Sunday, March 24, 2013

प्रियंका  हिन्दी पाक्षिक ३ ४ सालो से लखनऊ शहर से छप रही है । देश के सभी शहरों में संवाददाताओ /रिपोर्टर्स की अवश्यकता है । संपर्क ---मोब ..९८ ३ ९ १ ९ १ ९७ ७  

Tuesday, March 12, 2013

ओबरा में पत्रकारों का लघु कुंभ


सूरज ने भी आसमान पर अपने हस्ताक्षर कर दिये
वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता।
मैं बेकरार हूँ आवाज में असर के लिए।।
यकीन मानिये सोनांचल के ऊर्जाक्षेत्र में हिन्दी पुत्रों के चमकते ललाट और दपदपाती ऊर्जा से समूचा वातावरण पर्व जैसा परिभाषित हो रहा था। माता सरस्वती जैसे साक्षात दर्शन दे रही थीं तभी तो कंठ कोकिला रचना तिवारी मां का वंदन अभिनन्दन कर जहां अभिभूत थीं, वहीं समूची पत्रकार बिरादरी एक मत, एक स्वर से अपने अस्तित्व का शंखनाद कर रही थी। एक ऐसा आयोजन, एक ऐसा पत्रकारों का समागम जो संतों के धर्म संसद की परछाईं लगता। ऐसा यज्ञ जहां कलम के पुजारियों की हवियां राज-समाज को सुगंधित करने का संकल्प ले रही थीं। मौका था पत्रकारों के ‘चाचाजी’ मिथिलेश प्रसाद द्विवेदी का पैसठवां जन्मदिन और गजब देखिए पन्द्रह दिनों की ठिठुरती सर्दी के बाद आज ही सूरज ने भी आसमान पर अपने हस्ताक्षर कर दिये थे।
    हस्ताक्षर-2013, ‘प्रियंका’ के पन्नों पर चस्पा थे। अक्षरों के हलफनामे को गुरूवर पराड़कर और गणेश के वंशजों ने लोकार्पित कर माँ सरस्वती भक्तों के लघु कुम्भ में मौजूद अपनी पूरी पीढ़ी में बांटा। सारे भारत से आये पत्रकारों के बीच पत्रकारिता संस्थान काशी विद्यापीठ के निदेशक डाॅ0 राम मोहन पाठक की ओजस्वी वाणी गूंज रही थी, देश समाज का अस्तित्व होगा तभी पत्रकारिता का अस्तित्व रहेगा। मिशन के बिना पत्रकारिता का अस्तित्व नहीं।’ बीच में ही मोबाइल फोन की घंटी ने संचार तकनीक की उपस्थिति दर्ज कराई। संयोजक कमाल अहमद ने संचालक आर.पी. उपाध्याय को फोन थमाते हुए क्षमा मांगी। फोन पर लखनऊ से संपादक ‘प्रियंका’ हिन्दी पाक्षिक राम प्रकाश वरमा ने प्रणाम, बधाई, शुभकामनाओं के साथ व्यावधान के लिए क्षमा मांगते हुए पत्रकारों के लघु कंुभ को नारद मुनि का वह संकल्प बताया जिसके चलते आज भी सूचनाओं का प्रवहमन है। फोन बंद हुआ और जलपुरूष रमेश सिंह यादव बोल उठे, ‘लेखनी में वह ताकत है जो वैश्विक क्रांति को जन्म दे सकती है।’ प्रसिद्ध तीर्थ और प्रभुश्रीराम के चरणों से पवित्र हुई। धरती चित्रकूट से आये रामपाल त्रिपाठी का कहना था कि पत्रकारिता का अस्तित्व उसके सकारात्मक मिशन से हैं। सोनघाटी के चर्चित साहित्यकार डाॅ0 अर्जुन दास केसरी का आह्वान था, ‘गांव-गिरांव में जाकर पत्रकार साहित्य और समाज के मूल्यों को जागरूक करें।’ आकाशवाणी ओबरा के कार्यक्रम अधिशासी दशरथ प्रसाद की सीख थी, ‘हमें हर हाल में पत्रकारिता के मूल्यों को संजाये रखना होगा तभी हम पत्रकारिता मिशन को जिंदा रख सकते हैं।’ भारतीय राष्ट्रीय पत्रकार महासंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष डाॅ0 भगवान प्रसाद
उपाध्याय ने आम आदमी के हितों के रक्षार्थ पत्रकार की सक्रियता पर खुली बात की, तो घोरावल क्षेत्र से विधायक रमेश दूबे ने विकास और आमजन के कल्याण की चिंता जाहिर की। विजय शंकर चतुर्वेदी ने कलमकारों को अपने कर्तव्यों के प्रति प्रतिबद्ध होने के लिए चेताया, तो शिक्षक व साहित्यकार ओम प्रकाश त्रिपाठी ग्रामीणजनों की उपेक्षा से चिंतित दिखे।
    चैंसठ वर्ष पूर्व जन्मना बालक मिथिलेश प्रसाद द्विवेदी ‘चाचाजी’ ने अपने जन्मदिवस पर भीड़ भरे पंडाल पर नजर घुमाते हुए कहा, ‘लगातार कट रहा और बंट रहा समाज ऐसे ही समागम से जुड़ा रह सकता है। हमें इसी तरह एकजुट होकर नेकनीयति से निर्भीकता से आदमी के हक में काम करना होगा।’ और कुछ बोलने से पहले चारों ओर से शुभकामनाओं का नाद, बधाई की शहनाई और फूल मालाओं के संवाद गूंज उठे। पत्रकारों के इस मेले में उल्लास और हर्ष के पुरूस्कार बांटे जाने लगे। सम्मान का तिलक हर मष्तक पर चमकने लगा। फिर तो एक ही सदा थी, तुम बिना अवरोध के बढ़ते चलो शुभकामनाएं... शुभकामनाएं

बर्फ की सिल

मेरे बगल मंे लेटी हुई औरत के बदन पर तार भी नहीं था उसके जिस्म की गर्माहट में झुलसते हुए तमाम वक्त मेरे हाथों से फिसल चुका था, आज उसका वही बदन किसी बर्फ की सिल की तरह ठंडा लग रहा था। एहसास हो रहा था, मेरे बगल में लेटी हुई ताजा हाड़-मांस की औरत नहीं बल्कि फ्रिज में जमी बर्फ पसरी पड़ी हो। मैंने कई बार प्रयत्न किया, छू कर भी देखा मगर मुझे हर बार ठंडक का आभास मिला। शरीर में कंपकपी छाने लगी।
    यह मेरे लिए असहनीय था, मैं जब कभी ऐसे रास्ते से गुजरता तो लगता कि मैंने ईश्वर के विधान में दखल दे डाला है। शायद! सरल को यह एहसास मुझसे पहले से ही था। सरल का स्वभाव बेहद सरल था। सरल में दुनियां भर की खूबियों के बावजूद, ठंडेपन की एक चादर उसके बदन पर लिपटी रहती। मुझमें इतनी ताकत कभी पैदा न हो सकी कि उस ठंड़ी चादर के नीचे की गर्माहट का एहसास कर सकूं। मुझे यह कहने में कतई हिंचक नहीं कि शायद उतने समय के लिए मुझमंे नपुंसकता समा जाती रही है।
    सरल को लेकर जीवन की तमाम मुश्किलों का सफर आसानी से तय किया था। उसकी प्रेरणां से मोहब्बत और इंसनियत की जागीर का अकेला मालिक होने का दावा कर सका। सरल ने ही तो जीने के नये रास्ते की खोज में मेरा साथ दिया। सरल ने ही तो भूखे पेट को सिर्फ दो आंसुओं से भर लेने में मदद की। सरल ने ही तो निराशा को अपने बदन की गर्माहट से जलाकर भस्म कर दिया। फिर....... फिर आज उसके बदन की गर्माहट-मौन क्यों हैं?
    क्या हुआ है मुझे कि मैं उसके बगल मंे लेटा हुआ भी उसे बर्फ की गोद से नहीं निकाल पा रहा हूं? क्यों ऐसा होता है? क्या मैं उसके अहम् को कहीं कुचल तो नहीं रहा हूं? मेरे सामने सिर्फ सवालों की कतार है, जवाब का एक जुम्ला भी नहीं।
    इन सवालों की कतार से परे मुझे अपने जीवन के पिछले क्षणों के दृश्य दिखते है। मैं और सरल, सरल और मैं! कहीं कोई ठंडापन नहीं, कोई रीतापन नहीं। जोश और उमंग के समुद्र में तैरते हुए सरल और मैं। अचानक मेरा हाथ सरल के बदन से टकरा जाता है और विचारों की दुनिया से निकलकर यथार्थ की चिकनी और सपाट सड़क पर आ खड़ा होता हूं।
    ‘सरल...सरल.....। कोई उत्तर नहीं, सिर्फ ठंडी सांसे। अभी कल की ही तो बात है, गांव से पिता जी और भइया आये थे। सरल ने उन्हें आभास तक नहीं होने दिया कि वे अपने घर में नहीं हैं। सरल ने ही सारी मेहमाननवाजी पर कब्जा कर लिया था। पिता जी और भाइया बड़े ही खुश थे। जाने से पहले भइया ने मुझसे कहा था, ‘राम मैंने तुम्हें खत भी लिखा था कि खेतों ने इस बार हमारा साथ नहीं दिया हैं, हमें दस हजार रूपयों की जरूरत हैं, मगर तुमने कोई जवाब ही नहीं दिया।’
    ‘भइया मुझे तो तुम्हारा कोई खत नहीं मिला। बहरहाल मैं अभी देता हूँ।’
    वादा करके अंदर कमरे में गया,  अल्मारी खोल कर पैसे निकाले, और जैसे ही बाहर जाने के लिया घूमा, सरल सामने खड़ी थी। उसने एक नजर उन नीले नोटों पर डाली और दूसरी मुझ पर, फिर घूमकर चली गयी। उसकी खामोश निगाह ने क्या कहा? मैं न जान सका। मैंने बाहर आकर अपने बड़े भाई को रूपये दिये। उनको विदा करने की गरज से कोठी के गेट तक आया और उनके जाने के बाद भी लान में ही बैठा रह गया। दिल्ली की खुशनुमा शाम, माहौल में गर्माहट जरूर पैदा कर रही थी, मगर नागवार नहीं गुजर रहा था। शाम को और हसीन बनाने के इरादे से सरल को आवाज दी, मगर कोई उत्तर नहीं।
    मैं समझ गया कि खामोशी अब रंग लायेगी। मैं खुद ही अंदर गया। सरल रसोई में नौकर को कुछ समझा रही थी, मेरी मौजूदगी का एहसास होते ही, खामोशी ने उसका दामन थाम लिया। मैं तो यही कहुंगा। क्योंकि सरल खमोशी का दामन नहीं थाम सकती, इतना मैं अच्छी तरह जानता हूं। उसमें चंचलता कूट-कूट कर भरी है। जब चंचल हो जाती है तो किसी शरीर बच्ची की तरह और जब चंचलता ठहर जाती है तो उसका नयारूप एक खामोश बुत की तरह होता है। वो खामोश बुत मुझे बेचैन कर देता है। मुझे अच्छी तरह याद है, जब पहली बार यह खामोश बुत हम दोनों के बीच आया था। उस समय मैं दिल्ली की सड़कों पर अपनी मंजिल की तलाश में भटक रहा था। भटकाव में मेरे अपनों ने और भी भटका दिया। निराशा और भूख ने सरल के बदन से जेवरों को उतार लिया। जेवर जो औरत को पति के बाद सबसे प्यारे होते हैं। वही जेवर सरल से जुदा हो गये, मगर सरल ने उफ तक न की। फिर वक्त कब सरक गया, पता ही नहीं चला।
    दिल्ली जैसे शहर की भीड़ में अपनी पहचान बनाना बड़ा मुश्किल था, फिर भी सरल के साथ ने मुझे दिल्ली शहर का भारी-भरकम ‘साईन बोर्ड’ बना दिया। ठीक उसी तरह जैसे रेलवे स्टेशन पर ‘पीला बोर्ड’ उस स्टेशन और शहर की पहचान कराता है। दिल्ली शहर की ऊंची सोसाइटी में ‘राम’ का नाम लेने और याद रखने वालों की संख्या काफी लम्बी हो गई। तब आया एक नया मोड़, जो पिछले छूटे हुए मोड़ों के पास निकलता था। वहां मेरे परिवार के लोग हाथ फैलाये खड़े थे। मेरे अपने खून के रिश्ते भीख मांगते हुए सड़क पर खड़े हों, यह मुझे बर्दाश्त नहीं हुआ और मैंने बिना सरल की राय के उन फैले हाथों को बन्द मुट्ठी में बदल डाला। बस उसी दिन से मेरे और सरल के बीच वह खामोश बुत आ गया। सरल ने कभी शिकायत नहीं की। कभी कुछ मांगा नहीं। मांगा तो सिर्फ अपने खाये हुए, बिगड़े हुए जेवर। जो मैं दे न सका। ऐसा नहीं कि मैं दे नहीं सकता, मगर व्यापारी होने के नाते बैंक के लाकर का खर्च और पूंजी की हत्या बर्दाश्त नहीं होती। जी कड़ा करके जैसे-तैसे एक बार पूंजी की हत्या भी कर डाली मगर ईश्वर शायद मेरी सरल को जेवरों से जगमगाता नहीं  देखना चाहता था या फिर सरल का जेवरों के प्रति अटूट मोह उसे उससे दूर ले जाना चाहता था। जो भी हो, व्यापार में घाटा उठाना पड़ा और कर्जदारों ने कोठी के गेट पर खड़े हो लाल-पीली आंखे दिखानी शुरू की, तब एक बार पुनः सरल के जेवरों के बाक्स ने ‘शाख’ बचाई। वहीं जेवरों का बाक्स मैं न भर सका, लोगों की झोलियां भरने की आदत भी न छुडा सका। नतीजा वो खामोश बुत साये की तरह मेरे साथ लग गया। सरल मंे ठंडापन बढ़ता गया और मैं अपने दंभ में ठंडेपन को रौंदता गया और आगे बढ़ता गया।
    आज भइया को गांव गये दूसरा दिन है, मगर सरल ने मुंह नहीं खोला। रात बिस्तर पर निर्जीव सी पड़ी रही। बर्फ भी गर्मी पा कर पिघलने लगती है, मगर सरल शायद बर्फ से भी अधिक ठंडी हो जाती है, इन क्षणों में.... उफ! क्यों ऐसा होता है?

ऐश्वर्या

मुल्क़ प्रधानमंत्री का, घर घरवाली का, सो हुक्म हुआ दूध लेकर आइये तो चाय मिलेगी। कमबख्त सुबह-सुबह जाना ही पड़ेगा। चाय भी तो पीनी है। रहता ऐसे मोहल्ले में हूं, जहां भोर में उठकर अगली पीढ़ी के साथ लोग टहलने नहीं निकलते। टहलें भी कहां, यहां कोई पार्क नहीं है। उबड़-खाबड़ सड़कें हैं, जिन पर ‘मार्निंग वाॅक’ करते कुत्तों की टोली मय एक-दो सखियों के साथ अवश्य मिल जाती। इन्हीं के आगे-पीछे बड़ी-बड़ी सींगों वाली मरियल सी गायें और उनके पीछे भोले बाबा शिव के प्रिय नंदी वंशज सांड़ अपने वंश वृद्धि के नजरिये से दौड़ते दिखाई दे जाते।
    दूधवाले की गुमटी तक पहुंचने के लिये मोहल्ले के भौगोलिक और मानव सौंदर्य के संग-संग चलना पड़ेगा। उसकी गुमटी और और मेरे घर के बीच के रास्ते पर किसी छोटी नदी जैसी शक्ल द्दरे नाली बहती है। इस नाली में मोहल्ले भर की बिष्ठा, कचरा और महिलाओं के उत्सर्जित गंदे कपड़े डूबते-उतराते आधी से अधिक सड़क पर फैले होते। बची-खुची नंगी पड़ी सड़क पर अपने घरों का कूड़ा फेंकते, पानी के खाली भरे डिब्बों को लेकर लगभग भागते दिख जातीं तीन-तीन पीढि़यां। परचूनिये की दुकान से चाय की पत्ती, शक्कर, सूखी हुई डबर्रोटी के टुकड़े या आटा, दाल, चावल, तेल, नमक, मसाला, खरीदती अलसाई, सूखी और उदास औरतें दिखतीं। पानवाले की दुकान पर इलाकाई आवारा छोकरों के दल के अलावा अपनी तलब मिटाने के लिए बीड़ी, सिगरेट, गुटखा खरीदते ग्राहकनुमा वर्तमान खड़ा होता और सामने दूधवाले के यहां आने-जाने वाली जवान होती लड़कियों व भरपूर जवान औरतों के जिस्मानी उपकरणों को आंखों ही आंखों में नापता-जोखता व फब्तियां कसता रहता है। दूधवाले से बस थोड़ी दूरी पर बजरंगबली का बहुत पुराना मंदिर है। मंदिर के चबूतरे पर जमाने की जंगखाई एक बुढि़या मालिन टूटी सी डलिया में फूल रखकर बेचती है। मंदिर में सामने ही बजरंगबली की आदमकद मूर्ति है, नौ देवियों की छोटी-छोटी मूर्तियां हैं, शिवलिंग है, गणेश प्रतिमा समेत पूरा शिव परिवार है। एक पीपल का पेड़ भी है। मंदिर में दर्शनार्थियों की संख्या मोहल्ले की जनसंख्या का एक प्रतिशत भर है। सड़क पर आते-जाते लोग मंदिर को प्रणाम कर लेते और आगे बढ़ जाते हैं। इसी मंदिर में स्कूल जाती बच्चियां अपने जेबखर्च के पैसों में से एक सिक्का उछाल कर अबकी बार की परीक्षा में अपने फस्र्ट आने की मन्नतें मांगती हैं।
    मंदिर से दक्षिण की ओर मोहल्ले की ‘ऐश्वर्या’ का मकान है। इस मकान का मालिक खुदा जाने कौन है, लेकिन खुद ऐश्वर्या लगती मकान मालकिन जैसी ही हैं, सुबह के समय वे नियम से अपने घर के सामने सड़क की धुलाई करते या उस पर पानी की फुहार का छिड़काव करते दिखाई देतीं। ये पानी जल संस्थान का कर चुकायें बगैर ही वे बेधड़क इस्तेमाल करतीं। इस चालू सड़क का सबेरा हांफता सा धीरे-धीरे बढ़ता लेकिन उनके दरवाजे पर कई बार थम जाता था। उनकी मुस्कराहट के दीवानों के बच्चे अक्सर बगैर चाय-नाश्ते के स्कूल चले जाया करते थे। उनकी सुन्दर काया गाउननुमा कपड़े के भीतर क्या गजब ढ़ाती है जानने की जिज्ञासा से निहायत शरीफ आदमी भी एक पल को ठिठक कर उन्हें भर नजर देख जरूर लेता। आते-जाते लोगों के लिए यह नजारा केबिल टी.वी. के एक चटखारेदार विज्ञापन जैसा होता। आज भी वे पूरी तल्लीनता से सड़क द्दुलने में व्यस्त थीं। दूधवाला उनसे हंस-हंसकर बातें कर रहा था। मुझे देखकर वह आंखों में हैरत भरे मेरी ओर ताकने लगा। मैंने दूध के दो पैकेट उठा लिये, नोट उसकी ओर बढ़ा दिया। वापसी में ‘क्या प्यारी चीज है....’ जुम्ला हवा में उछलता हुआ मेरी पीठ से टकराया।
    ऐश्वर्या के ही मकान में ऊपरवाली मंजिल पर मेरे दफ्तर के एक बाबू प्रबोद्द कुमार तिवारी रहते हैं। वे जब प्रसन्न होते तो सिसकारियां लेकर बड़ी ही बेहयाई से किसी ‘एडल्ट’ फिल्म की कहानी की तरह उसके किस्से किस्तों में अपने साथियों को सुनाया करते। पूरा दफ्तर अपने थूक को बिलोकर और घोटकर शहद की तरह चाटता जाता तृप्त होता जाता। दो-एक पेशाब करने के बहाने बाथरूम तक भी होकर आ जाते और पूरी तनमयता से एक-एक शब्द सुनते जाते।
    ‘तिवारी जी... तुमने यह तो बताया नहीं कि वह नंगी हुई थी तुम्हारे सामने?’
    ‘बताया तो... खुले आंगन में धूप खौल रही थी, वो आई... इधर-उधर देखा फिर हांक लगाई ‘ओ तिवारी, मैं नहाने जा रही हूं बाहर जाना है, तो अभी चले जाओ’।
    ‘आराम से नहाओ बाद में जाऊंगा।’ और बस एक ही बार में उसने अपनी मैक्सी उतारकर फेंक दी, पूरा बदन धूप की तपिश में सुनहरा दिखाई दे रहा था।’।
    ‘तिवारी, तेरे तो मजे ही मजे हैं।’ ईष्या भरी आवाज ने सन्नाटा तोड़ा।
    ‘क्या खाक मजे हैं। वहां तो कालिया दरोगा मजे लूटता है।’
    ‘भाई.. तिवारी साफ-साफ बताओ, ये कालिया दरोगा वाला क्या किस्सा हैं?’
    ‘साला अपने को उसका भाई बताता है। रात में उसी के साथ सोता है।’
    ‘और उसका मर्द?’
    ‘वो तो अंग्रेजी पीकर बेहोश सोता है।’
    ‘यार तिवारी तुमने कोई चक्कर नहीं चलाया।’
    ‘धीरे बोलो। क्या नौकरी से बाहर करवाओगे?’
    ‘क्यों... डरते हो क्या..... ’ बीच में ही दूसरी आवाज ने रहस्य खोला.....
    ‘बड़े साहब भी वहीं आगे रहते हैं। उनकी कलफ लगी सूती कपड़े जैसी करारी आवाज सुनकर तिवारी का सारा जोश ठंडा पड़ जाता है।’
    कामांध सांसों की गंध और उसके मैल से फूटने वाले बुलबुलों ने कमरे में एक खामोश बदबू भर दी थी।
    सच तो मैं नहीं जानता लेकिन कालिया दरोगा को ऐश्वर्या के घर आते-जाते मैंने भी देखा है। वो उसकी मोटरसाइकिल पर पीछे बैठकर आती-जाती भी दिखी है। अभी पिछले ‘पल्स पोलियों अभियान’ के दौरान कालिया रोज ही उसे बिठाकर पोलियों बूथ तक छोड़ने आता था। यह तो सभी ने देखा, मैंने भी देखा है।
    दूध की थैली बीवी को थमाते हुए मन में आया कि पूंछू, ‘ऐश्वर्या-कालिया की गुटरगूं के बारे में उन्हें कुछ मालूम हैं? ‘फिर हिम्मत न जुटा सका। मन में खुराफती अनुभव का विश्वास था कि दूर छोटे शहरों, कस्बों और गांवों से राजद्दानी में आकर बसने वाले छोटे एकल परिवार, जिन पर किसी का अंकुश नहीं था, तो तरक्की की सबसे ऊपरवाली मंजिल पर पहुंचने की जल्दी में रहते हैं। इन परिवारों के मर्द छोटी-मोटी नौकरियां, मजदूरी या फुटकर व्यापार करके पेट के लिए दो रोटियों की जुगत बमुश्किल कर पाते। औरतें पेट से एक बलिस्त नीचे और एक बलिस्ता ऊपर की कीमत पर अपने सपनों को पूरा करके मस्त हैं। वे अपने को भ्रष्ट नहीं मानती चरित्रहीन तो कतई नहीं। और चालाक दिमाग शहरी उनकी देह का एक-एक इंच बेचकर एक नई ‘समाजवादी यौन क्रांति’ की उत्तेजना पैदा करने में लगा है। वे इसे ‘कामर्शियल सेक्स रिवोल्यूशन’ तक कहने से नहीं हिचकते।
    चाय बर्फ की तरह ठंडी हो गई। दफ्तर समय से पहुंचना था। आज नये ‘विशेषांक’ की बैठक थी जिलों से भी लोग आने वाले हैं। चाय भूलकर जल्दी-जल्दी तैयार होकर बस स्टैंड तक आया। सिगरेट की तलब में निगाहें इधर -उधर घुमाईं अनायास सामने पानवाले की दुकान पर नई चमचमाती मोटरसाइकिल पर तिवारी की कमर में हाथ डाले ऐश्वर्या बैठी मुस्करा रही थी। ऐश्वर्या के चेहरे पर न कोई झिझक थी न पश्चाताप। और तिवारी की गर्दन अहंकार से अकड़ी हुई, चेहरा मुस्कराता हुआ। चुटकी बजाकर सिगरेट की राख झगाड़ी। ठीक मेरे सामने से मोटरसाइकिल फर्राटा भरती आगे चली गई।