Sunday, October 10, 2010

अखबार, आदमी और शुभ-लाभ वाली पत्रकारिता

हिंदी वर्णमाला के पहले अक्षर अ से अखबार और दूसरे आ से आदमी। इन दोनों के बीच स्वास्तिक का चिन्ह बनाकर शुभ-लाभ लिखनेवालों पर समूची पत्रकारिता टिकी है। यही वजह है कि पत्रकार बाकायदा ठोकपीट कर बनाए जा रहे हैं। मजा तो यह कि बनाने वाले खुद फर्जी डिग्रीधारकों की जमात से ताल्लुक रखते हैं। इससे भी बड़ी अराजकता बड़े कहे जाने वाले अखबारों से जुड़े पत्रकारों का कुनबा छाती ठोककर फैलाने में गर्व महसूस करता है? सबसे पहले पत्रकारों के सरकारी दामाद होने की बात करते हैं। पत्रकारो को सरकार से शासकीय क्षेत्र में खबरों का संकलन करने के लिए मान्यता दी जाती है। इसके साथ ही रेल-बस यात्रा में छूट, टेलीफोन, डाक में छूट के साथ सस्तीदरों पर सरकारी आवास की सुविधा मिलती है। यह कहां तक उचित है? उस पर तुर्रा यह कि ये पत्रकार मिशन भावना से काम करते हैं। यहां यह जिक्र करना जरूरी होगा कि ब्रिटिश इंडिया राज में भारतीय अखबारों के पत्रकारों/संपादकों को सरकार से कोई विशेष सुविधा नहीं मिलती थी। खासकर मिशन यानी आजादी के लिए लिखनेवालों को तो प्रताड़ना व जेल जैसी सुविधाएं थीं। वर्तमान पत्रकारों के पास शुभ-लाभ की भावना के तहत ही काम करने की प्राथमिकता है। ऐसे में अपने लिए आचार संहिता की बात बेमानी नहीं है?
 अखबार और आदमी के बीच पुल का काम करनेवाले पत्रकारों/संपादकों को ‘उलट-पुलट’, ‘चांदी का जूता’, ‘डम डम डिगा-डिगा’, ‘किंग कोबरा’ जैसे नामों से छपने वाले अखबार सौदेबाजों नजर आते हैं। इन्हीं छोटे पत्रों से सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग सम्हालने वालों, मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों, राजनेताओं, नौकरशाहों को भी तकलीफ है। जबकि यह नाम भारत सरकार के समाचार पत्र के रजिस्ट्रार के कार्यालय से पंजीकृत किये जाते है। इन सबों की यह आपत्ति केन्द्रीय सूचना-प्रसारण मंत्री, राज्यों के सूचना मंत्रीगणों व शीर्ष संपादकों-प्रकाशकों की पिछले साल हुई एक बैठक में खुलकर जाहिर हुई। वहीं प्रकाशनों/संपादकों की न्यूनतम योग्यता तय किये जाने की बात भी उठी। घिसे पिटे 1867 में बने प्रसे अद्दिनियम में भी बदलाव पर चर्चा हुई। केन्दीय सूचना-प्रसारण मंत्रालय ने इसमें व्यापक संशोधनों के प्रारूप को कानून में बदलने की प्रक्रिया की बावत भी बताया। यह सच है कि नामों के पंजीकरण, मान्यता, विज्ञापन-मुद्रण, प्रसार आदि के कानून लचर हैं, जिसके चलते भ्रष्टाचार का मकड़जाल बेहद मजबूत है। इनमें बदलाव बेहद आवश्यक है जिससे आदमी के लिए लड़नेवालों को सच में लाभ मिल सके। जो बात मैंने ऊपर कही है कि ‘चांदी का जूता’ सौदेबाज कहा जाता है, लेकिन ‘सामना’ या ‘दोपहर का सामना’ का नाम हम भूल जाते हैं, जो छाती ठोकर राष्ट्रद्रोही खबरों से लेकर सम्पादकीय तक लिखकर हिंसा का कारण बनता आ रहा हैं उस पर मौजूदा कानूनों के तहत भी कोई कार्रवाई नहीं होती और न ही प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक कोई कार्रवाई करने के लिए किसी अधिकारी को निर्देशित नहीं करता और न ही छोटे अखबरों पर उंगली उठाने वाले सजग प्रहरी न्यायालय तक जाने की हिम्मत दिखाते हैं। यहीं ‘राष्ट्रवादी’ पत्रिका में ‘चीनी न खाने से मर नहीं जाएंगे’ जैसी खबर छपने पर कोई नोटिस तक नहीं जारी होती। क्या इस खबर से नागरिक भावनाओं का हनन नहीं होता? अपमान नहीं होता? ऐसे और भी उदाहरण हैं।
 इन बातों को लिखने के पीछे बड़ी मानसिकता को यह बताना भर है कि हर छोटा अखबार जिसका नाम कुछ भी हो सकता है, सौदेबाज नहीं होता। यदि सौदेबाजी करेगा भी तो कस्बा, तहसील, स्तर पर बेहद छोटी। ‘बड़े’ कैसी सौदेबाजी करते हैं यह केन्द्रीय/राज्य सचिवालयों या किसी भी सरकारी दफ्तरों में देखी जा सकती है। इससे भी अधिक देश की राजधानी दिल्ली सहित राज्यों की राजधानियों में पत्रकारों की कालोनियों के कार गैरेजों और प्रेस क्लबों के बाॅरों पर नजर डाली जा सकती है। यहां किसी पर कोई आरोप लगाने की मंशा नहीं हैं वरन सच का आइना दिखाने भर की है।
 सूचना क्रांति के इस दौर में सैकड़ों गांवों के करोड़ों लोगों को टीवी/इंटरनेट से जोड़ने में दुबले होने वाले इन ग्रामीणों की झोपड़ी में पिछले 62 सालों में पीली रोशनी फेंकने वाला एक छोटा सा बल्ब नहीं जला सके। यह सब बेइमान श्रद्धा और भ्रष्टाचार में आस्था के चांेचले हैं। इनसे बाहर निकलकर ग्रामीण पत्रकारों की पूरी जमात खड़ी करने की जरूरत है। छोटे अखबारों को लघु उद्योग के रूप में विकसित करने की आवश्यकता है। जब बड़े अखबार के चमचमाते दफ्तरों में बड़ी सी श्रीगणेश-लक्ष्मी की मूर्ति रखकर ‘शुभ-लाभ’ के जगमग टाइल्स लगाकर ‘अखबार’ को उद्योग की शक्ल में बदला जा सकता है, तो उसी तरह छोटे अखबारों के लिए भी सुविधाओं की वकालत क्यों नहीं की जा सकती? जिससे वे भी उद्योग में बदल सकें या छोटे अखबारों  के पत्रकारों/संपादकों के ‘बाल ठाकरे’ जैसों से दीक्षित होने का इंतजार है?
 छोटे अखबारों को ग्रामीण पत्रकार आसानी से गांव-गांव तक पहुंचा सकते हैं। सहज ढंग से ग्रामीण समस्याएं भी उठा सकते हैं। खेती, छोटे व्यापार और महाजनों, सूदखोरों के अत्याचार की खबरें ग्राम्य बोलचाल की भाषा में छपेंगी तो ग्रामीण पाठको के साथ अधिकारियों को भी निराकरण मे ंआसानी होगी। इसके सुबूत में बांदा जिले के कर्बी से छप रहे ‘खबर लहरिया’ अखबार को देखा जा सकता है। ऐसे नाम और भी हैं। बेशक कानून कायदे और योग्यता का निर्धारिण हो मगर छोटे अखबारों के सफाये की शर्त पर कतई नहीं।
 अखबार और आदमी के बीच पुल का काम करनेवाले पत्रकारों की नई कौम विकसित करने की आवश्यकता पर बल देना होगा। ये कौम पीड़ित और पीड़क के फर्क को समझ सके ऐसी शिक्षा, ऐसे संस्कार देने का माहौल बनाने का प्रारूप बनाना होगा। सिर्फ कानून बना देने भर से कुछ नहीं होने वाला है। और अंत में अपनी बात कर लेते हैं। ‘प्रियंका’ 31 वें वर्ष में पहुंच गई है। इसकी गवाही में यह वार्षिकांक आपके हाथों में है। आपके दुलार ने ही ‘प्रियंका’ को इतनी उम्र दी है। वार्षिकांक, 2010 में होली-ठिठोली के साथ हिन्दी पत्रकारिता के फटे हुए एक पृष्ठ के साथ बहुत कुछ पठनीय है। होली, नवसंवत्सर आपका मंगल करे, यही कामना है। प्रणाम!

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