। वहीं मार्च 2012 तक अमीर घरानों के चलते 2 लाख करोड़ का बैंकों का एनपीए है। इसकी वसूली वित्तमंत्री के बयानों में उलझ कर रह गई है। यहां बताते चले ंकि महंगाई की खुदरा दर 11 फीसदी के पास है फिर भी दिल्ली, मुंबई दुनिया में सबसे सस्ते शहर माने जाते हैं। राज्य सरकारों में उप्र में कन्या विद्याद्दन, बेरोजगारी भत्ता, छात्र-छात्राओं को छात्र वृत्ति, मुफ्त लैपटाॅप/टैबलेट, मिड-डे मील, किसानों को कर्ज माफी और मुफ्त साड़ी जैसी योजनाएं खुले हाथों चलाई जा रही हैं। तामिलनाडू सरकार गरीबों को दो रूपये किलो चावल से लेकर विद्यार्थियों को एक साल में तीन कमीज-पैंट, पाठ्य पुस्तकें, एक साइकिल, ट्रेन/बस का पास, दिन का भोजन व छात्रावास में रहने की मुफ्त सुविधा दे रही है। पोंगल जैसे पर्व पर एक साड़ी, एक धोती, 500 रू0 नकद व अतिरिक्त राशन भी देती है। शायद चुनावों के चलते या क्षेत्रीय दलों की सरकारों को पछाड़ने की गरज से गरीबों को केन्द्र सरकार हर महीने 1 रू0 किलो ज्वार, 2 रू0 किलो गेहूँ, 3 रू0 किलो चावल कुल पांच किलो अनाज देगी। दरअसल गलत आंकड़ों के सहारे विकास के नाम पर राजनेता, नौकरशाह और काॅरपोरेट घराने आदमी का दोहन करने के साथ विश्व के मानचित्र पर ‘भिक्षान देहि’ की आड़ में अपनी तिजोरी भरने में जी जान से लगे हैं। यही काम साद्दू -संतों और मजहबी उद्योग भी करने में आगे-आगे खड़े होकर गरीबी-गरीबी खेलने में मगन हैं। सच में गरीबी कितनी गरीब हैं, यह शोध का विषय है।
हकीकत का बही खाता बताता है कि बरफ का गोला बेचने वाला सुदूर गांवों में मोबाइल के टाॅपअप बेचने से बैटरी चार्ज करने के धंधे में लगा है। पांच रूपये की गोरा बनाने वाली ‘फेयर एण्ड लवली’ क्रीम व एक रूपये का शैम्पू पाउच ग्रामीण व शहरी गरीब धड़ल्ले से खरीद रहे हैं। छोटा पैक मैगी से लेकर चाऊमीन तक उन गांवों में बिक रहे हैं जिनका नाम भी देश के वित्तमंत्री और योजना आयोग के उपाध्यक्ष ने नहीं सुना होगा। बिजली, मोबाइल टाॅवर से लेकर केबिल/डिश नेटवर्क का जाल बैटरियों, जेनरेटर, इन्वर्टरों के सहारे लगातार अपने पांव पसारता जा रहा है। एकदम ताजा उदाहरण उप्र के इलाहाबाद में पचास दिनों के कंुभ मेले में जहां सरकार ने 16 हजार करोड़ खर्च किये वहीं मेले में आए 10 करोड़ लोगों के एक लाख करोड़ से अधिक खर्च करने का अनुमान है। इसी तरह बीती महाशिवरात्रि में आस्था के नाम पर करोड़ों लीटर दूद्द गटर में बहा दिया गया।
मनरेगा की मजदूरी में लाख घपले हों लेकिन आम श्रमिक की आमदनी में खासा इजाफा हुआ है। गांवों से आज भी शहरों में आकर और विदेश (गल्फ) जाकर कमाने वालों का रेला कम नहीं हुआ है। ग्रामीण इलाकों की झोपड़ी और बाजार नये बदलाव से रौशन हो रहे हैं। नाई से लेकर कसाई, दर्जी से लेकर जूता गांठने वाले तक हाईटेक और ब्रांडेड के नशे में गाफिल हैं। करोड़ांे की आबादी दोहरे राशनकार्ड, वोटर कार्ड और दो पत्नियों के सुख में मस्त हैं। मगर उनके घरों में शौचालय नहीं, पीने का शुद्ध पानी नहीं है और गांव/मोहल्ले में अस्पताल, स्कूल नहीं है।
कबाब-पराठे खाकर बोतलवाले पानी से योजनाओं का गरारा करते हुए आंकड़ों की कुल्ली करने वाले ही बताते हैं कि हर साल 30 फीसदी उत्पादन बर्बाद हो जाता है, किसानों को अपनी कमाई का अधिकतम 23 फीसदी ही मिलता है। 80 फीसदी किसान भारी कर्ज में डूबा है तो 60 फीसदी कर्ज न चुका पाने के चलते आत्महत्या कर लेते हैं। कर्जमाफी घोटाले के बाद इस साल के बजट में किसानों को 7 लाख करोड़ का कर्ज देने का इंतजाम किया गया है। वहीं देशभर के 172 बड़े घराने बैंकों की 37 हजार करोड़ से अद्दिक की रकम दबाए बैठे हैं। कुल आबादी का सत्तर फीसदी रोजमर्रा की जरूरतों का मोहताज है। उसके लिए दवाई, सफाई, पढ़ाई और सुरक्षा के नाम पर योजनाओं का ठेंगा, वहीं देश में 10 लाख करोड़ रूपया महज 55 अरबपतियों के पास है। इन्हीं के सात हजार दो सौ पच्चानबे भाई बंदों पर सरकारी बैंकों का 68262 करोड़ रूपया बकाया हैं। यह रकम मनरेगा पर खर्च होने वाली राशि से दोगुनी और पौने चार करोड़ किसानों को दी गयी कर्ज माफी से अधिक है। सरकार को टैक्स अदा करने वाले 3.24 करोड़ लोगों में 89 फीसदी की सालाना आमदनी 5 लाख रू0 तक है। बाकी के 11 फीसदी अमीरों/कारपोरेट्स को हर साल 5.15 लाख करोड़ रूपये से अधिक की टैक्स रियायत दी जाती है। इसे खत्म कर दिया जाये तो राजकोषीय घाटा स्वतः खत्म हो जायेगा। 55 करोड़ युवा आबादी रोजगार के मौके तलाशते हुए बुढ़ापे की ओर कदम बढ़ा रही है, तो 10 करोड़ बुजर्ग वरिष्ठ नागरिक सुविधाओं की बाट जोह रहे हैं। 48 करोड़ महिलाएं अपनी सुरक्षा, समानता और सम्पन्नता के लिए बेचैन हैं। वित्तमंत्री के मुताबिक देश में प्रति व्यक्ति आय 38,037 रू0 है। रेलमंत्रालय के आंकड़े गवाह हैं कि दो करोड़ तीस लाख लोग रोज रेलवे को 245 करोड़ की आमदनी करवाते हैं।
इससे इतर इस साल के बजट में जेब काटने और मूर्ख बनाने के इंतजाम भी बेहद मजबूत हैं। 14 हजार करोड़ रू0 से ग्रामीण क्षेत्रों में नये बैंक खोले जाएंगे। नए बैंक की हर चैथी शाखा गांव में खोली जाएगी। इसी तरह 10 हजार करोड़ रूपयों से महिलाओं के लिए अलग बैंक खोले जाएंगे। इसके मायने हैं कि सरकार जानती है कि गांवों में पैसा है। महिलाओं के पास पैसा है। देशवासियों के पास पैसा है। तभी तो उनसे पैसा निकलवाने के लिए हर छोटे से छोटे पहलू पर हाल ही में गौर किया गया है। तिस पर तुर्रेदार नारा है आत्मनिर्भर बनाने का। सरकारी आंकड़ों (2011-12) के मुताबिक देशवासी अपनी आमदनी का 31.2 फीसदी खाने-पीने पिलाने व तम्बाकू पर, 20.2 फीसदी परिवहन, संचार और सबसे कम 3 फीसदी मनोरंजन, शिक्षा व सांस्कृतिक सेवाओं पर खर्च करते हैं। इसीलिए आयकर से लेकर मनोरंजन, संचार तक में वसूली के नये फरमान जारी हो रहे हैं। रेल का किराया न बढ़ाकर आरक्षण में सरचार्ज और मालभाड़े में 5 फीसदी इजाफा कर आदमी की जेब काटी जाएगी। यही नहीं 10 हजार करोड़ खाद्य सुरक्षा के लिए देकर सरकारी सांड़ों को भ्रष्ट होने का पूरा मौका भी दे दिया गया है। केन्द्र सरकार बहुत शीघ्र सांतवें वेतन आयोग को लागू करने पर विचार कर रही है यानि आने वाल सालों में महंगाई और बढ़ेगी, कर्ज और बढ़ेगा।
मानव विकास सूचकांक में हमारा देश भले ही 186 देशों की सूची में 134वें पायदान पर हो। इस साल 542,449 करोड़ रूपए उधार लेने की सोंच बनाए है और 2011-12 के अंत में 34508 अरब डाॅलर की विदेशी उद्दारी थी। वहीं मार्च 2012 तक अमीर घरानों के चलते 2 लाख करोड़ का बैंकों का एनपीए है। इसकी वसूली वित्तमंत्री के बयानों में उलझ कर रह गई है। यहां बताते चले ंकि महंगाई की खुदरा दर 11 फीसदी के पास है फिर भी दिल्ली, मुंबई दुनिया में सबसे सस्ते शहर माने जाते हैं। राज्य सरकारों में उप्र में कन्या विद्याद्दन, बेरोजगारी भत्ता, छात्र-छात्राओं को छात्र वृत्ति, मुफ्त लैपटाॅप/टैबलेट, मिड-डे मील, किसानों को कर्ज माफी और मुफ्त साड़ी जैसी योजनाएं खुले हाथों चलाई जा रही हैं। तामिलनाडू सरकार गरीबों को दो रूपये किलो चावल से लेकर विद्यार्थियों को एक साल में तीन कमीज-पैंट, पाठ्य पुस्तकें, एक साइकिल, ट्रेन/बस का पास, दिन का भोजन व छात्रावास में रहने की मुफ्त सुविधा दे रही है। पोंगल जैसे पर्व पर एक साड़ी, एक धोती, 500 रू0 नकद व अतिरिक्त राशन भी देती है। शायद चुनावों के चलते या क्षेत्रीय दलों की सरकारों को पछाड़ने की गरज से गरीबों को केन्द्र सरकार हर महीने 1 रू0 किलो ज्वार, 2 रू0 किलो गेहूँ, 3 रू0 किलो चावल कुल पांच किलो अनाज देगी। दरअसल गलत आंकड़ों के सहारे विकास के नाम पर राजनेता, नौकरशाह और काॅरपोरेट घराने आदमी का दोहन करने के साथ विश्व के मानचित्र पर ‘भिक्षान देहि’ की आड़ में अपनी तिजोरी भरने में जी जान से लगे हैं। यही काम साद्दू -संतों और मजहबी उद्योग भी करने में आगे-आगे खड़े होकर गरीबी-गरीबी खेलने में मगन हैं। सच में गरीबी कितनी गरीब हैं, यह शोध का विषय है।
भू-स्वर्ग के नक्शे में दर्ज है राम राज्य का संविधान
धूप ने करवट क्या बदली, सियासत से समाजवाद तलक का मिजाज गरम हो गया। अक्षर अँगार तो भाईचारा भयंकर। अपराध की दहशत के साथ महंगाई भी हमलावर। तिस पर मनोरंजन के नाम पर टेलीविजन ठप और गुटखे पर पाबंदी से नशा हिरन। ऐसे में कलम से निकलती नीली-नारंगी किरणें कौन सा विस्फोट कर देंगी? मैं इसी जगह, इसी कागज के टुकड़े ‘प्रियंका’ में लिखता रहा हूँ, ‘रावण के पुतले को जलते हुए देखकर ताली बजाने वाले हिजड़ों की जमात में शामिल होकर हिंसा का उत्सव मनाने भर से कोई बदलाव नहीं होने वाला और न ही ‘या देवी सर्वभूतेषु मातृ रूपेण...’ के सस्वर पाठ से नारी अस्मिता की रक्षा होने वाली है।’
समुद्र मंथन की तरह समाज मंथन की भी अलख जगानी होगी। ‘लक्ष्मी’ की जगह माँ को, केवल माँ को प्रणाम करने का संकल्प लेना होगा। नवसंवत् 2070 के स्वागत के साथ माँ दुर्गा के नौ रूपों का पूजन और प्रभुश्रीराम का जन्मदिवस मनाते हुए आत्ममंथन करना होगा। समुद्र मंथन से ही संवत्सर की उत्पत्ति हुई है- समुद्रादर्णवादधि संवत्सरों अजायत। समाज मंथन से ही भू-स्वर्ग का नक्शा हासिल होगा। इसी नक्शे में दर्ज होगा राम राज्य का संविधान और सृष्टि की रचनाकार मां का दुलार भी। नवसंवत् 2070 ‘पराभव’ के राजा बहृस्पति व मंत्री शनि का अभिनन्दन तभी सार्थक होगा, जब नारी के सम्मान को ठेस नहीं लगेगी। अपराध, अधर्म और अशिष्टता को छूत की बीमारी माना, जाना जाएगा। परिवार की पाठशाला में एकल परमाणु ऊर्जा (न्यूक्लीयर फेमिली) या सेक्स सर्कस के पाठ्यक्रमों की जगह जीवन के सत्य से साक्षात्कार कराने वाले आचरण को शामिल करना होगा। पाखण्ड और पश्चिम के प्रेम से पैदा होने वाले बाजार की चकाचैंध से अपनी पीढ़ी को सचेत करना होगा, तभी तो नई पीढ़ी को माँ का आंचल नसीब होगा।
क़लम है मेरी मां का नाम..... बड़ी बुलंद आवाज में बार-बार दोहराते हुए ‘प्रियंका’ 34वें बरस में दाखिल हो चुकी है। इस दौर-दौरे में झूठ-मूठ के गीत गाने से जहां परहेज बरता गया, वहीं दाल-भात की लड़ाई लड़ने वालों के साथ सुर में सुर मिला कर खबरों के विस्फोट सत्ता के महलों में किये गये। यही वजह रही कि दक्षिण भारत के कई क्षेत्रों में ‘प्रियंका’ को भरपूर दुलार मिला, तो कई जगहों पर पाठकों/संवाददाताओं ने मिल बांट कर पढ़ा, लोकापर्ण किया और प्रसार-प्रचार में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। मजा तो यह रहा कि पूरे बरस भर राजनीति के कटरे से नदारद रही ‘प्रियंका’। कहीं से कोई शिकायत नहीं आई उल्टे पाठकों की संख्या में इजाफा हुआ। बावजूद इसके ‘चीथड़े’ की संज्ञा से भी सामना होता रहा। किसी ने नाम नहीं सुना, तो कोई स्वर्गीय राजीव गांद्दी की बिटिया से नाता जोड़ने की गफलत में रहा। इससे कोई घबराहट या शर्मिन्दगी नहीं हुई। हां, खबर लिखने, अखबार बेचने के लिए जिस इरादे की जरूरत थी उससे तनिक भी पीछे हटने की कोशिश नहीं की, क्योंकि पाठकों ने, विज्ञापनदाताओं ने और जिलों, शहरों, कस्बों में बैठे ‘प्रियंका’ के संवाददाताओं ने कभी इस ओर सोंचने का मौका ही नहीं दिया। गुरूजनों और पाठकों के आशीर्वाद से चैंतीस बरस के बालिग समाचार पाक्षिक का ‘वार्षिंकांक-2013’ आदमी की पैरोकारी का हलफनामा दाखिल कर रहा है।
सियासत की हकीकत बयान करते हैं ‘लखनऊ में पिटा एक मुख्यमंत्री, ‘गरीबी-गरीबी खेलें, ‘सपा का हीरामन। उत्सवप्रियता और आस्था के दर्शन ‘रामकथा,’ ‘कुंभकरण के बेटे’, ‘रावण की लाश’, ‘गोबर के लड्डू का चढ़ावा’, ‘एक मेला था छैल-छबीला’, ‘मां दुर्गा पूजन’ में होंगे। ‘आधी सड़क’ पर पसरी नंगी हकीकत से सामना होगा, तो ‘हिन्दी के स्वर्णाक्षर ‘सुधा’, हिन्दी के पुरखों की पत्रकारिता को उजागर करने के साथ हिन्दू-मुसलमान खांचे के निर्माण के सच से सामना भी कराएंगे। हिन्दी पत्रकारिता, हिन्दी साहित्य और हिन्दी के समाचारों का वह दौर सच में हिन्दी का स्वर्णयुग था। और अन्त में केदार नाथ सिंह की यह लाइने -
मैं पूरी ताकत के साथ
शब्दों को फंेकना चाहता हूँ
आदमी की तरफ
यह जानते हुए कि आदमी का
कुछ नहीं होगा
मैं भी सड़क पर सुनना चाहता हूँ
वह धमाका
जो शब्द और आदमी की टक्कर से
पैदा होता है
यह जानते हुए कि लिखने से
कुछ नहीं होगा
मैं लिखना चाहता हूँ
प्रियंका की आवाज हुई बुलंद
लखनऊ। आपके अखबार ने साल भर पहले लिख था ‘भारतवासी फेंक देते हैं 883.3 करोड़ किलो जूठन’ (देखें ‘प्रियंका’ 1 मार्च, 2012’ का अंक) जिससे 35 करोड़ गरीब भारतीयों का पेट पूरे साल भर तक भरा जा सकता हैं। इस खबर में तमाम आंकड़े भी दिये गये थे। भुखमरी कुपोषण की असलितयत के साथ शिवरात्रि पर्व में की जानेवाली दूध की बर्बादी का खुलासा भी किया गया था। इस खबर को हिन्दी साप्ताहिक ‘ब्लिट्ज’ के पूर्व संपादक व ‘नूतन सवेरा’ के संपादक श्री नन्द किशोर नौटियाल ने सबसे पहले सराहा और ‘प्रियंका’ के पाठकों ने भी मुक्तकंठ सराहना की थी। आज इसी को सिनेमा से लेकर दुनिया के बड़े संगठन उठा रहे हैं, अभियान चला रहे हैं।
इस सामाजिक भ्रष्टाचार के मुखालिफ ‘प्रियंका’ की आवाज से आवाज मिलाते हुए कलई खोली है संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनइपी), खाद्य एवं कृषि संगठन (एफओए) व वेस्ट एंड रिसोर्स एक्शन प्रोग्राम (डब्ल्यूआरएपी) ने, इन संगठनों ने एक साथ मिलकर खाद्यान्न बचाने की वैश्विक पहल की है। इनकी पिछले महीने आई रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया में हर साल 1.3 अरब टन खाद्य पदार्थ बर्बाद हो जाता है। इसे मामूली उपयों से बचाकर दुनिया के करोड़ों भूखों का पेट भरा जा सकता है। ‘प्रियंका’ के अनुमान से कहीं अधिक 11 किलो खाद्य प्रति व्यक्ति बर्बाद होता है, भारत समेत एशियाई देशों में और विकसित देशों में यही आंकड़ा 115 किलो हैं।
‘प्रियंका’ और भी गदगद है कि 2013 के इस्तकबाल के समय उप्र के सर्वाधिक पिछडे़ इलाके सोनभद्र जिले के ऊर्जा उत्पादन क्षेत्र ओबरा में 17 जनवरी को हुए पत्रकारों के लघु कम्भ में ‘प्रियंका के हस्ताक्षर-2013’ अंक का लोकार्पण स्थानीय पत्रकारों ने कराया। इससे भी आगे बढ़कर पाठकों में अंक प्राप्ति की होड़ लगी रही। यह तब हुआ जब ‘प्रियंका’ के लखनऊ मुख्यालय से संपादक/प्रकाशक या अन्य कोई भी उस समारोह में मौजूद नहीं था। इस उद्य़म और मेहनत का पूरा श्रेय वाराणसी मण्डल ब्यूरों व उसके संवाददाताओं को ही है। धन्यवाद!
इस सामाजिक भ्रष्टाचार के मुखालिफ ‘प्रियंका’ की आवाज से आवाज मिलाते हुए कलई खोली है संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनइपी), खाद्य एवं कृषि संगठन (एफओए) व वेस्ट एंड रिसोर्स एक्शन प्रोग्राम (डब्ल्यूआरएपी) ने, इन संगठनों ने एक साथ मिलकर खाद्यान्न बचाने की वैश्विक पहल की है। इनकी पिछले महीने आई रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया में हर साल 1.3 अरब टन खाद्य पदार्थ बर्बाद हो जाता है। इसे मामूली उपयों से बचाकर दुनिया के करोड़ों भूखों का पेट भरा जा सकता है। ‘प्रियंका’ के अनुमान से कहीं अधिक 11 किलो खाद्य प्रति व्यक्ति बर्बाद होता है, भारत समेत एशियाई देशों में और विकसित देशों में यही आंकड़ा 115 किलो हैं।
‘प्रियंका’ और भी गदगद है कि 2013 के इस्तकबाल के समय उप्र के सर्वाधिक पिछडे़ इलाके सोनभद्र जिले के ऊर्जा उत्पादन क्षेत्र ओबरा में 17 जनवरी को हुए पत्रकारों के लघु कम्भ में ‘प्रियंका के हस्ताक्षर-2013’ अंक का लोकार्पण स्थानीय पत्रकारों ने कराया। इससे भी आगे बढ़कर पाठकों में अंक प्राप्ति की होड़ लगी रही। यह तब हुआ जब ‘प्रियंका’ के लखनऊ मुख्यालय से संपादक/प्रकाशक या अन्य कोई भी उस समारोह में मौजूद नहीं था। इस उद्य़म और मेहनत का पूरा श्रेय वाराणसी मण्डल ब्यूरों व उसके संवाददाताओं को ही है। धन्यवाद!
न मुलायम, न सख्त सपा का हीरामन
लखनऊ। ‘टीपू सुल्तान’ जिन्दाबाद की गंूज में मगन सूबे की समाजवादी सरकार अपनी उपलब्धियों का ढोल खूब ऊँची आवाज में बजाने में मस्त है। यही वजह है कि जरूरतमंदों और भूखे-नंगों की आवाज नौजवान मुख्यमंत्री तक नहीं पहुंच पा रही। यह सच है कि सरकार के युवा मुखिया अखिलेश यादव की छवि जो जनता के बीच बनी है वह निश्छल, ईमानदार और उत्साही आदमी की है। वे करना बहुत कुछ चाहते हैं, पर बेलगाम चाचाओं की फौज और बेअदब नौकरशाहों की अनुशासनहीनता का अंगदी पांव उनके आड़े आ जाता है। वे मीलों साइकिल चला कर मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे हैं, तो महज सुस्ताने के लिए नहीं। उनके मन मंे गरीबों, पीडि़तों और शोषितों के लिए बहुत दर्द है, लेकिन वे उनके लिए कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं। वे प्रशासन को चुस्त बनाना चाहते हैं, पर सचिवालय में उनके आदेशों का पालन नहीं होता। उनकी घोषणाओं और चेतावनियों पर कोई ध्यान नहीं देता। तिस पर जब-तब सपा मुखिया की हड़क-दड़क। यही है साइकिल पर सवार उप्र की ठहाके लगाती सरकार का सच।
मुख्यमंत्री की दयनीय हालत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उन्हें अपनी सरकार की सालगिरह के जश्न के बाद भी कहना पड़ रहा है कि अफसर सुधर जायें..., अब सख्ती होगी, प्रदेश में थानों की दशा देखकर बाहर से ही डर लगने लगता है... इनमें सुधार किया जाएगा। यह कानून और व्यवस्था से जलते सूबे के लिए आग में घी डालने जैसा है। वह भी तब जब सरकार ने विधानसभा सदन के भीतर माना है कि सूबे में अपराध बढ़े हैं। अकेले 642 बलात्कार के मामले साल भर में हुए हैं। इन बलात्कार पीडि़तों के आँसूं पोंछने के लिए सरकार ने कुछ भी नहीं किया। जबकि विधानसभा चुनावों के दौरान सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव ने सिद्धार्थनगर व बाराबंकी की चुनावी सभाओं में जनता से वायदा किया था कि अगर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार बनती है तो बलात्कार पीडि़ता लड़की को सरकारी नौकरी दी जाएगी और बलात्कारी के विरूद्ध कड़ी कार्यवाही की जायेगी। तब अखबारों में इसे जहां प्रमुखता से छापा गया था, वहीं भारी विवाद भी हुआ था। अपनी उस घोषणा को सपा सरकार क्यों भूल गई? ऐसें में ‘वूमेन पाॅवर लाइन’ का क्या मतलब रह जाता है जब थानों में रपट लिखाने गई युवती/महिला को सुरक्षा देने की जगह थानेदार थप्पड़ मारकर भगा देता है? यही नहीं जिन पर सरकार चलाने की जिम्मेदारी है वे अपने निजी आर्थिक फायदे के लिए, जमीन के छोटे से टुकड़े के लिए, झूठे स्वाभिमान के लिए, धार्मिक स्थल के अपमान के नाम पर हिंसा के रास्ते पर चल पड़ते हैं। छोटी से छोटी बात को निपटाने के लिए उनमें सरकारी ताकत का बेजा इस्तेमाल करने की आदत बनती जा रही है। इसी के चलते हर तीन घंटे में पुलिस कहीं न कहीं मार खा रही है, कई पुलिसवालों की हत्याएं हो चुकी हैं। क्या युवा मुख्यमंत्री के इरादों और सोंच की इसी तरह द्दज्जियां उड़ाई जानी चाहिए?
उत्तर प्रदेश में उद्योग लगाने के लिए आमंत्रण बांटते मुख्यमंत्री उद्योगपतियों के एक सम्मेलन में आगरा पहुंचे थे। तब अखबारों में औद्योगिक इकाई लगाने की उनकी महत्वाकांक्षी योजनाओं को प्रमुखता से छापा गया था, लेकिन अभी तक कोई करगर पहल नहीं हुई। वह भी तब जब सरकार 10729 करोड़ की रकम औद्योगिक विकास के नाम पर तय कर चुकी है। ‘आईटी हब’ की घोषणा के बाद बेहद धीमी गति से उस पर अमल हो रहा है। नौकरशाहों की काहिली का ही नतीजा है कि गए साल के बजट का आधा हिस्सा भी अधिकतर विभागों में खर्च नहीं किया गया। इतना ही नहीं कर वसूलने में भी कोताही बरती। सरकार और उसके कत्र्ताधर्ता आये दिन केन्द्र सरकर पर राज्य को पैसा न देने व बढ़ती महंगाई के लिए उस पर आरोप लगाते रहते हैं। हकीकत इसके बिल्कुल उलट है। अफसरों के घुमा फिराकर दिये गये जवाब विधानसभा की कार्यवाही में मौजूद हैं। जवाहरलाल नेहरू रोजगार योजना और मनरेगा का क्रियान्वयन कलई खोलने के लिए काफी है। रही महंगाई बढ़ने की बात तो बेशक केन्द्र की नीतियां इसके लिए जिम्मेदार हैं, लेकिन राज्य सरकार ने बढ़ती महंगाई पर काबू पाने के लिए कौन से कदम उठाए? जबकि नियोजन विभाग के अर्थ एवं संख्या प्रभाग की ताजा रिपोर्ट बताती है कि रोजमर्रा के इस्तेमाल वाली वस्तुओं के दामों में 10 से 50 फीसदी तक इजाफा हुआ है। आज हालात इतने बदतर हैं कि सूबे में पैदा होते ही बच्चा 10988 रू0 का कर्जदार हो जाता है। यह कर्ज और बढ़ेगा नहीं इसकी क्या गारंटी हैै? जब बजट के आंकड़ें ही बता रहे हैं कि अब तक 219304 करोड़ रूपए का कर्ज बढ़कर इस साल 239878.35 करोड़ रूपये हो जाएगा। बिजली के मद में 32 हजार करोड़ रूपए से अधिक की देनदारी है। इसके लिए केन्द्र की वित्तीय पुनर्गठन योजना लागू करने की मशक्कत जारी है। इससे आम उपभोक्ता को झटका भर नहीं लगेगा बल्कि वह मरणासन्न हो जाएगा। यही नहीं सूबे के 26 जिला मार्गाें को डबल लेन करने के लिए एशियन डेवलपमेन्ट बैंक ने 2200 करोड़ रूपया कर्ज दिया है। कर्ज के बोझ से दबे सूबे के वाशिन्दे जीने मरने के लिए तड़प रहे हैं। सरकारी अस्पतालों में रक्त समेत तमाम जांचे काफी महंगी हो गई हैं। वह भी तब जब रोगियों को आयुष डाॅक्टरों की गुंडई, उचित इलाज व दवा का अभाव झेलना पड़ता है। यही हाल कूड़ा प्रबंधन को लेकर है, सामान्यजन पैसा देने के बाद गंदगी और सफाईकर्मियों की बदतमीजी से बेहद परेशान है। सरकारी खजाना भरने के चक्कर में जगह-जगह शराब की दुकाने खोलने के साथ आधुनिक ‘शाॅर्पिंग माॅल’ मे ंभी शराब बेचने की इजाजत दे दी गई।
मुख्यमंत्री निश्चित ही तेजतर्रार, लगनशील और मेहनती हैं। वे सुबह से देर रात तक बिना थके मेहनत करते हैं। उनकी सरलता का दुरूपयोग 80 फीसदी अफसर से लेकर मंत्री तक कर रहे हैं। उनकी सज्जनता के चलते ही सूबे में प्रजातंत्र की बहाली से लेकर विपक्ष के ऊँचे स्वर सुनाई देते हैं। तभी तो भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता आरोप लगाते हैं कि सूबे की सभी योजनाओं में मुस्लिमपरस्ती के साथ घोटालों का बोलबाला है। आरटीआई से हासिल जानकारी के आधार पर उनका दावा है कि राज्य सरकार ने अपने शुरूआती 8 महीनों में साढ़े आठ करोड़ रूपए बेरोजगारी भत्ते में बांटे और इसे बांटने के आयोजनों पर साढ़े बारह करोड़ खर्च किया। इसी तरह राजधानी लखनऊ में बांटे गए 10 हजार लैपटाप में अकेले 3192 शिया पीजी काॅलेज व 1569 करामत हुसैन गल्र्स काॅलेज को देकर मुस्लिम तुष्टीकरण किया गया। भाजपा प्रवक्ता का कहना है कि 26 सौ करोड़ की इस योजना में भी इसके वितरण आयोजनों पर अनाप-शनाप खर्च किया जाएगा। सरकार मुर्गी से ज्यादा मसाले पर खर्च कर रही हैं?
विपक्ष का आरोप है कि सरकार का पूरा साल नाकामियों से भरा रहा है। मुख्य विपक्षी दल बसपा के वजनदार नेता नसीमुद्दीन कहते हैं, सरकार साढ़े चार सीएम चला रहे हैं। वहीं कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं कि मुझे तो समाजवादी पार्टी के हीरमन है सरकार की विफलताओं को जनता को बताने के लिए लगभग समूचा विपक्ष धरना-प्रदर्शन करके वापस अपने-अपने दफ्तरांें में पंखों के नीचे बैठकर अपने व अपने भय्याजी के लोकसभा चुनाव के टिकट पर बहस करने में व्यस्त हो गया है। मुसलमान उलेमा/नेता ‘सरकार चलानी है तो मुसलमानों की मदद करनी होगी’ जैसी धमकी देकर सरकार को दबाव में लेने के हर संभव प्रयास में है। हाल के कुंडा कांड से ठाकुरों में नाराजगी है। यादव (अहीर समाज) पार्टी दफ्तर से सरकार तक अपनी पूंछ ने होने से अंदरखाने नाराज है। कुल मिलाकर सपा का एटीएम (अहीर$ठाकुर$ मुसलमान) टूटने बिखरने के कगार पर है। वहीं सपा मुखिया 2014 में लोकसभा की कुल 80 सीटों को अपनी साइकिल पर लाद लेने के लिए बेताब हैं। किसी को भी दुनिया के सर्वाद्दिक गरीबों में 8 फीसदी आबादी वाले उप्र की चिन्ता नहीं है।
मुख्यमंत्री अखिलेश को बिग-बिग थैंकयू बोलने वाले छात्र-छात्राओं की संख्या 2014 के लोकसभा चुनावों तक 41 लाख से अधिक होगी अगर सब कुछ ठीक-ठाक रहा। इन सभी को तब तक लैपटाॅप, टैबलेट मिल जाने हैं। इस महत्वाकांक्षी योजना के साथ गरीबों को कम्बल, साड़ी, कन्या विद्याधन, हमारी बेटी उसका कल को भी जोड़ लिया जाय तो यह संख्या लगभग तीन करोड़ आती है। यह संख्या लोकसभा चुनावों में वोटों में कितनी ही कम तब्दील हो तो भी 1.5 करोड़ से अधिक का आकलन समाजवादी पार्टी के खेवनहार लगा रहे हैं।
आम जनता की उम्मीदों के तारे मुख्यमंत्री साल भर में महज चार बार जन मुलाकात के लिए समय निकाल सके, बाकी के दिनों में विदेश में छुट्टी मनाने, क्रिकेट खेलने, आयोजनो-समारोहों में शिरकत करने, शहीदों के घरों पर जाने या फिर सरकारी काम-काज निपटाने में अतिव्यस्त रहे। शिक्षक सड़कों पर पिटते रहे तो स्कूलों में ‘मुन्ना भाईयों’ का बोलबाला रहा और संस्कारी मुख्यमंत्री अंकल-आंटी वाली नौकरशाही का सम्मान करते रहे। अति सज्जन, सौम्य मुख्यमंत्री 2013 के बाकी दिनों में इस सबसे उबर कर नये आशाजनक कदम उठा पाएंगे?
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